!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!
( विंशती अध्याय: )
गतांक से आगे –
माँ !
इस पुकार ने शचिदेवि के कानों में अमृत भर दिया था ….वो बाहर दौड़ीं …उनके प्रिय पुत्र निमाई ने उन्हें आवाज दी थी ….इसका मतलब था कि गया तीर्थ यात्रा पूरी करके उनका निमाई आगया था । द्वार पर जाकर खड़ी हो गयीं …निमाई सामने हैं …पर उनके सामने बड़े बड़े वैष्णव भक्त हैं ….जो निमाई से वार्ता कर रहे हैं । शचि देवि कहना चाहती है ….इन सब से बाद में बात कर लेना पुत्र ! पहले अपनी माँ से तो मिल ले । पर निमाई बाहर ही खड़े हैं और नवद्वीप के ही वैष्णवों से चर्चा कर रहे हैं …..निमाई ने देखा अपनी माँ की ओर ….वो अपने पुत्र को ही देख रहीं थीं ..जब निमाई ओर माँ की दृष्टि मिली तो संकेत से माँ ने कहा ….घर आ , इन सबसे बाद में मिल लेना ।
निमाई ने उन लोगों को कहा ……आप लोग बाद में आना । कब ? वो वैष्णव लोग भावुक थे …..निमाई से समय भी पूछने लगे । निमाई ने सन्ध्या का समय दिया ….और अपने घर में आगये । झुके ….माँ शचि के चरण वन्दन किये । शचि माँ ने अपने पुत्र का मुख चूम लिया …अपना वात्सल्य उढेल दिया …इनके आनन्द का कोई ठिकाना नही है । रुक , निमाई ! रुक …देख प्रिया को बुलाती हूँ …वो तुझे देखेगी तो उसकी जो स्थिति होगी – देखते हैं !
शचि देवि ने आवाज दी …..प्रिया ! हाँ माँ ! जैसे ही विष्णुप्रिया बाहर आई ….
स्तब्ध , सामने उसके प्राणेश्वर हैं …विष्णुप्रिया का हृदय कितनी तेज़ी से धड़क रहा है ….उसे कुछ सूझ नही रहा ….क्या सच में मेरे “प्राण” मेरे सामने हैं । प्रिया ! देख कौन आया ? प्रिया के नेत्रों से शीतल अश्रु बरस पड़े थे …वो दौड़ी ..और अपने प्राणेश्वर के चरणों में गिर गयी ।
निमाई ने उठाया …..प्रिया को रोमांच हुआ …..उसका हृदय और तेज धड़क रहा है । “अपने आपको सम्भालो प्रिया !” इतना कहकर वो अपने कक्ष में चले गये ।
ये क्या ! मुझे देखकर मुस्कुराये नही ? क्यों ? प्रिया शून्य में तांक रही है ।
बेटी ! निमाई थका है ..बहुत दूर की यात्रा करके आया है ना , इसलिए थकान हो गयी होगी ।
माँ शचि ने प्रिया को तो समझा दिया …पर अपने को कैसे समझाये । निमाई मुस्कुराया नही ! ये तो हर समय मुस्कुराने वाला था …हर समय हंसने हंसाने वाला था ….फिर क्या हुआ इसे ।
पर शचि देवि ने भी उसी तर्क से अपने को समझा लिया …..कि थका होगा …थकान हो गयी होगी …इसलिये हंसा नही …..
स्नान किया निमाई ने …..फिर भोजन ……विष्णुप्रिया भोजन दे रही है …..पर निमाई एक बार भी इसकी ओर नही देखते …..शचि देवि ने ही प्रिया को कहा था …मैं नही तू ही देकर आ निमाई को भोजन । तो विष्णुप्रिया ही दे रही थी । जो दिया वही खा रहे हैं ….कैसा है …क्या है ….कुछ चाहिये …..ये सब कुछ नही …बस मूर्ति की तरह भोजन करते रहे निमाई । शचि देवि भीतर से देख रही हैं …..उनको घबराहट होने लगी ….क्यों की निमाई सच में बदल गये थे ….वो चंचलता अब कहा ?
भैया ! आप आगये ?
सखी कान्चना ने जब सुना की पण्डित निमाई अपने घर आगये हैं ….तो वो भी भागी ….और निमाई उस समय भोजन से उठे ही थे …..हाथ धो रहे थे …तभी कान्चना ने हंसते हुए पूछा था ।
ये वही निमाई हैं …कभी कान्चना की हंसी उड़ाते तो वो लड़ने लगती …तब इससे कहते ..मैं तो विनोद कर रहा था …..विष्णुप्रिया और कान्चना जब खेल रहे होते तो निमाई पीछे से आकर इन दोनों की चोटी बाँध देते ….और हंसते हुये चले जाते । ये वही हैं …जो चंचल पण्डित के नाम से प्रख्यात थे ….इन्होंने चंचलता में सब को पीछे छोड़ दिया था ….कोई अपने घर ठाकुर जी को भोग लगाता तो ये उसे खा कर चल देते …और हंसते हुये कहते ….मेरे अन्दर भी तो भगवान हैं …उस भगवान को मैंने भोग लगाया …क्या गलत किया !
