उद्धव गोपी संवाद:
( भ्रमर गीत)
३५ एवं ३६
कोहू कहै ए निठुर, इन्हें पातक नहीं व्यापै।
पाप-पुंन के करनहार,ए आप-हि-आपैं।।
इन्ह के निरदै रूप में,नाहिंन कोऊ चित्र।
पै प्यावत प्रानन हरे,पुतनां बाल चरित्र।।
मित्र ए कौन के ?
भावार्थ: कोई गोपी कह रही है कि ये तो निठुर हैं, इन्हें पातक नहीं लगै अर्थात इन्हें किसी की कोई परवाह नहीं,ये आप ही पाप और पुण्य के करनहार हैं। इनके निर्दयी हृदय में कोई भी विचित्र नहीं है , इन्होंने तो पय पीवत ही पूतना मारी,यह इनका बाल चरित्र है।
कोहू कहै री,आजु नाहीं आगे चलि आई।
रामचन्द्र के रुप माहिं,कीन्हीं निठुराई।।
जग्य करावन जात हैं, विस्वामित्र समीप।
मग में मारी तारका, रघुबंसी कुल दीप।।
बाल ही रीति यैं।।
भावार्थ:
कोई गोपी कह रही हैं कि यह सिर्फ आज की ही बात नहीं, इन्होंने तो रामचंद्र के रूप में भी निठुराई कीनी है। यज्ञ करने तो विश्वामित्र के पास जाते हैं और रास्ते में तारका को मारते हैं और रघुवंश के कुल दीपक कहलाते हैं
यह इनकी बालपने की रीत है
( इन पदों के द्वारा गोपियां अपना रोष प्रकट कर रही हैं परन्तु आपस ही में बातें कर रही हैं)
🙏🙏जय श्रीकृष्ण 🙏 🙏


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