उद्धव गोपी संवाद:-
२७ एवं २८
भगवान श्रीकृष्ण वृंदावन को याद करते हुए कह रहे हैं:-
संग मिल कहों कासों बात।
यह तो कतथ योग की बातें,जामें रस जरि जात।।
कहत,कहा पितु माता कौन,कौ पुरुष नारि कहा नात।
कहां यशोदा सी है मैया, कहां नंद सम तात।।
कहां वृषभानु सुता संग को सुख,यह वासर वह प्रात।
सखी सखा सुख नहीं त्रिभुवन में, नहिं बैकुंठ सुहात।।
वह बातें कहा कहिए आगे,यह गुनि हरि पछितात।
सूरदास प्रभु ब्रज महिमा कहि,लिखि बदति बलभ्रात।।
भावार्थ:-
भगवान कह रहे हैं कि एक सखा है ऊधौ,वह हू उलटौ बोलै है, मैं प्रेम माधुरी गांऊ हूं,तो वह योग की महिमा हांकै है,यातें सबरो रस जर जाय है?
ऊधौ कहे हैं, आपके लिए कौन माता कौन पिता कौन पुरुष कौन नारी,आप ही तौ सब हो।
हाय, कहां यशोदा सी मैया और कहां नंद जैसे पिता, कहां वह वृषभानु नंदिनी के संग को सुख रात और दिन। ऐसे सखी और सखाओं का सुख पूरे त्रिभुवन में नहीं, इनके आगे बैकुंठ का सुख भी नहीं सुहाता है। ये बातें किस के आगे कहें यही सोच सोच कर हरि पछता रहे हैं। सूरदास जी कह रहे हैं कि भगवान ब्रज की महिमा को बलभ्रात अर्थात उद्धव जी को लिखकर ब्रज में भेजने का विचार कर रहे हैं।
शेष कल….
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