!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!
( त्रयोविंशति अध्याय: )
गतांक से आगे –
पण्डितों को बुलाया गया ….एक नही पाँच पण्डित बुलाये गये । निमाई को ठीक करना है ….दो तान्त्रिक भी आये हैं …वो पूर्व ही “दुर्गा दुर्गा” कहकर कुछ झाड़ फूंक कर चले गये । अब गृह देवता की आराधना होगी …वही रुष्ट हैं इसलिये तो निमाई ऐसा हो गया…ये शचि देवि का कहना है …विष्णुप्रिया का तो कुछ कहना ही नही हैं …इस बेचारी की तो बुद्धि ही काम नही कर रही ….बस “पति ठीक हो जायें” …ये हर देवि देवता से यही मनाती है ।
पूजन शुरू हुआ ,एक धोती और उसी को ऊपर लपेटे हुये …बस …इन्हीं वस्त्रों में निमाई पूजा में आकर बैठ गये थे । शचि देवि ने देखा …विष्णुप्रिया ने भी देखा ….ये वही निमाई हैं ? धोती और कुर्ता उसमें इत्र फुलेल …मुख में पान, यही तो थे निमाई …पर आज परम विरक्त हो गये हैं …विरक्ति भी एकाएक चरम पर पहुँची …अरे ! कोई महात्मा भी बनता है तो वैराग्य धीरे धीरे चढ़ता है …पर ये क्या ! निमाई का वैराग्य तो ….
गृह देवता रुष्ट हैं ….इसलिए आज पूजन रखा गया है ….निमाई के गृह देव भगवान नारायण हैं ….आज नारायण भगवान का पूजन होगा ….संकल्प , निमाई के स्वास्थ लाभ के लिए । स्वस्तिवाचन के साथ निमाई के ऊपर जल का छींटा दिया ….पर निमाई तो एक टक भगवान नारायण को देख रहे हैं …वो विष्णुप्रिया के दाहिने भाग में भी नही बैठे ….वो अपनी माँ शचि देवि के साथ बैठे हैं । एक बार भी पूजन के समय निमाई विष्णुप्रिया को नही देखते ….प्रिया देख रही हैं….उनके हृदय में क्या बीत रही होगी उसे लिख पाना सम्भव नही है ।
पण्डित लोग पूजन के समय बारम्बार स्वास्थ्य लाभ की बात करते हैं ……एक बार , दो बार ..पर जब तीसरी बार भी स्वास्थ्य लाभ का उल्लेख किया …तो निमाई चीख पड़े – “इस दो कौड़ी के देह के लिये आप लोग भगवान नारायण की भक्ति कर रहे हो !” ये देह तो माटी है ..और माटी में ही मिल जाएगा । निमाई बोलते गये …उनके नेत्र बह रहे थे ….वो भाव में डूबे हुए थे …प्रिया घूँघट में थी ….वो भीतर ही भीतर रो रही है ।
तो फिर आप क्या चाहते हो पण्डित निमाई ?
पण्डितों ने भी डरते हुए कहा …क्यों की निमाई के प्रबल पाण्डित्य से सब परिचित ही थे ।
उठ गये निमाई , ब्राह्मणों के चरणों में अपना मस्तक रख दिया …आहा ! आप लोग तो भगवान के प्रिय हो …आप लोगों से भगवान सदैव प्रसन्न ही रहते हैं …आप को भगवान ने अपना इष्ट कहा है …फिर आप लोग मेरे लिए भगवान से प्रार्थना करें । निमाई को इस तरह देखकर ….असहज हो गये पण्डित लोग ।
आप भगवान नारायण से कहें ….कि वो मुझे भक्ति दें ….भक्ति ….नही नही , मात्र भक्ति नही ….उनकी तीव्र व्याकुलता दें ….वो मुझे दर्शन दें …कृष्ण मेरे नाथ ! आप दर्शन दो । बोलो ना , भगवान से कहो कि इस निमाई को वो दर्शन दें ….बोलिये , वो दर्शन देंगे ना । लाल मुखमण्डल हो गया निमाई का …अविरल अश्रु बहते ही जा रहे हैं उनके । वो लम्बी लम्बी साँस लेने लगते हैं …फिर केशव , माधव , मुकुंद , हे मुरारी ….यही सब कहते हुए निमाई धड़ाम से धरती पर पछाड़ खा रहे हैं । शचि देवि सम्भाल रही हैं….पर वो अपनी माँ के चरणों में फिर गिर पड़ते हैं ….वो अब अपनी माँ से प्रार्थना कर रहे हैं ….माँ ! देख ना , मुझे श्रीकृष्ण दर्शन देंगे ना ! तेरा बेटा तो अधम है …क्या अधम को भी वो अपना बनायेंगे ! बोल ना माँ ! निमाई की स्थिति देखकर माँ शचि ने भी रोना शुरू कर दिया । निमाई सिर पटक रहे हैं …..सिर पटकते हुए वो और आर्त नाद कर रहे हैं । प्रिया ने देखा रक्त निकल रहा है निमाई के ….वो दौड़ी ….ये उससे कैसे देखा जाता ….उसने निमाई को पकड़ा ….नाथ ! निमाई शान्त हुए …अपने को प्रिया से दूर किया ….ये प्रिया को अच्छा नही लगा …पर क्या करे प्रिया !
