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August 1, 2025 11:32 am

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श्रीकृष्णचरितामृतम्-!!श्रीराधा कृष्ण विवाह !!-भाग 2 : Niru Ashra

श्रीकृष्णचरितामृतम्-!!श्रीराधा कृष्ण विवाह !!-भाग 2 : Niru Ashra

श्रीकृष्णचरितामृतम्

!! श्रीराधा कृष्ण विवाह !!

भाग 2

ये है भाण्डीर वट !

श्रीराधारानी नें मुझे उस स्थान के दर्शन कराये थे ।

दिव्य था वह वट और वो वन ……………

उद्धव ! मुझे स्वीकार किया मेरे नन्दनन्दन नें ये क्या मेरा कम सौभाग्य है ! उद्धव ! मथुरा की ललनाएँ सब पागल होंगीं ना नन्दनन्दन के पीछे ………….हाँ , वो मथुरा है नागरी सभ्यता की वो और हम ! गंवार ……….कुछ नही जानती फिर भी , मेरे साथ ! ये राधा पूरी गंवार है …………बरसानें की मै रहनें वाली ……..हाँ उस सुकुमार साँवरे से प्रीत कर बैठी थी ।

यहाँ कुछ देर के लिये मौन हो जाती हैं श्रीराधा ……….फिर बोलनें लगती हैं ……..मुझे तात ! श्रीराधारानी नें ही अपनें मुखारविन्द से अपनें विवाह की चर्चा करके सुनाई थी ।

उद्धव ! मैं तो नित्य आती थी बरसानें से नन्दनन्दन के पास ……..वो लौटकर आते गौचारण करते हुए ………मैं उसी समय चली जाती वृन्दावन में ………..वे मुझ से मिलते ………हम दोनों बैठकर बितियाते रहते थे……उनकी वो हँसी ……मुस्कुराहट……उनकी झूठी साँची बतियाँ ।

उस दिन वर्षा हो गयी ……..घनघोर वर्षा ………मेरी संग के सखियाँ भी मेरे साथ नही थीं …………पर मैं उस वर्षा में भी वृन्दावन गयी ………खोज रही थी अपनें प्रियतम को ……..

पर – ” बेटी राधा “! एक आवाज मेरे कान में पड़ी ………….बेटी राधा ! अकेले तुम इस घनघोर वर्षा में ? ऐसे नही घूमते बेटी !

बृजराज बाबा मेरे सामनें थे………उनकी गौएँ खो गयीं थीं वृन्दावन में तो वे खोजनें चले आये थे…….तुम जाओ बेटी ! सुनो आराम से जाना ! बहुत अन्धकार हो गया है……..मैं शरमा कर चुपचाप जानें लगी तो बृजराज बाबा नें मुझे फिर रोका ……..बेटी ! मेरे लाला को भी अपनें साथ ले जाओ ………और नन्दगाँव की सीमा में ही छोड़ देना …….अब पता नही मेरी गौएँ कहाँ गयीं हैं ……..मुझे कितना समय लगेगा …….तुम इसे ले जाओ ! ये कहते हुए नन्दनन्दन को अपनी गोद से उतार दिया था बृजराज बाबा नें ………..मैं हँसी …….मैनें बृजराज बाबा की गोद की ओर ध्यान भी नही दिया था ।

नन्दनन्दन और हम दोनों अब खड़े हैं वृन्दावन में ……..दूर दूर तक कोइ नही है ………बृजराज बाबा भी जा चुके हैं अपनी गौओं को खोजनें ।

तभी दामिनी चमकी ………घन गरजे …….और दोनों युगल एक दूसरे में लिपट गए थे ।

हे गोलोक बिहारी ! हे सर्वेश्वरी श्रीराधिके ……….

आप दोनों युगल के चरणों में मैं विधाता ब्रह्मा प्रणाम करता हूँ …….ये कहते हुए उन चतुर्मुख ब्रह्मा नें अपनें चारों मुख को हमारे सामनें झुका दिया था । मेरे नन्दनन्दन प्रसन्न हुए ……..क्या चाहते हो ?

