श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! प्रेम की विचित्र गति – “उद्धव प्रसंग 5” !!
भाग 1
तात ! मुझे स्मरण आरहा है ……मेरे गुरुदेव बृहस्पति मुझ से कहते थे –
“उपदेशक श्रोता को तब तक उपदेश नही करता जब तक उसका अन्तःकरण उपदेश ग्रहण करनें योग्य नही बन जाता” ।
इसका रहस्य मैं तब समझा नही था पर आज इस बात का कितना गहरा और व्यापक रहस्य है मैं समझ सकता हूँ ……क्यों की इस प्रेम रहस्य को समझनें योग्य मेरे अन्तःकरण को मेरे नाथ नें बना दिया था उस प्रेम भूमि वृन्दावन में भेज कर । अगर मेरे नाथ वृन्दावन मुझे नही भेजते तो मैं इस महान तत्व प्रेम के साक्षात्कार से वंचित ही रह जाता ।
वो पूरी रात रोते रहे……बार बार मेरी मैया …..मेरा बाबा …..मेरे सखा ……….मेरी गोपियाँ ……….और मेरी प्रिया ……मेरी प्रिया श्रीराधा …..ये कहते हुये तो उनकी विलक्षण ही स्थिति हो जाती थी ।
मेरे प्रयत्न से वो कुछ देर के लिये सावधान हो जाते ….तब वो कुछ चर्चा करते…….और चर्चा करते हुये वो निरन्तर अश्रु बहाते रहते –
“उन्होंने मेरे लिये सब कुछ त्यागा, स्वजन त्यागा , बन्धु बांधव त्यागा …….पति पुत्रादियों को त्याग दिया ……..इतना ही नही ……उन मेरी गोपियों नें परलोक को भी त्याग दिया ……..वे केवल शरीर हैं उनमें स्वांस मैं ही हूँ …….उनमें चेतना मेरी है ।
मैं नही समझ रहा था उनकी इन बातों का रहस्य ………….
” देखो सुबह होनें वाली है ………वृन्दावन जाओ उद्धव ! किसी को मथुरा में पता न चले कि तुम वृन्दावन गए हो ………..मैं यहाँ सब सम्भाल लूँगा …..कह दूँगा कुछ भी ………..कोई देखे नही तुम्हे !
वो मुझे भेजनें के लिए बेचैन हो उठे थे………..
पर मेरा रथ ! मैने कहना चाहा ।
उद्धव ! मेरे रथ में जाओ ना ! सुवर्ण के रथ में…….यही रथ मुझे लेकर आया था वृन्दावन से……अब इसी रथ में तुम जाओ ……..
मैने सिर झुकाया ……चरण वन्दन किये ……..वो नीलमणी मुझे अपलक देख रहे थे…….उस समय उनके नेत्र सजल थे ………पर वो रुके थे ……मानों रोक लिया हो उन्हें ।
क्रमशः …
शेष चरित्र कल –


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