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November 22, 2024 2:31 am

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परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!-सप्तदशोध्याय: Niru Ashra

परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!-सप्तदशोध्याय: Niru Ashra

!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!

( सप्तदशोध्याय:)

गतांक से आगे –

पिता जी ! ये है मेरी प्यारी सखी कान्चना ।

आज अपनी पुत्री और जामाता को लेने सनातन मिश्र जी आये हैं । अपने पिता को देखते ही दौड़ पड़ी थी विष्णुप्रिया । दोनों पिता पुत्री का हृदय भर आया था । तभी सखी कान्चना आयी अपने अश्रुओं को पोंछकर प्रिया ने परिचय कराया था ।

तुम जा रही हो ? प्रिया ने सिर हाँ में हिलाया । दुखी सी हो गयी कान्चना ….पर प्रिया ने उसे समझाया …मैं तो आही जाऊँगी ना । भीतर शचि देवि के रोने की आवाज सुनी …तो प्रिया भीतर गयी ….माँ ! मत रो ….बेटी ! तू इस घर को अंधकारमय बनाकर जा रही है …तू जब तक थी तब तक ऐसा लगा दुनिया के सारे सुख अब इस शचि के पास हैं ….पर आज !

मैं आजाऊँगी माँ ! प्रिया के मुख से ये सुनते ही शचि देवि ने उसे हृदय से लगा लिया …और मुख चूमते हुए कहा ….शीघ्र आजाना …ये बुढ़िया तेरी प्रतीक्षा में है ….इस बात को मत भूलना ।

तभी पाठशाला से निमाई आगये …..उन्होंने अपने ससुर जी का अभिवादन किया ….सनातन मिश्र जी निमाई को देखते ही आनन्द सिन्धु में डूब जाते हैं ….कुछ बोल ही नहीं पाते ।

बेटा ! जा कुछ दिन अपने ससुराल में रह ले । शचि माँ ने अपने निमाई से कहा ।

निमाई विष्णुप्रिया के साथ सनातन मिश्र जी के घर की ओर चल पड़े थे ।

प्रिया ! जल्दी आना , अब तुम्हारे बिना मेरा मन नहीं लगेगा । कान्चना अपने अश्रु पोंछते हुए चिल्ला रही थी । मैं जल्दी आऊँगी …तुम मेरी माँ का ध्यान रखना । विष्णुप्रिया ने अपनी सखी को कहा …..निमाई जा रहे हैं …विष्णुप्रिया जा रही है ….ये सब देखती रही शचि देवि …दुःख तो हो रहा था पर कोई बात नही ….कुछ दिन में तो प्रिया आ ही जाएगी …और अगर ज़्यादा याद आयी तो मिश्र जी का घर कौन सा दूर है …मिल आऊँगी ….ऐसा विचार कर अपने मन को समझा लिया था शचि देवि ने ।


सनातन मिश्र जी के घर में आज उत्सव है ….हो भी क्यों नही ….उनका प्यारा जमाई और प्यारी पुत्री जो आये हैं । महामाया देवि ने स्वयं ही लग कर भोजन बनाया है …सुस्वादु पकवान बनाये हैं …भाजी ,भाजा , मिष्ठान्न आदि …..भूख लगी होगी …ऐसा विचार कर निमाई और प्रिया को भोजन में बिठाया है । निमाई भोजन करते समय कभी संकोच नही करते …पर अपने ही घर में प्रिया शरमा रही है ….अपने माता पिता के सामने विवाह करने के बाद आज प्रिया को कुछ अजीब सा लग रहा है । जमाई बाबू ! संकोच मत करो …ये दो रसोगुल्ला और खाना पड़ेगा ….निमाई हंसते हुए कहते हैं ….ना , दो नही हम तो चार लेंगे….निमाई के मुख से ये सुनकर सब हंसते हैं …विष्णुप्रिया भी मुस्कुराने लगतीं हैं ….तब निमाई कहते हैं ….मुझे छोड़ो …आप अपनी बेटी से कहो कि वो तो कुछ खाये । हाँ जमाई बाबू ! ये तो कुछ खा ही नही रही ….प्रिया ! बेटी ! खाओ ! तुम्हें तो ये बैगन का भर्ता बहुत प्रिय था ….ये तो खाओ । पर विष्णुप्रिया बहुत संकोच करती है …यही घर , यही माँ , यही आँगन ….कितनी जिद्दी थी ….जो खाना हो उसे ये बनवाती ही थी …नही तो खाना ही नही । आज प्रिया कुछ नही खा रही …कितनी जल्दी पराई हो गयी मैं ! माँग में सिन्दूर ….माथे में बड़ा सा लाल बिंदा ..लाल साड़ी ..हाथों में चूड़ी ….और बगल में ?
जीवनधन ….जीवन सर्वस्व ।

