अनुचिंता-7(अनंत सुख) By Anjali Nanda,(Anjali R Padhi) President Shree Jagannath Mandir Seva Sansthan (SJMSS),Daman
जो स्वयं असीम है वही जगन्नाथ महा प्रभु ही हमें अनंत सुख प्रदान कर सकते है । सुख का सतयुग तभी आरंभ हो जाएगा जब हम तेरा-मेरा छोड़ कर ‘हम’ का उदात्त भाव अपना लें,तो और तभी हम उस सुख को उपलब्ध होंगे,जो शरीर से आगे बढ़कर आत्मा को सुकून देता है। सुख एक अनुभूति मात्र ही हैं। इसमे आनन्द, अनुकूलता, प्रसन्नता, शांति इत्यादि की अनुभूति होती हैं ,उसे सुख कहा जाता हैं। सुख की अनुभूति मन से जूड़ी हुई हैं और बाह्य साधनो से भी सुख की अनुभूति हो सकती हैं और अन्दर के आत्मानुभव के बिना किसी बाह्य साधन एवम अनुकूल वातावरण के बिना भी हरहँएश सुख की अनुभूति हो सकती हैं।
अर्थागमो नित्यमरोगिता च, प्रिया च भार्या प्रियवादिनी च।
वश्यस्य पुत्रो अर्थकरी च विद्या षड् जीवलोकस्य सुखानि राजन् ॥
हे राजन छः चीजे अपने पास होना जीवलोक में ‘सुख’ हैं – अर्थागम (पैसा आवे), निरोग काया, प्रिय पत्नी, प्रियवादिनी पत्नी, आज्ञाकारी पुत्र, अर्थकरी विद्या।
भावनाओं के भंवर से बाहर निकल कर इंद्रियों को आत्मा के साथ जुड़ना है। इंद्रियों को साधना के द्वारा एकत्व करके ही आत्म सुख का अनुभव किआ जा सकता है। मनुष्य का एक ही सच्चा मित्र है। वह है धर्म। मनुष्य के मरने के बाद भी धर्म वफादार रहता है। अपने सांसारिक कर्तव्यों का पालन करते हुए हमें साधना करनी चाहिए। यह हमें सुनिश्चित करने के लिए करना चाहिए कि मृत्यु के बाद धर्म हमारा साथ दे, अंतिम वर्ग के लोग जो अपनी आजीविका के लिए शारीरिक श्रम पर निर्भर हैं, उन्हें भी यह याद रखना चाहिए कि उन्होंने परम पुरुष की कृपा से भौतिक शरीर प्राप्त किया है। जब वे इस शरीर को खो देते हैं तो इस बात की कोई गारंटी नहीं कि वे इसे फिर से प्राप्त करेंगे। उनके लिए भी आध्यात्मिक साधना करना अनिवार्य है। इसलिए मेरे मित्रो! हम सभी वर्गों और व्यवसायों के लोगों के लिए साधना आवश्यक है, अनिवार्य है।
वास्तविक सुख का स्वरूप, आत्म संतोष आत्मानंद, आत्म विकास और आत्म कल्याण , ऐसे दिव्य सुख संसार की भोग वासनाओं में लिप्त रहने में कहां? यह तो विषयों से ऊपर उठकर आध्यात्मिक जीवन अपनाने से ही प्राप्त हो सकता है। आध्यात्मिक जीवन क्या है? वह है सद्भावनाओं से ओतप्रोत जीवन को लोकहित की दृष्टि से यापन करना, परमार्थ, परहित और परोपकार में संलग्न रहना आध्यात्मिक जीवन माना गया है। आध्यात्मिक भाव की सिद्धि करने के लिए मनुष्य को अपना व्यक्तित्व उज्ज्वल, निर्मल और निर्दोष बनाना पड़ेगा। दोष, पाप और मल की विद्यमानता ही व्यक्तित्व को गंदा और अपवित्र बना देती है। जितना इन कलुषों को घटाया मिटाया जाएगा उतना ही अंतर्ज्योति दीप्त होती चलेगी और उसके प्रकाश में व्यक्तित्व ऊपर उठता चला जाएगा। और आत्मा में सुख शांति, संतोष और श्रेय की स्थापना होती जाएगी। व्यक्तित्व विकास में आध्यात्मिक जीवन की सभी संभावनाएं निहित रहा करती हैं। जीवन के वास्तविक सौंदर्य से रुचियां, और लोक कल्याण के लिए आवश्यक गुणों, प्रेम, त्याग, सहायता, सहयोग और सहानुभूति की सीमाएं समृद्ध हो जाती हैं। हम सुख की आशा से धन के ढेर लगाये चले जाते है, पर उसका परिणाम सदैव विपरीत ही सिद्ध होता है। उच्चाशयी आध्यात्मिक व्यक्ति धन को श्रम का पारिश्रमिक मानते हैं। उनकी दृष्टि में धन का महत्त्व साधन से अधिक कुछ नहीं होता। वे जो कमाते हैं उसको भौतिक भोगों में न लगाकर उसका अपने और अपने समाज के लिए सदुपयोग करते हैं। वे लक्ष्मी को छाया की तरह चंचल मानकर उसके साथ आसक्ति का भाव नहीं जोड़ते। ऐसे निस्पृह नर रत्न धन के आवागमन में समभाव में स्थित निश्चितता का आनंद लिया करते हैं।
