उद्धव गोपी संवाद
(भ्रमर गीत)
३९ एवं ४०
कोहू कहै,इन्ह परसराम व्है माता मारी।
फरसा -कंधा-धारी,भूमि -छत्रिन्ह संघारी।।
सोंनित कुंड भराई कें,पोखे अपने पित्र।
इन्ह के निरदै रुप में,कछु हू नाहिं विचित्र।।
बिलग कहा मानिऐं।।
भावार्थ:-
गोपियां कह रही हैं कि, कोई कहते हैं कि इन्होंने परशुराम होय कै,अपनी माता को मारा था और फरसा कंधे पर धारण करके पूरी भूमि को क्षत्रियों से खाली कर दिया था और अपनें पित्रों का सोनित कुंड में उद्धार किया था।
सखी इनके निर्दयी रूप में कुछ भी विचित्र नहीं है।
कोहू कहै री,कहा हिरनकच्छप तें बिगरयौ।
परम ढीट प्रहलाद, पिता के सम्मुख झगरयौ।।
सुत अपने को देति हो,सिच्छा दंड बधाई।
इन्ह वपु धरि नरसिंघ कौ,नखन विदारयौ जाई।।
बिनां अपराध ही?
भावार्थ:
कोई कहते हैं कि हिरण्यकशिपु ने क्या बिगाड़ा था जो परम ढीट प्रहलाद,पिता के सामने ही झगड़ते थे। अपने सुत को शिक्षा,दंड और बधाई देते हो।अरी सखी, इन्होंने ही नरसिंह रूप धरि के अपने नाखूनों से बिना अपराध के ही उनका सीना फाड़ दिया था।


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