!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!
( त्रिंशत् अध्याय : )
गतांक से आगे –
मैं ग्रहस्थ आश्रम का त्याग करूँगा …ये मेरा निश्चय है ।
केशव भारती सन्यासी महाशय से गुप्त मन्त्रणा का ये परिणाम हुआ कि …निमाई ने अब दृढ़ निश्चय कर लिया….मैं सन्यास आश्रम स्वीकार करूँगा ही ।
आज सुबह से ही निमाई विचलित हैं वो चले जाते हैं अपने प्रिय नित्यानंद के पास ।
निमाई को देख नित्यानंद बहुत प्रसन्न होते हैं ….पर उनकी प्रसन्नता कुछ ही देर में अपार दुःख में परिणत हो जाती है …….
मैं सन्यास लूँगा ….मैं ग्रहस्थ आश्रम का त्याग करूँगा ….ये मेरा निश्चय है । निमाई के मुख से ये सुनते ही बिलख उठते हैं नित्यानंद ….बेचारी माँ शचि देवि !….नित्यानंद के नेत्रों से अश्रु बह चलते हैं …और वो श्रीमति विष्णुप्रिया ? शचि देवि तो अड़ोस पड़ोस में सबको अपनी बात सुनाकर मन हल्का करती रहेंगी पर विष्णुप्रिया घुट घुट कर मर जाएगी ! वो तो किसी को कह भी नही पायेगी । उसका क्या होगा ? ये विचार करते हुए अपार कष्ट होने लगा नित्यानंद को ।
नित्यानंद ! तुम मेरे हो …तुम जानते हो कि मेरा लक्ष्य क्या है ? मैं ग्रहस्थ आश्रम में फँसा रहूँ ऐसा नही हो सकता । मुझे उन्मुक्त विहार करना है ….कृष्ण को नाना रूपों में खोजना है …उस समय मैं कोई बन्धन नही चाहता ….कोई बन्धन नही ।
नित्यानंद भी समझ गये कि निमाई अपनी बात पर अडिग रहने वाले हैं ….इसलिए अपने को सम्भालकर वो बोले – हे निमाई प्रभु ! मैं आपको जानता हूँ ….ये आपका जन्म नही है …ये आपका एक रहस्यपूर्ण अवतार है ….प्रेम का अवतार । फिर प्रेम में तो त्याग होगा ही ….प्रेम देव त्याग ही की माँग करते हैं …यही बात आप जन सामान्य को समझाना चाहते हो इसलिये ये लीला कर रहे हो …..किन्तु मेरी आपसे प्रार्थना है ….अपने भक्तों को कभी अन्धकार में मत रखना ….वो भी अपना जीवन आपमें समर्पित करके चल रहे हैं ….इसलिये हे निमाई प्रभु ! आप सबको बताओ ….स्पष्ट बताओ । नित्यानंद के मुख से ये बातें सुनकर निमाई ने नित्यानंद को अपने हृदय से लगाया और हिलकियों से रो पड़े । नित्यानंद को इससे कुछ सुख मिला था ।
मुरारी निमाई के परम भक्त हैं ……निमाई ने उन्हीं के यहाँ जाने की सोची ….और तेज चाल से मुरारी के यहाँ चले भी गये ….पर मुरारी के यहाँ हरिदास भी थे ….और भक्त मुकुंद भी थे । अपने प्रभु को इस तरह आया देख सब प्रसन्न हुए । किन्तु निमाई ने अपनी बात जब रखी तो सबके ऊपर वज्रपात ही हो गया ।
मैं सन्यास ले रहा हूँ …….निमाई ने स्पष्ट कहा ।
क्या ! सब भक्त दुःख से काँप उठे थे ……
हाँ , मैंने निश्चय किया है कि शिखा सूत्र को त्याग कर सन्यास ग्रहण करूँगा ।
पर क्यों ? आर्त नाद कर उठे सब भक्त ।
क्यों की मैं अब कृष्ण प्रेम को पाने के लिए ये सब कर रहा हूँ …..फिर मुझे कोई बन्धन नही होगा …न कर्तव्य का ….न त्रिऋण का …..मेरे लिए एक ही कर्तव्य शेष रह जायेगा …कृष्ण प्राप्ति …वही तो जीव का मुख्य लक्ष्य है ।
अगर ऐसा ही करना है तो कुछ वर्ष और नवद्वीप में इसी प्रकार कीर्तन कीजिये जब हम पक्व भक्त बन जायें तब आप सन्यास लीजिएगा । मुरारी ने अश्रुपात करते हुये कहा ।
नही मुरारी ! ये सम्भव नही है….सन्यास लेने की त्वरा मेरे अन्दर अब बढ़ती ही जा रही है ….और वैसे भी शुभकार्य में विलम्ब क्यों ? मुझे मत रोको , मुझे सन्यास लेने दो । निमाई दीन हीन से हो गये थे ….वो रोते रोते हाथ जोड़ने लगे थे ।
ये बात अपनी माता शचि देवि से जाकर पूछो निमाई !