ये वो निमाई थे …..पर आज ?
कान्चना को देखा बस ….उसकी बात का कोई उत्तर नही दिया …..कान्चना स्तब्ध थी …ये क्या होगया ? वो प्रिया के पास गयी । शचि देवि भोजन कर रही हैं …प्रिया अब उन्हें खिला रही है …निमाई के विषय में न शचि देवि कुछ कहती हैं …न प्रिया । कान्चना भीतर आई ….उसको भी प्रिया ने देखा ….पर कुछ नही बोली ….कान्चना पूछना चाहती है …सब ठीक तो है ? प्रिया बताना चाहती है कि सखी ! कुछ ठीक नही है …मेरे प्राणेश्वर पहले जैसे नही हैं ….पर डरती है …सरस्वती जिह्वा में बैठती है एक समय और उस समय जो बोलो …वो सत्य होता है ।
नहीं …ये सत्य नही है …नही , मेरे “प्राण” बदल नही सकते । उन्होंने जाते हुये मुझे अपने हृदय से लगाया था ….वो छुवन आज भी स्मरण में है ….माँ ! वो थके हैं ….यात्रा लम्बी करके आए हैं ना ! इसलिये । ये बात एकाएक विष्णुप्रिया बोली थी ….शचि देवि ने चौंक कर प्रिया के मुख को देखा …….कान्चना ने भी प्रिया की बात सुनी । फिर कृत्रिम हंसी हंसते हुये विष्णुप्रिया बोली …हाँ , कान्चना! देख गयातीर्थ यहाँ थोड़े ही है …बहुत दूर है …वहाँ से आये हैं थके हैं ….क्यों हंसेंगे ? हंसना आवश्यक है क्या ? उनकी मर्जी …नही हंस रहे ।
तभी बाहर कोई आया है …प्रिया गयी ….शचि देवि हाथ धो रही हैं ….
निमाई प्रभु से हम मिल सकते हैं ? प्रिया ने उन आगन्तुक वैष्णव अतिथि को संकेत करके कहा …अभी अभी भोजन किये हैं ….इतना ही बोली थीं प्रिया कि निमाई बाहर आगये ….ओह ! आप आइये , विराजिये ….निमाई बड़े आदर के साथ उन वैष्णवों को अपने कक्ष में ले गये …इस समय भी विष्णुप्रिया की ओर एक बार दृष्टि डाली थी …पर मुस्कुराये नहीं ।
कृष्ण ! हा कृष्ण ! हे कृष्ण ! एकाएक चीखे निमाई ।
प्रिया ने सुनी …वो भागी …..शचि देवि ने सुनी …..वो निमाई के कक्ष की ओर दौड़ीं …पर कक्ष भीतर से ही बन्द है …..बाहर ही खड़े होकर प्रिया और माँ सुन रहीं हैं उन वैष्णवों से चल रही निमाई की वार्ता ।
कृष्ण , आहा ! ये नाम सबसे मधुर है …कृष्ण, ये रूप सब रूपों में सुन्दरतम है …मेरे हृदय को ये कृष्ण व्यथित कर रहे हैं ….आप लोग वैष्णव हैं …कृष्ण के परम भक्त हैं ….आशीर्वाद दीजिये इस निमाई को ….कि कृष्ण कृपा इसे मिले ….नही तो ये निमाई मर जायेगा ।
ये सुनते ही …..विष्णुप्रिया रोने लगीं ….शचि देवि के हाथ पाँव काँपने लगे …ये क्या ? क्या गया तीर्थ में किसी ने मेरे निमाई के ऊपर जादू टोना किया ?
मैं क्या करूँ ? सब मिथ्या है ….एक मात्र कृष्ण ही सत्य है …क्या वो मुझे मिलेंगे ? बताइये भक्तों ! क्या मेरे कृपालु कृष्ण मेरे ऊपर कृपा नही करेंगे ? राक्षसी पूतना को अपनी माता की गति देने वाले कृष्ण क्या निमाई को अपना नही बनायेंगे । ये सब कहते हुए निमाई फिर चिल्लाने लगते हैं …हे कृष्ण ! हे कृष्ण ! हे केशव ! हे माधव ! उनके नेत्रों से अश्रु की धार बह चली है । ओह !
विष्णुप्रिया कातर नयन से अपनी सासु माँ को देख रही है ….वो पूछना चाहती है माँ ! बताओ ना , मेरे प्राणेश्वर को ये क्या हुआ ? पर क्या उत्तर दे शचि देवि अपनी इस बच्ची विष्णुप्रिया को ।
शेष कल –
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