ब्रह्मा नें अपनें दोनों हाथों को जोड़ा और प्रार्थना किया …….

वैसे आप दोनों अनादि दम्पति हैं ………….फिर भी हमारी अभिलाषा आप पूरी करेंगे हम यही प्रार्थना करते हैं ।

क्या अभिलाषा है आपकी हे विधाता ! श्यामसुन्दर नें पूछा ।

आप दोनों का विवाह हो ……और वो विवाह मेरे द्वारा सम्पन्न हो ।

नयनों को झुकाये ब्रह्मा प्रार्थना कर रहे थे ।

तब श्यामसुन्दर नें टेढ़ी चितवन से उद्धव ! मुझे देखा था…”कहो प्यारी !”

मैं शरमा गयी……आपकी जो इच्छा प्यारे ! मैं इतना ही बोली ।

ब्रह्मा के आनन्द का ठिकाना नही था ………उसी समय एक स्वर्ण वेदी प्रकट हुयी……..विवाह मण्डप प्रकट हो उठा ……….कदली के हरे हरे वृक्ष ……बन्दन वार स्वयं लग गए ………..रंगोली बन गयी ।

आकाश में गन्धर्व वाद्य यन्त्र बजानें लगे थे ………अप्सरायें नाच रही थीं ………..तभी हम दोनों श्याम सुन्दर और मैं ……….उस दिव्य और अनुपम विवाहमंडप में बैठे ।

पण्डित के रूप में स्वयं ब्रह्मा थे ……चारों मुख से वो वेदोच्चारण ही किये जा रहे थे ………….मैं दुल्हन बनीं अत्यधिक आनन्द विभोर थी ………..पाणिग्रहण की बारी आई तो ……

हे सर्वेश्वर ! ये सौभाग्य भी आप मुझे दें ……….ब्रह्मा नें हमारा पाणिग्रहण संस्कार भी स्वयं किया ………..मुझे अपनी पुत्री भी बना लिया था विधाता नें ……..चारों ओर जयजयकार हो रहा था ….नभ से बस सुमन ही बरस रहे थे …….दुल्हा बनें मेरे श्याम और मै उनकी दुल्हन थी………सात फेरे हुए हमारे …….आहा ! कितना आनन्द आरहा था उस समय …………

हे सर्वेश्वर ! अब आप मुझे दक्षिणा दें ………ब्रह्मा हाथ जोड़कर हमारे सामनें खड़े हो गए ।

मुकसुराये श्याम सुन्दर ………चतुर् हो ब्रह्मा ………क्या चाहिए बोलो ….हे नन्दनन्दन ! मुझ से जो अपराध हुआ है ………आपके बछडे और ग्वाल बालों का मैनें अपहरण किया था ………..उसके लिये मुझे आप क्षमा करें ………..भूल जाएँ उस अपराध को हे नाथ !

ठीक है ………….जाओ ! हमनें तुमको क्षमा किया ।

पर अब मैं दुल्हन से भी माँगूँगा…….ब्रह्मा नें मेरी ओर देखते हुए कहा ।

माँगिये ! आपनें हमारे विवाह की सारी विधि की है ….इसलिये माँगिये …….क्या दूँ आपको ?

हे श्रीराधिके ! मुझे, आप युगल सरकार के चरणों में अविचल प्रीति हो !

मैने उन्हें भक्ति का वर दिया …..साष्टांग प्रणाम करके ब्रह्मा जी चले गए थे फिर सारा मण्डप अंतर्ध्यान हो गया ……….दिव्य छटा बनीं थी इस भाण्डीर वट की वो भी अब नही थी ।

वही वर्षा …….घनघोर वर्षा में भीगीं हुयी वृन्दावन की अवनी ।

फिर बादल गरजे…….और डरकर श्रीराधा श्याम सुन्दर के हिय से चिपक गयीं थीं ।

तात ! ये प्रसंग मुझे स्वयं श्रीराधारानी नें ही सुनाया था ।

उद्धव नें विदुर को बताया ।

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