निमाई का भोजन हो गया ….विष्णुप्रिया ने तो थोड़ा ही भात खाया था …उठ गयी ।

बेटी ! तू प्रसन्न तो है ना ? तेरी सासु माँ कैसी हैं ? तुझे प्यार करती हैं ना ?

विष्णुप्रिया अपनी माँ के हृदय से लग गयी …..बहुत अच्छी हैं माँ ! ये कहते हुये प्रिया के मुख में प्रसन्नता दिखाई दी महामाया देवि को …फिर माता ने पूछा …और ये ?

सामने कुछ दूरी पर निमाई विराजे हैं ….उनके साथ उनके ससुर सनातन मिश्र जी गदगद भाव से बैठे हैं ….कुछ विद्वान भी आये हैं …जो निमाई से शास्त्र चर्चा करना चाहते हैं …और निमाई सहज हैं ….वो मुस्कुराकर सबका अभिवादन करते हैं ।

माँ ! ये तो प्रेम की साक्षात् मूर्ति हैं …. कहते हुए प्रिया अपनी माँ से कुछ शरमा गयी थी ।

तो पण्डित निमाई जी ! आप क्या कहते हैं …मनुष्य जीवन में क्या आवश्यक है ?

एक विद्वान ने प्रश्न किया ।

प्रेम-भक्ति ही सर्वोपरि है …..निमाई ने कहा ….विष्णुप्रिया और उसकी माँ ये सब सुन रही हैं ।

क्या ये शास्त्रीय वचन हैं ? निमाई ने कहा ..हाँ ….फिर निमाई बोले …वेद वाक्य भी यही हैं …वेद तो सर्वोपरि है ना ….हम सनातन धर्म वालों ने वेद को ही सब कुछ माना है …तो वही वेद भगवान भी यही कहते हैं …..भक्ति ही मनुष्य का एक मात्र कर्तव्य है । पण्डित निमाई ! भक्ति किसे कहते हैं ? एक वृद्ध विद्वान ने प्रश्न किया । निमाई इस प्रश्न पर कुछ देर मौन हो गये ।

निमाई पण्डित ! हमने सुना है कि – भक्ति उसे कहते हैं …जैसे – शिवलिंग के ऊपर जल की धारा अविरल बहती रहती है ..ऐसे ही हमारे चित्त की गति अविरल ईश्वर की ओर लगी रहे वो भक्ति है । निमाई इस बात पर थोड़ा रुके ….मुस्कुराये फिर बोले – नही , भक्ति तो सरल है …भक्ति तो माँ है ….अगर निरन्तर चित्त ईश्वर में लगी रहे यही भक्ति होगी तो बड़ा कठिन होगा ये तो …क्यों कि निरन्तर-अखण्ड चित्त का लगा रहना सामान्य जनों के लिए कहाँ सम्भव है ? फिर ? सनातन मिश्र जी गदगद हैं …अपने निमाई की प्रेम भरी मधुर वाणी सुनकर ।

निमाई बोले – भक्ति उसे कहते हैं …शिव लिंग के ऊपर राई का एक दाना रखो …वो जितनी देर तक टिका रहे …उतनी देर भी ईश्वर में हमारा चित्त लग जाये तो वो भी भक्ति है ।

ये सुनते ही सारे विद्वान वाह वाह करने लगे थे ।

महामाया देवि विष्णुप्रिया से बोलीं …बेटी !
हमारे जमाई जितने सुन्दर हैं …बोलते भी उतना ही मधुर हैं ।

विष्णुप्रिया अपलक अपने प्राण निमाई को देखती रही थी ।


दो दिन हो गये …..अब निमाई ने जाने की आज्ञा माँगी । सनातन मिश्र जी ने उन्हें रोकना चाहा …महामाया देवि ने भी कुछ दिन और रूकने का आग्रह किया । पर निमाई ने सहजता से कहा ….मेरे विद्यार्थीयों की विद्या मेरे कारण बाधित हो रही है …आप तो जानते ही हैं …मेरी पाठशाला है …और मेरे प्रति मेरे शिष्य बहुत श्रद्धा रखते हैं …इसलिये मुझे अब जाना चाहिये ।

