श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! उफ़ ! रूप माधुरी वेणु माधुरी !!
भाग 1
प्रेम में जलन भी मधुर होता है……तात ! सच ये है ….जैसे गंगा में अपवित्र से अपवित्र नाला भी चला जाए तो पवित्रतम गंगा बन जाती है ……ऐसे ही प्रेम की गंगा में काम क्रोध लोभ मोह अहंकार के कितनें भी गन्दे नाले चले जाएँ प्रेम पवित्र कर देता है ।
जलन भी फिर आवश्यकता बन जाती है ……सलोना साँवरा हो और बस मैं हूँ …….ये प्रेम अद्भुत है …..तात ! इसकी थाह वही पासकता है ……जो डूबेगा……उद्धव हँसे – जो डूब गया प्रेम में वह बताएगा कैसे ?
उद्धव विदुर जी को कहते हैं ……….गोपियाँ सुन रही हैं वेणु को ……उस वेणु को, जिसनें सबको जीत लिया है……सम्पूर्ण सृष्टि प्रेम सिन्धु में सरावोर हो गयी है ।
तात !
कितना पीयेगी अमृत को …अरी ! निगोड़ी बाँसुरी ! कुछ तो हमारे लिये भी छोड़ दे ……….देख ! तेनें कैसा अपना ताण्डव मचा रखा है ……..आकाश में देख तो ! बेसुध होकर पड़ी हैं अपनें अपनें विमानों में अप्सरायें ………और जो अभी आही रही हैं विमानों से ……….उनकी तो बाँसुरी सुनकर विचित्र स्थिति हो रही है………..कटि वस्त्र अलग हो रहे हैं …………पर उन्हें भान ही नही है …………उनके पति उनकी ये स्थिति देखकर चिंतित हैं …….पर जब उनके भी कर्णरन्धों से बाँसुरी के स्वर चले जाते हैं ….तो वो भी बेसुध ही हो जाते हैं ।
*क्रमशः ….


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