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July 7, 2025 1:20 pm

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श्री जगन्नाथ मंदिर सेवा संस्थान दुनेठा दमण ने जगन्नाथ भगवान की रथ यात्रा दुनेठा मंदिर से गुंडीचा मंदिर अमर कॉम्प्लेक्स तक किया था यात्रा 27 जुन को शुरु हुई थी, 5 जुलाई तक गुंडीचा मंदिर मे पुजा अर्चना तथा भजन कीर्तन होते रहे यात्रा की शुरुआत से लेकर सभी भक्तजनों ने सहयोग दिया था संस्थान के मुख्या श्रीमति अंजलि नंदा के मार्गदर्शन से सम्पन्न हुआ

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!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!- पंचत्रिंशत् अध्याय : Niru Ashra

!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!- पंचत्रिंशत् अध्याय : Niru Ashra

!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!

( पंचत्रिंशत् अध्याय : )

गतांक से आगे –

प्रेम की मधुरता , प्रेम का बंधन , प्रेम की शृंखला ….युक्ति सिद्धान्त और शास्त्र तत्व के विधि नियम के अन्तर्गत ये नही आते ….शास्त्रीय विधि निषेध को प्रेम मान्यता नही देता …उसके अपने शास्त्र हैं उसके अपने नियम हैं …प्रेम स्वतन्त्र है ….पूर्ण स्वतन्त्र ।

निमाई ने बेचारी विशुद्ध प्रेमिन विष्णुप्रिया को समझाया …युक्ति सिद्धान्त समझाये ….जीव का कर्तव्य समझाया ….भगवान ही एक मात्र आश्रय हैं …ये भी समझाया । अपनी विद्वत्ता का भरपूर प्रदर्शन किया निमाई ने …पर ये चौदह वर्षीया बालिका क्या समझे इन जटिल सिद्धान्तों को …और क्यों समझे ? आवश्यकता क्या है ? ये तो इतना ही समझती है कि मैं अपने प्राणप्रिय निमाई की हूँ और निमाई मेरे हैं ….इसे और कुछ समझना भी नही है ।

निमाई ने जो कुछ समझाया विष्णुप्रिया ने उसे सुना …ध्यान से सुना …सुना, ये अपने प्रियतम का आदर था ….किन्तु माने ही ये कोई बात नही हुई । शास्त्र कहते हैं कहकर …विष्णुप्रिया अपने प्राण धन को कैसे जाने दे ….प्रेम देवता प्रियतम को भेजने की आज्ञा नही देता …नही देता ।

बाहर से निमाई के सारे आदेश, उपदेश ,सन्देश सुनने के बाद भी …विष्णुप्रिया मन ही मन रट रही है …एक ही बात को बारम्बार दोहरा रही है कि ….प्रिय ! मैं तुम को सन्यास लेने नही दूँगी ।

प्रिये ! बोलो ! क्या मैंने जो तुमसे कही उन बातों को तुम मानती हो ? क्या मैं सत्य नही कह रहा ? जीव को कृष्ण भजन नही करना चाहिये ! निमाई ने फिर अपनी ही बात दोहराई ।

