श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! “प्रेमधर्म” सब धर्मों से श्रेष्ठ है” – माथुर ब्राह्मणियों पर कृपा !!
भाग 1–
हाँ , तात ! प्रेम धर्म से बड़ा कोई धर्म नही……धर्म का अभिप्राय यही होता है ना ! जिसनें हमें धारण किया है ? तो प्रेम नें ही हमें धारण किया है…….प्रेम से बड़ा तप और कुछ नही है ….प्रेम से बड़ा योग कुछ नही है…..प्रेम से बड़ा ज्ञान कुछ नही…..क्यों की प्रेमी ही सबसे बड़ा ज्ञानी है…..प्रेमी को ही ये पता रहता है कि ….मेरे प्रियतम के अलावा सब मिथ्या है सब झुठ है…..सत्य एक मात्र मेरा प्रियतम ही है ।
उद्धव उसी प्रसंग को भावपूर्ण होकर सुना रहे हैं……..
तात ! वो सब माथुर ब्राह्मणियां अपनें अपनें पतियों के यज्ञानुष्ठान को त्याग कर नन्दनन्दन के दर्शन करनें के लिये चल दी थीं ।
उद्धव ! उस यज्ञपत्नी का क्या हुआ जिसको उसके पति नें रोक दिया था…..वो तो विरह में डूब गयी होगी ? विदुर जी नें प्रश्न किया ।
तात ! वो तो अन्य यज्ञपत्नियों से पहले पहुँची ……..हाँ देह भले ही उसका यहीं था पर भावना से वो श्रीकृष्ण के पास ही थी ।
उनका अन्तःकरण श्रीकृष्ण के चरणारविन्द में लग चुका था ।
उद्धव बोले – क्रिया का महत्व नही है इस प्रेम धर्म में …….इसमें तो भाव प्रधान है ।
श्याम सुन्दर एक शिला पर विराजे हैं…..पीताम्बर धारण किये हुए हैं ।
मुरलीमनोहर हैं…..वन माला उनके हृदय में झूल रही है…..उनका श्रृंगार पल्लवों से हुआ है ……..नट का सा रूप है ……चंचल उनकी चितवन है …….अद्भुत हास्य उनके मुखारविन्द पर खेल रही है ।
कानों में कमल के कुण्डल हैं …….उनकी घुँघराली अलकें उनके कपोलों पर लटक रही हैं । आहा !
उन ब्राह्मणियों नें कन्हैया के इस प्रेमपूर्ण झाँकी का जब दर्शन किया ……मुग्ध हो गयीं……..कुछ देर तक तो उन्हें देहभान भी न रहा ………वो चाहती थीं की आलिंगन करूँ नन्दनन्दन को…… चाहती थीं कि वे वृन्दावन बिहारी को …….उनकी सुरभित भुजाएँ इनके गले में पड़ें…….पर – देह भान भूल कर स्तब्ध हो निहारती रहीं वे सब ।
*क्रमशः …
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