अश्रुपात करते हुए बूढ़े श्रीवास आगे आये थे …ये यहीं थे …वृद्ध थे …निमाई को बहुत मानते थे …भगवत् रूप में ही निमाई को देखते थे ।
अगर तुमने ऐसा किया तो माँ के हत्या का पाप तुम्हें लगेगा …ऐसा कदापि मत करना ….
मुस्कुराए निमाई …ऐसे कठोर वाक्य पहली बार किसी भक्त ने अपने भगवान को कहे थे ।
पर निमाई ने दौड़कर श्रीवास को अपने हृदय से लगा लिया …..और बड़े प्रेम से बोले ….जैसे कोई व्यापारी परदेश जाता है ….और धनार्जन करके लाता है , और उस धन को अपने परिवार में बाँटता है …इसी प्रकार मैं भी प्रेमार्जन के लिए जा रहा हूँ …वृन्दावन , नीलान्चल आदि आदि धामों में जाकर प्रेम बटोरुंगा ….हे मेरे प्रिय वो प्रेम तुम लोगों पर ही तो लुटाऊँगा । इसलिये मुझे मत रोको ….मुझे जाने दो …मुझे सन्यासी बनने दो । निमाई बिलख उठे थे ।
निमाई को देखकर सारे भक्त बोल उठे …..क्या आवश्यक है सन्यास लेने की ….कृष्ण भक्ति सन्यासी को ही मिलती है ऐसा कहीं लिखा तो नही है …..कृष्ण का विशुद्ध प्रेम मात्र घर त्यागने वालों को ही मिलता है ऐसा भी कोई नियम नही है …..फिर ये जिद्द क्यों ? क्यों ?
सब निमाई को प्यार करते हैं ….नवद्वीप का बच्चा बच्चा निमाई के प्रति प्रेम से भरा है ….ये बात निमाई अच्छे से जानते हैं इसलिये उन्हें इनकी बातों का कुछ बुरा नही लगता ।
तभी मुरारी बोलता है …..कई पौधे आपने लगाये थे उन्हें सींचा था ….संवारा था ….आज कुछ बड़े हुए हैं पर आप इस तरह छोड़ देंगे तो वो मर ही जायेंगे ! मुरारी ये कहते हुए रोने लगा था …..अश्रु धार अब रुक नही रही थी । निमाई इस बात का भी कोई उत्तर नही देते हैं । निमाई सोचते हैं ये प्रेम के कारण प्रकटे तर्क हैं …इनका क्या उत्तर दिया जाये । निमाई सबको देख रहे हैं …और अनुभव भी कर रहे हैं कि ये सब बहुत दुखी हैं …किन्तु सन्यास तो लेना ही है निमाई को ।
कुछ देर शान्त रहने के बाद निमाई बोलना शुरू करते हैं …वो बोलते बोलते रोने लगते हैं …..बिलख उठते हैं ….उनके नेत्रों से जल वृष्टि ऐसे हो रही है मानों सावन भादौं का महीना हो ।
तुम सब लोग मुझ से प्रेम करते हो ना ! फिर अपने प्रेमी को क्यों कष्ट दे रहे हो ….हे मेरे प्रिय जनों ! तुम्हारा निमाई बहुत कष्ट में है ….इस बात का क्या तुम्हें अनुभव नही है ? मैं तुम्हारे निकट रहूँ इसलिये मुझे सन्यास लेने से मना कर रहे हो ! तो ये ग़लत है …तुम सब को अपने विषय में नही …थोड़ा मेरे विषय में भी सोचना चाहिये । मैं दिन रात रो रहा हूँ ….