!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!
( षट्त्रिंशत् अध्याय: )
गतांक से आगे –
प्रातः की वेला हुई …विष्णुप्रिया तो उठकर स्नान आदि से निवृत्त हो गईं ….किन्तु निमाई सोये हुये हैं …तभी प्रिया देखती है …कि द्वार पर नवद्वीप के प्रबुद्ध लोग खड़े हैं …उनमें उनके पिता सनातन मिश्र जी भी हैं वो दौड़कर जाती है और अपने पिता सनातन मिश्र जी के हृदय से लग जाती है …बहुत रोती है …पिता भी अपनी पुत्री को इस स्थिति में देखकर अपने अश्रु रोक नही पाते हैं । भीतर निमाई उठ गये हैं …वो स्नान करके पूजा में बैठने वाले ही थे कि….निमाई ! तेरे ससुर जी समेत अनेक लोग आये हैं तू शीघ्र बाहर आजा …तब तक मैं उन लोगों से बात करती हूँ । निमाई समझ गए हैं कि …मेरे सन्यास की खबर पूरे नवद्वीप में फैल चुकी है …और निमाई ये भी समझ गये हैं कि …ये लोग मुझे समझाने के लिए ही आये हैं ।
निमाई पूजा पाठ पूर्ण करके बाहर आये ….सब को प्रणाम आदि किया और वहीं बैठ गये ।
निमाई ! क्या तुम सन्यास ले रहे हो ? अद्वैताचार्य जी ने निमाई से पूछा था ।
निमाई कुछ नही बोले ।
तुम तो प्रेम स्वरूप हैं …फिर प्रेमी को वैराग्य की आवश्यकता क्या ?
अद्वैताचार्य जी परम वैष्णव हैं …निमाई इनके प्रति आदर भाव रखते हैं और ये निमाई के प्रति ।
वैराग्य के बिना प्रेमी कैसा ? निमाई बोले । अन्य से विराग हो तब प्रियतम से राग जुड़ता है …संसार से वैराग्य हुए बिना भगवान अपना लग नही सकता …हे अद्वैत प्रभु ! आप सब कुछ समझते हैं …जानते हैं फिर भी पूछ रहे हैं तो इसमें कोई गूढ़ रहस्य भरा है ।
वैराग्य ही मेरा स्वधर्म है …वैराग्य को छोड़कर मेरा कोई कर्म नही है । निमाई गम्भीर होकर बोले ।
ये सुनते ही निमाई के ससुर सनातन मिश्र जी के नेत्रों से अश्रु बहने लगे उनका ध्यान उनके सामने बैठी विष्णुप्रिया की ओर गया तो वो और बिलख उठे थे ।
“वैराग्य आमार स्वधर्म…..वैराग्य छाड़िया नाहि कोन कर्म” ।
यहाँ राग किससे करें ? राग करने जैसा कौन है यहाँ ? सब तो मरणधर्मा हैं ….काल कब किसे अपना ग्रास बना ले कोई पता है ….फिर वैराग्य क्यों नही ? निमाई स्पष्ट बोल रहे हैं ।
शचिदेवि रो रही हैं ….बिलख रही हैं ….विष्णुप्रिया ने जब ये स्पष्ट मत जाना तो शचि देवि के ही गोद में गिर गयीं और असह्य दुःख के कारण मूर्छित ही हो गयीं । सनातन मिश्र जी से ये दृश्य देखा नही गया …वो हिलकियों से रोते हुए वहाँ से चले गये । जितने भी भक्त थे वहाँ सब रुदन करने लगे …निमाई को कहने लगे ….हे प्रभु ! ये अनर्थ है …आप ऐसे काम न करें ! निमाई हंसे …अनर्थ आप लोग कर रहे हैं ….भगवान को त्याग कर संसार को पकड़ने की बात करके आप अनर्थ कर रहे हैं …ये उचित नही है …संसार से विराग और कृष्ण से राग ..इसी से कल्याण होगा …मेरी बात मानों आप लोग भी इसी मार्ग पर चलो …जीवन की सार्थकता इसी में है ।
निमाई सबको वैराग्य की शिक्षा देने लगे थे …..कर्म में पड़कर जीव , जन्मों के चक्कर में फंसता ही चला जाता है ….मरते समय जिसमें राग है जीव उसी में जाता है ….जैसे – राजा भरत मृग में आसक्त थे ….तो मृग बने …ऐसे ही आसक्ति के कारण जीव नाना योनियों में भटकता रहता है …और अपार दुःखों को भोगता रहता है …वैराग्य का अभाव अगर जीवन में है तो यही होना है ।
किन्तु समझने की बात है …जो भाग्यशाली है ….वैराग्य भी उसी को मिलता है ….वैराग्य एक निर्भय पद है ….वैराग्य होने पर ….सिंहासन या मिट्टी का ढ़ेला ….बराबर हैं । हे मेरे भगवद्भक्तों ! वैराग्य होने पर नींद से मतलब होता है ….कहाँ सो रहे हैं उसका कोई अर्थ नही रह जाता । हे मेरे कृष्ण प्रेमियों ! वैराग्य होने पर प्यास से मतलब रह जाता है ….प्यास बुझने से मतलब रह जाता है ….जल किस पात्र में पीया गया उसका कोई अर्थ नही ….वो पात्र सुवर्ण का था या मिट्टी का ।
निमाई आज वैराग्य की महिमा ही गाने में लगे थे …..उनके लिए वैराग्य ही सब कुछ था ।
भक्त जन विरह से भरे हैं …..और चीत्कार रहे हैं ।
विष्णुप्रिया को अभी भी होश नही आया है ।
ओह ! निमाई बारम्बार विष्णुप्रिया को देख रहे हैं …ये सारी बातें ….वैराग्य की ये सारी चर्चायें इसी बेचारी को सुनाने के लिए ही तो है । उफ़ ! निष्ठुर निमाई !
शेष कल –


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