श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! ओह ! अब बृजगमन की भूमिका !!
भाग 1
उद्धव आज गम्भीर हैं …..उनके मुखमण्डल से मुस्कुराहट आज दिखाई नही दे रही ………वो बोलते हैं , वो श्रीकृष्ण लीला सुनाते हैं …..पर सुनाते हुये शून्य में खो जाते हैं ।
तात ! मथुरा चलें – अब श्रीकृष्णचन्द्र जू मथुरा जायेंगे ।
उद्धव भावुक हो उठे थे ।
विदुर जी उद्धव को देखते हैं ……..फिर कहते हैं – रस तो बृज लीला में ही है…..रस सिंधु तो वृन्दावन में ही प्रवाहित हो रहा है ……..मथुरा में और द्वारिका में ये रस कहाँ होगा !
उद्धव इस विषय पर कुछ नही कहते ……..बस भाव में डूबे हुए हैं ।
देवर्षि के “नारायण नारायण” नामोच्चारण से कंस की सभा उठकर खड़ी हो गयी थी ………राजा कंस स्वयं उठा था …..और बढ़कर देवर्षि नारद जी का स्वागत किया ।
“कल्याणमस्तु”……..देवर्षि नें आशीर्वाद की मुद्रा दिखाई ।
क्या हुआ तुम्हारे शत्रु का ? उसे मार पाये या नही ?
बैठना प्रिय नही है देवर्षि को ………फिर कंस के यहाँ तो बिल्कुल नही ।
तात ! श्रीकृष्णचन्द्र जू को जब अपनी लीला आगे बढ़ानी होती है ना ! तब वो देवर्षि से उस लीला की भूमिका तैयार करवाते हैं …..क्यों की श्रीकृष्ण चन्द्र जू के ही मन के अवतार हैं देवर्षि नारद जी , उद्धव नें विदुर जी से कहा ।
“कुछ नही हुआ ! हे भगवन् ! मेरे पास जो बलशाली असुर समूह था वो भी सब समाप्त होनें को आगए हैं……बस कुछ असुर बचे हैं …….वो भी दसेक होंगें ” ………आत्मबल क्षीण हो गया है कंस का ………देवर्षि ये देख रहे हैं और हृदय से प्रसन्न हैं ।
देवर्षि ! शल, तोषल चाणूर मुष्टिक……बस यही कुछ बचे हैं …..बाकी सब समाप्त ! कंस सिर पकड़ कर बैठ जाता है ।
तुम उन्हें यहीं क्यों नही बुला लेते , हे राजा कंस ! मथुरा में ही बुलबा लो …….और वध कर देना उन बालकों का ।
पर वो यहाँ आएंगे क्यों ? कंस नें लापरवाही से पूछा …..क्यों की ये बात कंस को जँची नही थी ।
क्यों की तुम धनुष यज्ञ रख रहे हो ! देवर्षि नें ये नयी बात कही थी ।
क्या धनुष यज्ञ ? कंस चौंका ।
हाँ , महादेव का धनुष है ना तुम्हारे पास ………भगवान परशुराम जी नें तुम्हे प्रदान किया था ………….देवर्षि की बातें सुनते ही कंस की आँखों में चमक आगयी थी ……हाँ हाँ , है धनुष ।
बस फिर क्या है उसी धनुष को लेकर एक यज्ञ रखो ………..
पर उस यज्ञ में वो दोनों बालक आएंगे ? कंस नें ये प्रश्न किया ।
अब चलनें लगे थे देवर्षि ………..और चलते हुये बोले ………उन बालकों के काका तुम्हारे सेनापति हैं………. उसको आज्ञा दो …….और तुम्हारी आज्ञा का उल्लंघन भला कौन कर सकता है ….फिर वो तो तुम्हारी सेना के ही सेनापति हैं ।………..देवर्षि नें कंस के कन्धे में हाथ रखा और बोले……कुछ समझे मथुरानरेश ?
अक्रूर ? कंस विचार करनें लगा …….अक्रूर नन्द के भाई लगते हैं ?
हाँ , लगते हैं ……..हाँ दूर का सम्बन्ध है …….पर हैं ……….इतना कहकर देवर्षि चले गए ………नारायण नारायण नारायण ।
कुछ देर कंस शान्त रहा……सोचता रहा…..कि अक्रूर को आज्ञा दूँ कि……तू जा और धनुष यज्ञ देखनें के लिये उन बालकों को बुला ला !
किन्तु अक्रूर नही माना तो ? फिर तो ये खड्ग है ……….
सेनापति अक्रूर को बुलाओ ……………कंस नें आज्ञा दी ।
क्रमशः…
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