विष्णुप्रिया ने निमाई को देखा …फिर दृष्टि नीचे करके बोली …आप ज्ञानीशिरोमणि हैं …मैं अज्ञानी अबला …आप परम विद्वान हैं …मैं अनपढ़ ….आप शास्त्रज्ञ हैं …मैंने शास्त्रों के दर्शन भी नही किये …विष्णुप्रिया कहती है ….नाथ ! आपकी बातें सारी सुनीं मैंने ….आपकी बातें सत्य हैं …..मैं कैसे कह दूँ ….कि असत्य आप बोल रहे हैं …..किन्तु नाथ ! ये जो धड़क रहा है ना सीने में ….ये नही मान रहा ….ये टीस पैदा कर रहा है …..कह रहा है …..प्रिया ! तू अपने प्राणनाथ के बिना कैसे जी लेगी ? ये पूछ रहा है मुझ से …..कि सारी बातें सही हैं …धर्म की बातें हैं ….तेरे पति परम धर्मज्ञ हैं ….पर तू उनके बिना कैसे रहेगी ? विष्णुप्रिया फिर रो पड़ी …..फिर वही अश्रु धार ……विष्णुप्रिया को फिर सम्भालना पड़ा निमाई को …..अपने हृदय से लगाकर उसे थपथपी दी …..नाथ ! आप सन्यास ले लेंगे ना तो आपका कुछ नही जायेगा …आपकी तो जयजयकार होगी …लोक कल्याण होगा ….पर ये समाज आपकी इस प्रिया को क्या कहेगा ! यही ना कि इसी से दुखी था इसलिये सन्यास लिया ….यही कहेगा ना ….कि अपने पति को अपने पास न रख सकी ….ये क्या करेगी ! बेचारी बालिका विष्णुप्रिया सीधी बात करती है ….इसे नही आता घुमा फिराकर बात करना …ये कोई तर्क की पण्डित थोड़े ही है निमाई की तरह …..ये तो बेचारी अपने पति निमाई से प्रेम करती है ….बहुत प्रेम करती है ।

गंगा घाट में जाऊँगी तो महिलायें मेरे विषय में कितनी बातें करेंगी ……क्या उस स्थिति से बचने के लिए मुझे मर जाना ही उचित नही होगा !

निमाई विष्णुप्रिया के इन बातों का क्या उत्तर दें ….हाँ कोई ऊँची बात हो तो निमाई बोल सकते हैं …कोई शास्त्रार्थ करने के लिए आये तो निमाई के सामने वो टिक नही सकता ….पर विष्णुप्रिया के इन साधारण सी बातों का निमाई के पास कोई उत्तर नही है । वो सोचने लगे अब क्या उपाय ? क्या करें जिससे प्रिया का ये शोक दूर हो । तुरन्त वही उपाय सूझा निमाई को …..भगवान नारायण का रूप दिखाया जाये …चतुर्भुज रूप जब प्रिया देखेगी तब ये समझ जायेगी कि ये तो भगवान हैं ….तब मुझे इन छोटी मोटी बातों का उत्तर नही देना पड़ेगा । ये विचार करके तुरन्त निमाई अंतर्ध्यान हो गये ….और उन्हीं के स्थान में चतुर्भुज विष्णु प्रकट थे ….प्रिया ने अपने सामने देखा ….भगवान विष्णु ? वो तुरन्त दूर हो गयी …उसने अपने साड़ी का पल्लू सिर में रख लिया ….दृष्टि नीचे की ….और हाथ जोड़कर प्रणाम करने लगी …..कुछ मन्त्र भी उसने बुदबुदाये ।

निमाई चकित हैं …..विष्णुप्रिया ने अब दृष्टि ऊपर की …..शंख चक्र गदा पद्म धारण करके भगवान विष्णु खड़े हैं …..पर वो कुछ ही देर व्याकुल हो उठी …..उसके नेत्रों से फिर अश्रु प्रवाह चल पड़े …..वो चरणों में बैठ गयी । हे विष्णुप्रिये ! क्या चाहती हो ? क्यों व्याकुल हो ? धीर गम्भीर वाणी गूंजी भगवान की ….विष्णुप्रिया रोते हुए बोली ….हे प्रभु ! मेरे नाथ कहाँ गये ? हे भगवान विष्णु ! मेरे स्वामी अभी यहीं थे ….पता नही आपके आते ही वो कहीं चले गये ….मुझे कुछ नही चाहिये …कुछ नही …बस मेरे प्राणनाथ को ला दीजिये ….ये विष्णुप्रिया उनके बिना रह नही पायेगी ….मैं बहुत छोटी मूर्खा नारी हूँ …अबला हूँ …मुझ में कोई शक्ति नही है ….इसलिए मेरी प्रार्थना सुन लीजिये और मेरे नाथ को ला दीजिये । हे चार भुजा वाले देवता ! क्या आप भी ‘नारी नर’ ये पक्षपात करते हैं ? ये बात कहते हुए जब विष्णुप्रिया अपना सिर पटकने लगी ….तब निमाई घबड़ा गये …और उन्हें अपना ये रूप हटाना ही पड़ा, निमाई अब वहाँ खड़े थे ।