विष्णुप्रिया उदास है ..उसके प्राण निमाई जा रहे हैं …पर ये भी तो प्रेमी हैं , विष्णुप्रिया को छोड़कर जाते हुये इनका हृदय भी भारी हो गया था ।

निमाई ! तू आगया ? मेरी बहु कैसी है ? शचि देवि निमाई से पूछती हैं ।

ठीक है ….इतना कहकर निमाई अपनी पाठशाला में चले गये ।

कुछ बताता भी नही है …ये घर भी मुझे काटने को दौड़ता है …खुद तो दुनिया घूमता है ..मित्र यार सब हैं …पर अपनी माँ के विषय में कुछ नही सोचता । कुछ नही । अकेले में ही बोलती जा रही हैं शचि देवि ।

निमाई घर आते हैं …दाल भात पा कर सो जाते हैं ….फिर सुबह उठकर पाठशाला । निमाई की पाठशाला अब धीरे धीरे चरम प्रसिद्धि की ओर बढ़ रही थी । पूरा बंग प्रदेश इस पाठशाला से परिचित हो रहा था …बड़े बड़े विद्वान “पण्डित निमाई” इस नाम को पहचानने लगे थे ।

शचि देवि आज प्रातः उठीं …..इन्हें विष्णुप्रिया की बहुत याद आरही है …..रह रह कर वो शशिमुख शचि देवि को परेशान कर रहा है । निमाई स्नान आदि से निवृत्त होकर आगये ….उन्हें भोजन परोस दिया माँ ने ….निमाई भोजन कर रहे हैं …..निमाई बेटा , प्रिया की बहुत याद आरही है …अब तो ले आ । निमाई ने सहज कहा …माँ ! अभी तो गयी है रहने दो ना उसे अपने मायके ।

हाँ , तुझे क्या है ? तेरे तो इष्ट मित्र बहुत हैं …पाठशाला में मन भी लग जाता है तेरा …पर मेरा ?

अरे माँ ! इतनी ही याद आरही है तो हो आओ न , ….
पास में ही तो है घर …गंगा जाते समय हो आना । ये कहकर निमाई चले गये ।

शचि देवि इस बात से खुश हुईं ….चलो , आज तो अपनी बहु को देखकर ही आऊँगी ।

सन्ध्या से पूर्व ही घर से चलीं ….सनातन मिश्र जी का घर पास में ही तो है ।

द्वार पर पहुँच शचिदेवि ने आवाज लगाई तो महामाया देवि भीतर से दौड़ी दौड़ी आईं ।

भीतर आइये …..बड़े आदर से प्रिया की माँ ने कहा ।

नही , मैं तो गंगा घाट में आई थी …फिर बहु से मिलने की इच्छा हुई ….शचि देवि ने अपने दिल की बात कह दी थी ।

तभी – माँ !….

दौड़ती हुई आई विष्णुप्रिया अपनी सासु माँ को देखकर वो आनंदित हो गयी ….

शचि देवि ने उसे अपने हृदय से लगा लिया …चूम लिया ।

माँ ! घर के भीतर आओ ना , वो प्रिया जिद्द करने लगी । नही , मुझे बहुत काम है बहु ! मुझे जाने दे …शचि वहीं से लौटना चाहती थीं ….पर प्रिया ऐसे कैसे जाने देती …शचि देवि के साड़ी का पल्लू पकड़ कर वो भीतर ले गयी ….और मिठाई आदि खिलाकर ही भेजा ।

निमाई ! अब तो ले आ विष्णुप्रिया को …..
भोजन करते समय फिर निमाई को शचि माँ ने टोक दिया ।

निमाई भी आज बोल दिये ….ठीक है माँ ! …..क्या तू मान गया मेरी बात ? शचि देवि ने सोचा नही था कि निमाई इतनी जल्दी मान जायेगा ।

कब लायेगा ? शचि देवि ने फिर पूछा ।

कल …निमाई बोल दिये । अब तो शचि देवि के आनन्द का कोई ठिकाना नही था …गदगद थीं वो …..पड़ोस में जाकर कान्चना को भी बोल आईं थीं ….मेरी “प्रिया”कल आरही है ।

शेष कल –

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