श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! गोविन्द का दिव्य अभिषेक !!
भाग 2
हाँ वही मुझे कुछ उपाय बताएंगे ……….ऐसा विचार करके इन्द्र ब्रह्मा जी के यहाँ ब्रह्मलोक में पहुँच गया ।
वत्स ! अपराधी तो मैं भी हूँ नन्दनन्दन का ।
ब्रह्मलोक में आये इन्द्र से ब्रह्मा जी नें अपनी बात कही ।
और तुमसे बड़ा अपराध मेरा था……मैने तो श्रीकृष्ण के सखाओं और ग्वालों का ही अपहरण कर लिया………सचिन्त हो बोल रहे थे ब्रह्मदेव ……….उसके बाद मैने नन्दनन्दन से बहुत क्षमा याचना की …..पर नही, वे नही मानें ……..न मुझे उन्होंने क्षमा ही किया ।
तो क्या श्रीकृष्णचन्द्र जू मुझे क्षमा नही करेंगे ? हे ब्रह्मदेव ! आपके पास क्या कोई उपाय नही है ? इन्द्र बारम्बार कह रहा था ।
कुछ ही देर में ब्रह्मा का मुखमण्डल खिल गया ……..गोपाल तो गौ से ही प्रसन्न होते हैं …..ॐ सुरभ्यै नमः….ब्रह्मा जी इतना ही बोले थे …..कि रंभाती हुयी गोलोक धाम से सुरभि गाय उतरी…….ब्रह्मा जी नें स्वयं प्रणाम किया था सुरभि गाय को ……इन्द्र नें प्रार्थना की ….. हे मातः ! गोपाल के सामनें मुझे पहुँचा दें और वे मुझे क्षमा कर अपनी शरण में ले लें ।
वत्स इन्द्र ! तुम सहस्रों नेत्र धारण करके भी कैसे सर्वेश्वर गोलोक बिहारी को पहचान न पाये …………वे कोप नही करते ………..सर्वेश्वर ही कोप करेंगे तो बचेगा कौन ? तुम्हे क्या लगता है इन्द्र ! कि वृन्दावन बिहारी तुमसे रुष्ट हैं ? अगर वे रुष्ट होते तो तुम्हे त्रिलोकी में कोई बचा न पाता ………..अभी तक तुम बचे न होते ।
आहा ! सुरभि गाय का प्रेमपूर्ण आश्वासन मिला ………..
“चलो मेरे साथ” – सुरभि गाय मर्त्यलोक में उतरनें लगीं थीं ……..इन्द्र नें एहरावत हाथी को छोड़ दिया था …….वे पैदल उतरे थे आगे आगे सुरभि गाय को करके ।
पहुँच गए वृन्दावन में …………और वहाँ –
“तुम सब जाओ ! मैं आरहा हूँ अभी”…………
वहाँ एक सुन्दर सी शिला थी ………..सब ग्वाल बाल आनन्दित होते हुए लौट रहे थे अब अपनें अपनें घरों की ओर……तब कन्हैया नें कहा ………तुम सब जाओ ! मैं आ रहा हूँ अभी” ……..इतना कहकर कन्हैया वहीं पास में पड़ी शिला में बैठ गए थे ।
ग्वाल बाल रुकना चाहते थे पर कन्हैया नें कहा …………मुझे कुछ समय के लिये एकान्त चाहिये ………..तुम सब अभी जाओ !
चलो चलो ! अपना कन्हैया कुछ समय एकान्त में बिताना चाहता है ।
मनसुख नें सब को कहा …….और सब आगे बढ़ गए थे ।
एकान्त में बैठे हैं श्याम सुन्दर……बड़े सुन्दर हैं……मोर का पंख सिर में सुशोभित हो रहा है …..मन्द मन्द मुस्कुरा रहे हैं वे ।
तभी – सुरभि गाय ऊपर से उतरीं…….उनके पीछे इन्द्र थे …….इन्द्र नें तो पृथ्वी में आते ही साष्टांग प्रणाम किया था …………..
मेरे गोविन्द आप हो …………सुरभि बोल उठी ।
मैं नही मानती किसी इन्द्र को……..मेरे लिये और मेरे गौओं के इन्द्र आप ही हो……..इसलिये ये नाम मैं आपको देती हूँ – गोविन्द ।
इतना बोलकर सुरभि ऊपर की शिला में चली गयीं ……….नीचे गोविन्द नें अपना मोर मुकुट उतार कर रख दिया …..पीली पीताम्बरी पास में ही रख दी …….वनमाला उतार दी …….अब नन्दनन्दन मुस्कुराते हुए विराजमान हैं …….ऊपर से स्नेहपूरित हो सुरभि नें अपनें थनों से दुग्ध को बहाना शुरू कर दिया था ।
वो दूध गोविन्द के ऊपर गिरनें लगा…….अभिषेक हो रहा है गोविन्द का ……….स्वयं ब्रह्मा आकाश में उपस्थित हैं ……..उनके चार मुखों से सस्वर वेद मन्त्रों का उच्चारण शुरू हो गया था ।
तात ! क्या दिव्य झांकी थी वो ………..उद्धव बोले ।
इन्द्र नाच उठा……इन्द्र के नेत्रों से अश्रु बहनें लगे…….नाथ ! नाथ ! मुझे क्षमा करें ……मैं आपका अपराधी हूँ मुझे क्षमा करें । इन्द्र बारम्बार बोल रहा था ।
तभी एहरावत हाथी आकाश से उतरा …………वो आकाश गंगा का जल लाया था अपनें सूँड़ में भरकर …………अब उसनें उस जल से अभिषेक किया गोविन्द का ……इन्द्र अभिषेक के जल को अपनें मस्तक से लगा रहा है …………पी रहा है ………अपनें देह में छींट रहा है ।
मैं तुमसे प्रसन्न हूँ इन्द्र ! ……..तुमनें मेरे अपनें लोगों को इतनें समय तक मेरे समीप एकत्र रखा ………..
आप कृपा सिन्धु हैं नाथ ! आपकी करुणा अपार है !
इन्द्र नें बारम्बार प्रार्थना की …..बृजराज कुमार बस मुस्कुराते रहे ….सुरभि प्रार्थना करते हुए चलीं गयीं गोलोक में ……..इन्द्र जाना चाहते नही थे …..पर नन्दनन्दन नें उन्हें क्षमा दान करके भेज दिया ।
अरे ! तू नहा रहा था ? मनसुखादि उसी समय वहाँ आपहुँचे ।
तुम लोग गए नही अपनें घरों में ? हँसते हुए पूछा कन्हैया नें ।
हमारा मन कहाँ लगता है तेरे बिना यार ! बृजराज कुमार !
मुस्कुराये कन्हैया ,
सखाओं को गलबैयां दिए लौट आये थे नन्दगाँव में ।


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