!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!
( एकविंशति अध्याय: )
गतांक से आगे –
रोने की सिसकी ने शचि देवि की नींद खोल दी ….नींद इन्हें कहाँ ! जिनका इतना योग्य बुद्धिमान पुत्र और उसकी ऐसी स्थिति हो गयी थी उस माँ को नींद कहाँ ? जैसे तैसे तो झपकी आई थी पर वो भी …किसी की सिसकी ने तोड़ दी । किसी की क्यों ….अपने निमाई की ही सिसकी थी ….हे भगवान ! गया में ऐसा क्या हो गया ….मेरे बेटे को किसकी नज़र लग गयी …शचि देवि उठीं और गयीं निमाई के कक्ष में । निमाई रो रहे हैं …वो अपना सिर पटक रहे हैं ….हे हरि , ये क्या हो गया मेरे निमाई को …उन्होंने दौड़कर निमाई को पकड़ा …और अपनी गोद में लेकर उसे सुला दिया । माँ ! माँ ! , निमाई शचिदेवि को देखकर अब बोलने लगे थे ।
पुत्र ! क्या हुआ ? तू तो ऐसा नही था ….बता निमाई क्या हुआ ? कपूर और तैल मिलाकर निमाई के सिर में डाल दिया था माता ने और मल रहीं थीं ….तब पूछ लिया ।
माँ ! मुझे प्रेम हो गया है ।
क्या ? शचि देवि ने जैसे ही ये सुना उनके पैरों तले ज़मीन खिसक गयी ….तू क्या कह रहा है निमाई तुझे पता भी है ! बाहर विष्णुप्रिया खड़ी सुन रही थीं ….वो धड़ाम से गिरीं ।
तेरे ऊपर किसी ने जादू टोना कर दिया है पुत्र , नही तो देख तेरी क्या दशा हो गयी है ….पीताभ मुखमण्डल हो गया है …..बता क्या हुआ ? गया मैं किसी ने कोई टोना तो नही किया ना ?
निमाई हंसे …..बोले ….मेरे प्रीतम ने टोना किया है । हंसी और रुदन एक साथ ….कैसी स्थिति होगी विचार करो । तू कैसी बहकी बातें कर रहा है ….ऐसे मत बोल ….क्या प्रीतम ? तेरी पत्नी है …तेरी माँ है ….तेरा अपना अध्यापन का कार्य है …इन्हीं में ध्यान दे ।
माँ ! प्रेम कोई तैयारी नही है …प्रेम घटना है …जो घट जाती है ….मेरे साथ यही घट गयी । कैसे ? कहाँ ? वो कौन है ? शचि देवि के इन प्रश्नों के उत्तर में निमाई अपनी “गया यात्रा” का वर्णन करके बताते हैं ।
गया तीर्थ पहुँचने से पूर्व ही मुझे ज्वर हो गया ….माँ ! मैं दो दिन तक ज्वर में ही पड़ा रहा ..मेरे साथ के मित्रों ने बहुत प्रयास किया कि मैं स्वस्थ हो जाऊँ …पर नही …मुझे औषधि देने की कोशिश की ….माँ ! मुझे औषधि लेना प्रिय नही है ….मैंने नही ली …किन्तु मेरे मित्र बहुत दुखी थे तो मैंने उन लोगों को कहा ….मुझे किसी वैष्णव के चरणोदक का पान करा दो …मैं ठीक हो जाऊँगा ।
फिर क्या हुआ ? निमाई ! तुझे तो वैष्णव लोग प्रिय नही थे ?
