श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! कुब्जा की प्रतीक्षा !!
भाग 1
मेरे कृष्ण आरहे हैं , गुरुकुल से मेरे प्राण धन आरहे हैं , वो भुवन सुन्दर ! उफ़ ! कैसे मेरी चिबुक को उन्होंनें छूआ था ……उनका वो स्पर्श !
कुब्जा, जैसे ही उसनें सुना कि अवन्तिका से श्रीकृष्ण आज आगये हैं मथुरा, तब से ये पागल सी हो गयी है ।
सुबह से ही महल को सजा रही है ………..
तू मेरी बात सुनती क्यों नही …….कमल की माला मुझे “दो” चाहियें …..एक मेरे कृष्ण को और एक मैं पहनूँगी ……….बस हम दोनों कमल की माला ही पहनेगे …………ये है हमारी सेज ……..इनमें फूलों को बिखेर दे ……….गुलाब जल को छींट दे ………..सिरहानें में गुलाब का गुच्छा बनाकर रख दे………मेरे प्रियतम को सुखद लगना चाहिये !
अपनी सेविका को कुब्जा नें प्रातः से ही लगा दिया है काम में ………
“मैं तेरे घर आऊँगा”…….जब उन्होंने मुझ से राजपथ में ये बात कही थी………तब तो वे ही आएंगे ना ! मैं क्यों जाऊँ उनके महल में !
अगर मैं उसके महल में गयी तो फिर लोग हँसेंगे ……कहेंगे कंस की दासी अब कृष्ण को अपना बनानें चली है…….मैं क्यों बनानें लगीं उन्हें अपना …….उन्होंने ही कहा था “मैं आऊँगा तेरे घर”………..तो वही आएंगे ।
मुझे उवटन लगा दे ! मेरे केशों को संवार दे ……..मैं बहुत सुन्दर बनना चाहती हूँ ……….मुझे देखकर फिर उन्हें किसी और को देखना ही न पड़े …….वो मुझ में ही खो जाएँ ………जगत की नारी उन्हें मेरे सामनें फीकी लगे ……….ऐसा सजा दे !
तात ! उद्धव विदुर जी से कहते हैं ………..वासना से भर गयी है कुब्जा ………वो स्नान करती है …..वो इत्र फुलेल लगाती है ….केश सज्जा करती है……..उनके महल में उसकी कई सेविकाएँ हैं……आज उसनें सबको भिन्न भिन्न कार्यों में लगा दिया है …..।
मध्यान्ह होनें को आया …………
कुछ अच्छा भोजन बना ………अवन्तिका के गुरुकुल में तो कन्द मूल ही खाया होगा उन्होंने……..पकवान बना …..नाना प्रकार के मिष्ठान्न बना ……..शीघ्र कर वे आही रहे होंगे………..
कुब्जा झरोखे से बाहर देखती है……….एक रथ आरहा है कुब्जा के महल की ओर …….वो दौड़ पड़ती है भीतर ।
सुन ! मेरे प्रियतम आगये हैं ……..कुछ सुगन्धित धूम्र जला दे …..इत्र का छिड़काव कर दे…….वो सेविका जानें लगी तो कुब्जा बोली …..सुन सुन – बता मैं कैसी लग रही हूँ ? मैं सुन्दर लग रही हूँ ना !
फिर अपनें पास बुलाती है कुब्जा ……मेरी धड़कन तो देख ……..कहीं उनके साथ मिलन की ख़ुशी में मेरे प्राण न निकल जाएँ !
उफ़ ! वो मुझे आलिंगन करेंगे ! मुझे छूएंगे ! मुझे चूमेंगे !
तू जा ! बाहर जा ! उनको लेकर आ……सुन ! कक्ष का द्वार सटा दे ……..सेविका द्वार सटाकर जानें लगी तो ……अरे सुन ! द्वार खोल दे ……कहीं द्वार बन्द देखकर वे कक्ष में आना पसन्द न करें…..तू जा !
कुब्जा घुँघट करके बैठ गयी ……अब आएंगे ! अब आएंगे !
उसकी धड़कनें तेज हो रही हैं ।
द्वार खुला…….कुब्जा की साँसे थम सी गयीं थीं …….वो आनन्द के सागर में हिलोरें ले रही थीं……कि – नही आये आपके प्रियतम !
दासी नें कह दिया ।
कुब्जा उठकर खड़ी हो गयी………फिर झरोखे में जाकर बैठ गयी आनें जानें वालों को वहीं से देख रही है ।
क्रमशः …
शेष चरित्र कल –
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