उद्धव गोपी संवाद:-
( भ्रमर गीत)
२१ एवं २२
माया के गुनं और,और गुन हरि के जानों।
उन्ह गुंन कों इन्हं माहिं,आनि काहे को सानों।।
जाके गुन औ रूप कौ,जानिं न पायौ भेद।
तासों निरगुन बृह्म कों,वदत उपनिषद वेद।।
सुनों ब्रजनागरी।
उद्धव जी गोपियों से कह रहे हैं कि जितने भी गुण है जैसे सत्व गुण, रजोगुण, तमोगुण आदि सब माया के है, परमात्मा तो निर्गुण है। जिनके गुण भेद कोई नहीं जान पाया वे निर्गुण ब्रम्ह है, ऐसा वेद उपनिषदों ने कहा है।
वेदहु हरि के रूप,स्वांस मुख सों जो निसरे।
करम क्रिया आसक्ति सबै,पिछली सुधि बिसरे।।
करम मध्य ढूंढति सबै,किन्ह हूं न पायो देखि।
करम रहित ही पाइऐ,तासों प्रेम विसेखि ।।
सखा सुन स्याम के।।
गोपियाँ उद्धव से कहती हैं कि वेद ही तो हरि का रूप है जो श्वास श्वास में है। सभी कर्म कर उसमें आसक्त होते हैं और पिछली बातें भूल जाते हैं। कर्म में आसक्त होकर कोई हरि को नहीं पाते, यदि कर्म रहित होकर प्रेम करे तो हरि अवश्य मिलेंगे।
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