निमाई इसका कोई उत्तर नही देते ….फिर कहते हैं ….मुझे किसी वैष्णव ब्राह्मण का चरणोदक लाकर दिया गया …आश्चर्य ! माँ मेरा ज्वर तुरन्त उतर गया । फिर तो मैं स्नान आदि से शुद्ध पवित्र होकर पादपद्म मन्दिर गया …जहां भगवान श्रीनारायण के चरण विराजमान थे । माँ ! वहाँ भीड़ बहुत थी ….हजारों यात्री थे ….सब जा रहे थे मन्दिर की ओर ….वहाँ के पुजारी लोग सबको कह रहे थे ….ये चरण हैं भगवान के ….इन चरणों को छुओ ….इन चरणों में अपना मस्तक रखो …ये चरण हैं जिनसे साक्षात् भगवती गंगा का प्राकट्य हुआ है …इन चरणों की सेवा में माता लक्ष्मी नित्य रहती हैं …इन्हीं चरणों का ध्यान करके बड़े बड़े योगी तर जाते हैं ….ये ऐसे चरण हैं …आइये , इन चरणों को प्रणाम कीजिये और भेंट दक्षिणा चढ़ाइए । निमाई अपनी माता को बता रहे हैं ….माँ ! तभी मुझे पता नही क्या हुआ ! मेरे सामने साक्षात प्रभु के चरण प्रकट हो गये । वो चरण बड़े दिव्य थे ….क्या बताऊँ माँ ! चक्र शंख अंकित चरण ….पुजारी-पण्डे मुझे बोलते रहे …सिर झुकाओ …प्रणाम करो …पर माँ ! मेरे देह में रोमांच होने लगा ..मैं काँपने लगा ….मेरे नेत्रों से अश्रु बहने लगे ….ओह ! यही हैं वे चरण जो पतितपावन कहे जाते हैं ….इन्हीं चरणों को पाने के लिए योगी-ज्ञानी आदि तरसते रहते हैं …और निमाई , वो तेरे सामने हैं …पकड़ ले इन्हें …लगा ले अपने हृदय से …माँ , पता नही मुझे क्या हुआ ….मैं उसी समय गिर गया ….मेरे शरीर से स्वेद बहने लगे ।
पुत्र ! तू भावुक है …मैं जानती हूँ ….शचिदेवि ने कहा ।
माँ ! मेरे मित्रों ने मुझे भीड़ से बाहर निकाल कर एक खुली जगह में रख दिया था ….मुझे जल पिलाया ….मेरे मुँह पर जल का छींटा दिया । तभी मुझे लगा कि – कोई बुला रहा है ….निमाई पण्डित ! ओ पण्डित ! उन बुलाने वाले की वाणी अमृतमई थी ….मुझे उन्होंने फिर मेरे नाम से पुकारा ।
मैं उठा …जब मैंने देखा तो चौंक गया …वो दूर खड़े थे और मुझे देखकर मुस्कुरा रहे थे ।
श्री ईश्वर पुरी जी ? वो सन्यासी महात्मा ! जो मेरे नवद्वीप में आये थे ।
मैं उन्हें देखते ही दौड़ा …और उनके चरणों में गिरने ही वाला था कि – सम्भाल लिया ।
तुम्हारा स्थान मेरे हृदय में है निमाई । आहा ! शीतल हो गयी थी छाती । उन्होंने मुझे अपने हृदय से लगा लिया था । श्रीकृष्णलीलामृत ….तुम्हारे स्मरण में है निमाई ? कैसे मुझे स्मरण नही होगा ….आप मुझे श्रीकृष्ण लीला सुनाते थे ….ओह ! अब बताओ ! तुम क्या चाहते हो ? सन्यासी महात्मा ने कहा । बस श्रीकृष्ण से मिला दीजिये । उनके दर्शन हो जायें बस ….मैंने उन सन्यासी महात्मा से प्रार्थना की । मेरी ये बात सुनकर वो बिना कुछ बोले …मुस्कुराकर चले गये । मैं उन्हें पुकारता रहा माँ ! पर उन्होंने एक बार भी पीछे मुड़कर नही देखा । इतना कहकर निमाई हिलकियों से रोने लगे …..माँ ! माँ !
बाहर किसी के सिसकने की आवाज शचि देवि ने सुनी तो वो बाहर भागीं । विष्णुप्रिया गिर पड़ी थी । उससे उठा भी नही जा रहा था ..उसके नेत्रों से अविरल अश्रु बह रहे थे ….
शेष कल –


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