श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! श्रीकृष्ण की क्रान्ति – “गोवर्धन पूजन” !!
भाग 4
सब भगवान हैं तो इन्द्र ही क्यों ? गोवर्धन क्यों नही ?
मेरी भोरी मैया ! इस बार मैं इन्द्र की पूजा बृज से बन्द करवा के ही रहूँगा ……….श्रीकृष्ण नें मुस्कुराते हुये कहा था ।
पर इन्द्र कुपित हो गया तो ? और उसनें प्रलयंकारी वर्षा कर दी तो ?
मेरी मैया ! मेरे गोवर्धन हमारी रक्षा करेंगे ………….वो सदैव हमारी रक्षा करते हैं …………..और इसके बाद भी इन्द्र में आसुरी भाव नें प्रवेश किया और बृज को डुबोनें का प्रयास किया तो फिर मैं भी इन्द्र से टकरा जाऊँगा ……….वो मुझे जानता नही है ….मैं भी अहीर कुमार हूँ …….वन पर्वतों में रहनें वाला – गोपाल ।
इतना कहकर वहाँ से चले गए थे श्रीकृष्ण ।
सहस्त्रों बृजवासी अपनी अपनी बैल गाड़ियों में बैठकर नन्द आँगन में पहुँच गए हैं …….बृजराज नें भी सोचा नही था कि पूरा ही बृज मण्डल उमड़ पड़ेगा…..सब बैठे हैं…….उनका कन्हैया आज बोलेगा …..क्या बोलेगा किसी को पता नही ……दो दिन ही बचे हैं इन्द्र पूजन के ….तैयारियाँ चल रही है…..पर ये सभा क्यों बुलाई है नन्द महाराज नें ?
किसी को पता नही ……..पर सब इतना जानते हैं …….कि कन्हैया आज बोलेगा ………..।
कन्हैया आये……महर्षि शाण्डिल्य भी आये……बृजराज भी हैं ।
“इन्द्र की पूजा को त्याग कर हम सब एक नई और दिव्य परम्परा का प्रारम्भ करें ” – ब्रजपति के आदेश से कन्हैया नें प्रथम उस सभा में उठकर अपनी बात रख दी थी ।
“हम सब गोवर्धन की पूजा करें”………श्रीकृष्ण नें ये बात भी कह दी ।
ये कैसे हो सकता है ? हमारी सदियों से चली आरही परम्परा है ……
कुछ वृद्ध लोग उठे और विरोध करनें लगे थे ।
क्यों नही हो सकता ……और सदियों से चली आरही परम्परा अंध परम्परा भी तो हो सकती है ! और ये अंध परम्परा ही है …….क्यों हम किसी अहंकारी देवराज की पूजा करें ! क्यों ? श्रीकृष्ण गम्भीर होकर उच्च स्वर में बोले …………गोवर्धन नें क्या नही दिया हमें ……., फल, फूल, वन, जल , क्या इनके बिना हम जीवन की कल्पना भी कर सकते हैं ? और हे मेरे बृजवासियों ! मेरी बात सुनो !
इन्द्र कोई और नही हम ही हैं ……….हम हैं ……….हम पुण्य करते हैं ……तब हम ही देवता बनते हैं …….इन्द्र बनते हैं ब्रह्मा बनते हैं ।
ये कहते हुए कन्हैया नें सबके सामनें एक चींटी को दिखाया ……..ये चींटी सहस्त्र बार इन्द्र बन चुकी है …………..इसलिये इन्द्र की पूजा करनें का आग्रह त्यागो ………….
एक बूढ़े बृजवासी नें उठकर महर्षि शाण्डिल्य से पूछा… …..क्या कन्हैया सत्य कह रहा है महर्षि ?
महर्षि शाण्डिल्य नें सिर हाँ में हिलाया और मुस्कुराये ।
आकृति कैसी है ये मुख्य नही है……आकृति क़ैसी भी हो सकती है …पर्वत के रूप में भक्ति का दिव्य रूप हमारे सामनें है – गोवर्धन पर्वत ।
और कर्म मुख्य है ……..मात्र देवों के भरोसे रहनें से क्या होगा ?
पूरी सभा में स्तब्धता छा गयी थी ……जब श्रीकृष्ण बोल चुके थे ।
अगर इन्द्र की पूजा छोड़कर अनिष्ट हुआ तो ?
एक वृद्ध बृजवासी नें फिर उठकर ये भी पूछा ।
“हो सकता है …….और इन्द्र हमारे बृज मण्डल को डुबोनें का प्रयास भी कर सकता है……..पर क्या हम डरकर इन्द्र की पूजा कर रहे हैं ?
भय और प्रलोभन से की गयी उपासना , उपासना नही कहलाती , हे बृजवासियों !
क्या दिया है तुम्हे इन्द्र नें ? पर गोवर्धन सबकुछ देते रहते हैं ……नित्य निरन्तर देते रहते हैं ……….किन्तु उनमें कभी अहंकार नही आता ……इन्द्र अहंकार से ग्रस्त है …………इसलिये इस बार !
और क्यों ! एक सूखे बाँस को खड़ा कर देते हो आप लोग ……..और उसमें एक ध्वज लगाकर इन्द्र कहकर पूजा करते हो …….अरे ! इससे श्रेष्ठ तो ये है कि सामनें हमारे गोवर्धन पर्वत हैं ………दिव्य हैं ….अद्भुत हैं …..इनकी शोभा तो देखो ……..इनकी पूजा करो !
क्या करना होगा हमें ?
करतल ध्वनि से श्रीकृष्ण की बात का समस्त बृजवासियों नें समर्थन किया .........और पूछा ।
छप्पन भोग बनाओ …….गोवर्धन नाथ को भोग लगाओ …….और सब बड़े प्रेम से उस प्रसाद को पाकर पूरे सात कोस की प्रदक्षिणा करो ।
गौओं का पूजन, गौओं को खिलाओ ………..आगे आगे गौ को करके हम सब गाते बजाते परिक्रमा करते हैं ।
बोलते बोलते श्रीकृष्ण आवेश में आगये थे ।
देवराज इन्द्र को आज तक आपनें देखा है ? इन्द्र प्रत्यक्ष हुआ कभी ?
पर मेरे गोवर्धन प्रकट होंगे ……….वो तुम सबसे प्रत्यक्ष होकर भोग स्वीकार करेंगे ……..मेरे गोवर्धन नाथ ! इतना कहते हुए श्रीकृष्ण नें गोवर्धन को प्रणाम किया ।
ये सुनते और देखते हुए समस्त बृजवासी आनन्द से उछल पड़े थे ।
जय हो जय हो ….की ध्वनि से पूरा नन्द का आँगन गूँज उठा था। ।
आनन्द से सब अपनें अपनें घरों में लौट आये ……और गोवर्धन को ही आज से सबनें अपना इष्ट स्वीकार कर लिया ।
छप्पन भोग की तैयारियों में लग गए थे सब ।
*क्रमशः…


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