अध्यात्म साधना का अंतिम लक्ष्य है- निर्वाण। निर्वाण ही परमसुख है। भगवान महावीर और गौतम बुद्ध ने वर्षों तक साधना कर निर्वाण के रहस्यों को प्राप्त किया और जनता को दिखाया- परमसुख का पथ।
सुख दीर्घगामी स्वस्ति की अनुभूति है, मन की शांति और जीवन से संतुष्ट होने का भाव है – हम सदैव इसी की कामना करते हैं। जब हमें इसका तनिक भी स्वाद मिलता है तो हम इसे सदा के लिए चाहने लगते हैं।
लोग अभिराम को सुख समझ बैठते हैं। प्रायः हम यह सोचते हैं कि हम अच्छा भोजन खा लें, महंगे कपड़े पहन लें और हमेशा मौज करते रहें, तो हम सुखी हों जाएँगे। पर ऐसा नहीं है। हम यह भी सोचने लगते हैं कि यदि हम अपनी सभी आवश्यकताओं और इच्छाओं को पूरा कर लें, तो हम सुखी हो जाएँगे। परन्तु वास्तव में, केवल अपने से सरोकार रखना हमें अकेलेपन और अवसाद की ओर ले जाता है।
सुखी होने के लिए और दूसरों से जुड़ने के लिए, हम अक्सर सोशल मीडिया की ओर झुकते हैं। अपनीं ‘सेल्फी’ पर आई ‘लाइक्स’ अथवा किसी मित्र के सन्देश पर कुछ देर के लिए अभिराम की एक लहर सी आती है पर यह हमें और अधिक पाने की लालसा से भर देती है। हम बराबर अपना फ़ोन देखते रहते हैं, व्यग्रता से अपनी नशे की अगली खुराक की प्रतीक्षा में। परन्तु चाहे हमें कितनी ही ‘लाइक्स’ और सन्देश प्राप्त हो जाएँ हम लोगों से अपने को कटा हुआ ही अनुभव करते हैं।
बुद्ध ने कहा था कि सुख का सबसे बड़ा स्रोत औरों को अपने हृदय में स्थान देना है। जब हम पूरे मन से दूसरों की भलाई और सुख की परवाह करते हैं, हमारा हृदय स्नेह से भर जाता है, मुक्त रूप से औरों से जुड़ता है और हम स्वयं भी स्वस्ति का अनुभव करते हैं। हम शारीरिक रूप से भी बेहतर अनुभव करते हैं। दूसरों के सुख की चिंता करते हुए, हम यथासम्भव उनकी सहायता करना चाहते हैं तथा ऐसा कुछ भी करने से बचते हैं जिससे उन्हें कोई नुक्सान हो जाए। इससे विश्वास से भरी दोस्तियाँ बनती हैं जो हमारे जीवन को सार्थक बनाती हैं। परिवार और मित्रों का सहारा पाकर हमारे भीतर शक्ति आ जाती है जिससे हम जीवन का हर स्थिति में सामना कर सकते हैं।
“सुख आंतरिक शांति पर निर्भर है और आंतरिक शांति स्नेही हृदय पर
यदि हम अपने लिए सुख की कामना नहीं कर पते तो हम किसी दूसरे के सुख की कामना कैसे करेंगे ? बौद्ध धर्म में, सुख की कामना सब को साथ लेकर चलती है।
यह सोचना आसान है कि आज की दुनिया पर कुछ भी असर डालने में हम पूरी तरह असमर्थ हैं। हम सोच सकते हैं, “जो भी हो। हमें क्या ?” परन्तु वास्तविकता यह है कि हम अनजान लोगों के कुशल-क्षेम के बारे में सोच कर और सहायता करने का प्रयास करके उनका भला कर सकते हैं। एक छोटी सी मुस्कान अथवा कहीं भी किसी भी कतार में अपने से पहले किसी को जाने देकर हमें लगता है कि हमने कुछ अन्तर तो पैदा किया। हमें आत्म-गौरव का अनुभव होता है – हम भी कुछ देने योग्य हैं, और एक बहुत अच्छी अनुभूति होती है। हमें अपना साथ और अपना जीवन अधिक सुखमय लगता है।
अतः जो चीजें हमें वास्तव में दूसरों से जोड़ती हैं, वह है उनके सुख के बारे में सोचना और यह की हम उनकी कैसे सहायता कर सकते हैं बजाय इसके कि हम अपने महत्त्व की पुष्टि करने और हमें सुखी बनाने के लिए उनका मुंह देखें। बात वहीं आ जाती है, आत्म-तल्लीनता बनाम लोगों के कुशल-क्षेम की पूरे मन से परवाह करना।
हम मनुष्य सामाजिक प्राणी है। हम दूसरों से जुड़कर ही फल-फूल सकते हैं। अतः दयालुता, दूसरों के लिए सरोकार और करुणा, यही मुख्य बाते हैं जो हमें सुखी जीवन जीने के लिए पोषित करनी हैं।
सीधी सरल शब्दों में कहें तो परमात्मा परमेश्वर परम पुरुष की कृपा श्री जगन्नाथ की कृपा ही परम अंतिम सुख है । ऐसे जगन्नाथ स्वामी मेरे पथप्रदर्शक बनकर मुझे शुभ दृष्टि प्रदान करे | 🙏
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