कोई क्षण ऐसा नही है जब मैं व्याकुल न होऊँ …..मुझे कृष्ण चाहिएँ ….जैसे भी हो मुझे कृष्ण के बिना अब चैन नही आयेगा ….हे मेरे अपने लोगों ! कुछ तो विचार करो …ये तुम्हारा निमाई तर्क में किसी से पीछे रहने वाला नही है …..किन्तु इस समय तर्क आदि सब मेरी मति से निकल गये हैं ….मेरी मति ही कृष्ण चरणों में सती हो गयी है ….इसलिये मैं आपको कोई उत्तर आदि देने की स्थिति में नहीं हूँ …..पर आप लोग मेरे सन्यास को लेकर डरते क्यों हैं ? क्या आपको ये लगता है मैं आप लोगों को त्याग दूँगा …छोड़ दूँगा ….नही ….ये कभी नही होगा ….मैं जहां रहूँगा आप लोग भी मेरे साथ ही रहोगे …..सन्यास मेरा बाहरी रूप है ….जगत को दिखाने के लिए ये मेरा सन्यास है …तुम सब सन्यास लेने के पूर्व जैसे मेरे साथ रहते हो वैसे ही सन्यास लेने के बाद भी रहोगे ….और इस जन्म में ही नही जन्मों जन्मों तक । ये बात निमाई ने जब कही उस समय उनका मुखमंडल सूर्य की भाँति दमक रहा था ….मानों साक्षात् नारायण भगवान ही अपने भक्तों को ये सब कह रहे थे ….सबको ऐसा लगा ।
निमाई के इस आश्वासन से भक्तों को कुछ शान्ति मिली ।
माँ ! मुझे डर लगता है अपने प्रभु को लेकर ।
बेचारी विष्णुप्रिया अपने माँ से चिपक कर रोने लगी थी ।
कैसा डर बेटी ! बोल कैसा डर ? कहीं मेरे नाथ सन्यास न ले लें ।
महामाया देवि के हृदय में वज्रपात हुआ ….यही बात वो भी तो कह रही थीं ….पर विष्णुप्रिया ने आज स्वीकार किया ।
बेटी ! आज मैं गंगा घाट पर गई थी ….वहाँ मैंने एक बात सुनी …….
क्या बात माँ ! कोई केशव भारती नामक सन्यासी आये हैं नवद्वीप में ….निमाई को वो सन्यासी बनाना चाहते हैं । माता ने ये बात डराने के लिए नही …अपनी पुत्री को सावधान करने के लिए कहा था । माँ ! कोई सन्यासी मेरे प्राणेश्वर को सन्यासी नही बना सकता ….किन्तु हाँ , ये भी सच है कि ….मेरे प्राणेश्वर ने ही ठाना हो सन्यास लेना तो कोई उन्हें रोक भी नही सकता …विधाता भी नही माँ ! वे ऐसे जिद्दी हैं ।
कुछ देर तक शून्य में तांकती रही विष्णुप्रिया …..बाहर आज शियार रो रहे हैं …..विष्णुप्रिया कहती है ….माँ ! मैं कल जाऊँगी । बेटी ! अभी तो तू आई ही है ….कुछ दिन और रुक जा !
नही माँ ! मुझे जाना पड़ेगा …..माँ ! जगत का मंगल होने जा रहा है …किन्तु तेरी बेटी का …..
मुँह में हाथ रख दिया महामाया देवि ने …..ऐसा मत बोल …..तेरा मंगल ही मंगल होगा ।
पर शियार रोता ही जा रहा है ……पता नही क्यों ?
शेष कल –


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