नाथ ? निमाई हंसे ….नाथ तो एक मात्र श्रीकृष्ण हैं ….मेरे भी नाथ हैं तुम्हारे भी वही नाथ हैं ….चराचर के वही नाथ हैं ….मैं कहाँ किसी का नाथ हूँ …..मैं स्वयं सेवक हूँ …उस गोपी के भरतार का सेवक ….नही नही …सेवक नही …उनके सेवकों का भी सेवक । ये कहते हुये फिर हंसने लगे निमाई । शचि देवि ने तो अपने को सम्भाल लिया …पुत्र की ऐसी दशा में स्वयं का बिलखना शचि देवि को उचित नही लगा । पुत्र की स्थिति दयनीय है और बहु प्रिया तो अभी छोटी है ….मुश्किल से बारह वर्ष की ही तो है । इसे कौन सम्भालेगा । शचि देवि निमाई को ले जाती हैं और सुला देती हैं …कपूर और तैल का मर्दन मस्तक में करती हैं …..निमाई हंसते हैं ….तेरा बेटा पागल हो गया है ? ए माँ ! तू यही सोच रही है ना ? निमाई और जोर से हंसते हैं ।
पागले दले मत मिसियो रे भाई ………..
यही बोल रहे हैं निमाई । विष्णुप्रिया क्या करे ? ये सब प्रिया को शूल की तरह चुभ रहे हैं । ओह !
आज प्रिया ने और शचिदेवि ने विचार किया …..क्यों न पाठशाला में निमाई को भेजा जाये । वैसे भी विद्यार्थी घर में आ आकर पूछते हैं …..और निमाई पाठशाला जायेंगे …तो शायद इनका मन वहाँ लग जाये । सुन्दर धोती कुर्ता पहना कर निमाई को पाठशाला भेज दिया शचि देवि ने ।
यही वो निमाई हैं …जो विद्यार्थियों को पढ़ाने में अपने आपको खपा देते थे ….विद्यार्थी अपने पण्डित निमाई शिक्षक को पाकर कितना गर्व अनुभव करते थे…पर…….
आज पाठशाला गये निमाई ….गये क्या माँ ने भेजा …प्रिया ने माता से कहकर भिजवाया ।
विद्यार्थियों ने अपने अध्यापक निमाई को देखा तो उनके प्रसन्नता का कोई ठिकाना नही था ।
गुरु जी ! क्या किया आपने गयातीर्थ में ? विद्यार्थियों को लगा पहले की तरह हंसते हुए कोई उत्तर देंगे ।
पर कोई उत्तर नही …गम्भीर बने रहे …..विद्यार्थियों ने अपने ग्रन्थ खोले ….
क्या करना है ? निमाई सबसे पूछते हैं । विद्यार्थी उत्तर देते हैं ….गुरु जी ! न्याय पढ़ाइये ।
निमाई न्याय की किताब देखते हैं ….दो तीन पन्ने पलटते हैं ….फिर सजल नेत्रों से विद्यार्थियों को देखते हैं …..
क्या मिलेगा ये सब पढ़कर ? …वो विद्यार्थियों से पूछते हैं …फिर स्वयं उत्तर देते हैं – कुछ नही मिलेगा । मेरे विद्यार्थियों ! ये जीवन अमूल्य है ….पुण्यों से भी ये मानव देह नही प्राप्त होता …ऐसे में इन किताबों को पढ़कर समय गँवाने से लाभ क्या ?
फिर क्या पढ़ें ? एक विद्यार्थी ने पूछा ।
श्रीकृष्ण जिसे पढ़कर हृदय में आजाएँ वही पढ़ो । श्रीकृष्ण का चिन्तन जिसे पढ़कर बने उसी को अपनाओ । ये जीवन प्रेम करने के लिए है …..प्रेम , निमाई की आँखें चढ़ गयीं …प्रेम ही सब कुछ है …प्रेम नही तो जीवन में कुछ नही है ….प्रेम , प्रेम प्रेम …..प्रेम किससे ? निमाई हंसे ….प्रेम करने जैसा कौन है इस जगत में ? बताओ ? जो कल राख हो जाएगा उससे प्रेम करोगे ? कल तो विष्टा बन जायेगा उससे प्रेम करोगे ? अरे ! श्रीकृष्ण …श्रीकृष्ण ही हैं प्रेम करने योग्य ….श्रीकृष्ण ….बोलो , श्रीकृष्ण ….कृष्ण कृष्ण कृष्ण …निमाई नाचने लगे ….उन्मत्त होकर उन्होंने पाठशाला में नाचना शुरू किया ….वो अपने नेत्रों से अश्रु बहा रहे थे …वो जोर जोर से चिल्ला रहे थे …कृष्ण , कृष्ण , कृष्ण ……और कुछ देर बाद वहीं मूर्छित हो गये निमाई ।
शेष कल –
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