श्रीकृष्णचरितामृतम्
!! रुक्मणी का प्रेम पत्र – “उत्तरश्रीकृष्णचरितामृतम् 12” !!
भाग 2
अद्भुत था वो पत्र …….विशुद्ध प्रेम पत्र था ………..
हे भुवन सुन्दर ! मैं आपको कैसे जानती हूँ ये प्रश्न आपके मन में आता होगा ……..तो मैं कह देती हूँ कि मैने नयनों के द्वारा आपको नही जाना है क्यों की मैने आपको देखा ही नही है…..हाँ आपको मैं जानती हूँ कानों के माध्यम से……क्यों की मुझे सुन सुनकर आपसे प्रेम हो गया है ।
सुन सुन कर ? आपके मन में अगर ये बात आती है तो सुनिये …….देवर्षि नारद जी नें मेरे मन को आप से जोड़ दिया है ……मुझे आपकी चर्चा नें , मेरे मन में आपकी छबि अद्भुत रूप से बसा दी है ……..अहो !
सच कहूँ तो इन नयनों की शोभा ही आप हो …..जिन नयनों नें आपको नही देखा वो नेत्र ही नहीं हैं ।
मेरा तो यही कहना है कि मैं आपको निहारती रहूँ ……अपलक ……सदियों तक युगों युगों तक …..नाथ !
अच्छा सुनिये सुनिये ! आपको पता है मेरा मन अब आप पर ही जाकर अटक गया है ……….इस बाबरे मन को और कुछ अच्छा ही नही लगता ………और अब मैं पूर्ण रूप से मन को वश करनें के लिये भी असमर्थ सी हो गयी हूँ ………मेरे प्रियतम !
क्या कहा ……..मैं आपको क्या मानती हूँ ?
हे मेरे प्रेम स्वरूप श्याम सुन्दर ! कौन ऐसी स्त्री होगी जो विवाह समय आनें पर आपको पति के रूप में न चाहे ………..स्त्री केवल सुन्दर पुरुष, प्रेमी पुरुष, स्त्री के सम्मान की रक्षा करनें वाला – यही सब तो चाहती है …ये गुण आपमे भरे हुए हैं …….इसलिये मैं आपको…….अब इससे स्पष्ट और क्या कहूँ !
नाथ ! मैं आपको आत्मसमर्पण कर चुकी हूँ …….. आपसे कुछ भी छुपा नही है …….इसलिये आप आएं और मुझे अपना बनाकर ले जाएँ ।
अरे ! मैं भी पगली ही हूँ ……..आप मुझे तो जानते ही नही हैं ……..तो सुनिये – मैं विदर्भ के राजा भीष्मक की लाड़ली कन्या रुक्मणी हूँ …..
कारण ? तो कारण ये है पत्र लिखनें का नाथ ! कि आपको जब पत्र मिलेगा मेरा उसी दिन मुझे लेनें शिशुपाल आरहा है ……….कृपा कीजिये नाथ ! मैं आपकी हूँ ……फिर मुझे कोई और छूए ये आपको भी तो प्रिय नही होना चाहिये ना ! आप आइये ! मुझे ले जाइये यहाँ से ।
ओह ! आप कहाँ आयेगें मुझे लेनें के लिये !
तो सुनिये …………हमारे यहाँ कन्या का जब विवाह होता है उससे पूर्व वो भगवती का पूजन करनें के लिये मन्दिर जाती है …..मैं भी जाऊँगी …….आप उसी समय मन्दिर से ही मुझे लेकर चले जाइयेगा ……….
आप वीर हैं, आप महावीर हैं ………..आप मेरे विदर्भ में आकर विवाह में आये बड़े बड़े जरासन्ध आदि महारथियों को मथकर ………उन सबको पराजित कर मेरा पाणिग्रहण कीजिये…….मैं यही चाहती हूँ ।
हे कमल नयन ! अगर आप नही आये तो मै सच कह रही हूँ आपके चरणों का चिन्तन करते हुये मैं देह त्याग दूँगी ………..कहते हैं जिनका चिन्तन करते हुये जीव देह त्यागता है तो दूसरे जन्म में उसी को पाता है ……. तो मैं भी यही करूंगी ……पर मुझे लगता नही है कि आप नही आयेगे ….आप आएंगे ……अवश्य आएंगे , है ना ?
मैं आपकी प्रतीक्षा में ही जी रही हूँ आप आइये ! आप आएंगे ना ?
पत्र पढ़कर श्रीकृष्ण मुस्कुराये ………..पत्र को रख दिया और बोले …..मुझे भी याद आती है रुक्मणी की ………मैं भी सो नही पाता हूँ रात रात भर ………………श्रीकृष्ण नें ब्राह्मण देवता से कहा ।
उद्धव ! ये क्या कह रहे हैं द्वारिकाधीश ? विदुर जी नें पूछा ।
सही तो कह रहे हैं ……..श्रीकृष्ण का ये कहना है …..जो मुझे जिस तरह से भजता है मैं भी उसे उसी तरह भजता हूँ ।
उद्धव नें कहा ।
शेष चरित्र कल –


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