प्रसन्नतापूर्वक उठकर निमाई के हृदय से ये लग गयी थी ।

हार गये थे विष्णुप्रिया से निमाई …..ये इनका अन्तिम अस्त्र था चतुर्भुज रूप दिखाना ….इसी के चलते शचि देवि को बात माननी पड़ी थी ….किन्तु विष्णुप्रिया पर ये अस्त्र काम नही किया ।

निमाई कुछ नही बोले ……विष्णुप्रिया बस हृदय से लगी रही ……

तो यही है तुम्हारा प्रेम ? कुछ रूखे वचन थे निमाई के ।

प्रिया को अच्छे नही लगे …..निमाई के मुखचन्द्र की ओर देखा प्रिया ने …मुख कठोर बना लिये थे निमाई ।

प्रेम जानती हो किसे कहते हैं ? प्रेम में अपना सुख कहाँ ! वहाँ तो प्रियतम को जो प्रिय लगे …प्रेम में स्वसुख खोज रही हो तो तुम वासना में अपने आपको डाल रही हो ….प्रेम तो तत्सुख है ….प्रिय जिसमें सुखी हो …अपने लिए वही सुख होना चाहिये । निमाई के वचन कठोर होते जा रहे थे …विष्णुप्रिया स्तब्ध थी अब …..प्रेम स्वरूप का ये कैसा रूप ? क्या तुमने श्रीराधा रानी का नाम नही सुना …या उनकी महिमा नही सुनी ? क्या तुमने गोपिकाओं के प्रेम का परिचय नही पाया …..अगर नही पाया तो पाओ ….प्रेम क्या है वो जानों ….मात्र प्रेम प्रेम कहने से क्या होता है ….कहना और जीना अलग बात है ….बातें तो प्रेम की दुनिया करती है …पर जीया है वृन्दावन की गोपियों ने ।

इतनी चोट बेचारी विष्णुप्रिया के हृदय पर ….क्यों ? इसका अपराध क्या है ?

किन्तु निमाई शान्त नही हुये अभी भी …….कृष्ण मथुरा चले गये ….किन्तु गोपियों ने कभी भी कृष्ण को ये नही कहा ….कि आजाओ …..वो यही कहतीं ….तुम्हें अच्छा लगे तो मथुरा में ही रहो …मत आओ कभी वृन्दावन ….हम रो रो कर जी लेंगी ।

“आप को सन्यास लेने में सुख मिलता हो तो आप सन्यास ले लो”

इतना कहकर विष्णुप्रिया मूर्छित हो गयी ……निमाई ने तुरन्त अपने गोद में उठाया प्रिया को ….और पर्यंक में ले जाकर सुला दिया ……सिर में हाथ फेरते रहे निमाई ….अश्रु गिरते रहे निमाई के ……प्रिया ! मैं क्या करूँ ? मैं समझता हूँ ….तुम प्रेम में गोपियों से कमतर नही हो …तुम्हारा प्रेम भी इस विश्व इतिहास में गाया जायेगा …..तुम महान हो ….निमाई महान होगा तो इसके पीछे तुम होगी ….तुम्हारे इस महान त्याग के कारण ही निमाई महान बनेगा ।

यही सब सोचते रहे निमाई और विष्णुप्रिया को देखते रहे ……

इस बेचारी को प्रेम चाहिये , अपने निमाई का प्रेम ….क्या गलत है ?

पर ……………….

शेष कल –

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