श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! मुचुकुन्द – “उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 6 !!
भाग 2
किन्तु क्यों ? मैने पूछा, तो उसका उत्तर था ………क्यों की स्वर्ग को लेकर हम देवों और असुरों में युद्ध छिड़ चुका है ………….हम लगातार पराजित होते जा रहे हैं ……………..इसलिये आपसे हम सहायता माँगते हैं …….आप हमारी सहायता कीजिये और हम देवों को इस संकट से बचाइये …………..मुझे अच्छा लगा …….मैने तुरन्त अपना कवच धारण किया …..नाना शस्त्रों को अपनें पास रखकर स्वर्ग के लिये चल पड़ा था ……..पर वहाँ देवों की स्थिति बहुत दयनीय हो गयी थी ……असुरों नें त्राहि त्राहि मचा रखा था ।
तात !
मुचुकुन्द युद्ध के लिये ही गए थे……उन्होंने अश्व माँगा देवराज से …..और उसी अश्व में सवार होकर…..वो टूट पड़े थे असुरों के ऊपर
पर असुर भी कहाँ कम थे ……… अतिशक्तिशाली बनकर आये थे ये …….पीछे से गुरु शुक्राचार्य इन सबको मरनें मारनें के लिए प्रेरित भी कर रहे थे ।………..एक दिन नही ……..युद्ध करते करते नाथ ! मुझे एक वर्ष पूरा लगा ………..मुचुकुन्द श्रीकृष्णचन्द्र जु को बता रहे हैं ।
पर मैने संकल्प कर लिया था …………और मैं उस सूर्य वंश का था जिसनें जो संकल्प लिया……उसे तोड़ा नही ………..देह की चिन्ता हमारे सूर्य वंश में किसे थी …………पूरे मनोयोग से मैने युद्ध किया …..लड़ता रहा लड़ता रहा ………पूरे एक वर्ष तक लड़ता रहा ……कोई विश्राम नही मिला था मुझे …….मेरा एक ही लक्ष्य था कि …..देवों को विजय दिलवाना …….और वो उन्हें मिला ………मुचुकुन्द बोले ……….स्वर्ग में आनन्द छा गया ……मैं भी प्रसन्न था …………विजयोत्सव देवों नें उत्साह से मनाया था ……….उस समय मेरा सम्मान किया गया ….देवों नें मेरे ऊपर पुष्प वृष्टि की …………..किन्तु मैं उस समय ऊँघ रहा था …..मुझे नींद आरही थी …………
सभा में देवराज नें मुझे उठाकर पूछा ……..क्या कामना है मुचुकुन्द !
कुछ चाहते हो ? अप्सरा ? या भोग, या देवों के समान सम्पत्ती …जो चाहो मांगों !
हे भगवन् ! मुझे कभी भोगों नें आकर्षित नही किया …………इसलिये देवराज की बातों को मैने हाथ जोड़कर मना कर दिया था ……….
फिर भी कुछ तो माँगिये ! आपनें हमारी सहायता की है !
देवराज फिर आग्रह करनें लगे थे ।
मैं शयन करना चाहता हूँ ………मैने जम्हाई ली ………..
हाँ, क्यों की एक वर्ष तक मैं सोया नही हूँ ………..थक गया हूँ ।
देवराज हंसे थे …….किन्तु मैं गम्भीर बना रहा …….इस बात को शायद आप लोग नही समझते ……क्यों की आप देवता हैं और मैं मनुष्य ।
आपको नींद इतनी आवश्यक नही है ……क्यों की आपके देह में और हमारे देह में अंतर है …………मुझे इससे ज्यादा देवराज नें बोलनें भी नही दिया……..आपकी व्यवस्था हम निर्जन एकान्त गुफा में कर देते हैं …………..देवराज बोले ।
नाथ ! हंसे मुचुकुन्द……..मैने देवराज से ये भी पूछा ………अगर मुझे किसी नें जगा दिया तो ? देवराज बोले थे – वो भस्म हो जायेगा ।
ओह ! तो ये बात थी……….श्रीकृष्णचन्द्र जु सब जाननें के बाद सहज होकर मुचुकुन्द से बोले थे ।
पर नाथ ! अब मुझे कुछ नही चाहिये ………कुछ नही ।
बस आपके चरणों का आश्रय मिले ……मुचुकुन्द गदगद् हो गया ।
मस्तक में हाथ रखा श्रीकृष्ण नें मुचुकुन्द के……..उसके अंदर आनन्द की हिलोरें चल पड़ी थीं …..किन्तु धीरे धीरे वो शान्त हो गया ….उसके सामनें जो छबि थी श्रीकृष्ण की ….उस छबि को ह्रदय में धारण किया ………और उसी का ध्यान करते करते देह छूट गया उसका ….और उसकी चेतना श्रीकृष्ण के चरणों में विलीन हो गयी थी ।
शेष चरित्र कल –
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