!! परम वियोगिनी – श्रीविष्णुप्रिया !!
( सप्तत्रिंशत् अध्याय : )
गतांक से आगे –
साधकों ! ध्यान कीजिये निमाई और विष्णुप्रिया के इन प्रेमपूर्ण रुदन का ….आपने मुस्कुराते खिलखिलाते श्यामा श्याम का ध्यान बहुत किया होगा …आपने श्रीरघुनाथ जी और किशोरी जी के आनन्दमय स्वरूप के दर्शन बहुत किये होंगे …..पर ये ध्यान सबसे अलग होगा ….ये ध्यान आपके अन्त:करण के पापों को धो देगा ….आपके भीतर प्रेम का प्रकाश छा जाएगा …आप इस वियोग के योग से प्रेम के सर्वोच्च पद के अधिकारी हो जायेंगे । पर उस समय पद की कामना ही नही रहेगी …रहेगी तो सिर्फ “युगल पद” की कामना । विष्णुप्रिया निमाई का ये रुदन आपके जीवन में नित्य होने वाले सांसारिक रुदन से आपको छुटकारा दिलायेगा । आप धरिये ध्यान ।
अर्धरात्रि हो गयी है …विष्णुप्रिया की मूर्च्छा अब टूटी है …उसने देखा रोते रोते शचि देवि वहीं पर सो गयीं हैं ….चादर लेकर आई ये प्रिया और अपनी सासु माँ को ओढ़ा दिया । फिर खोजने लगी अपने प्रियतम को ….इधर उधर नही देखा तो डर गयी कहीं गृहत्याग कर चले तो नही गये ?
वो भागी निमाई के कक्ष की ओर ….और जैसे ही कक्ष का द्वार खोला ….भीतर का दृष्य देखते ही वो काँप गयी ……….
निमाई की प्रेमोन्माद दशा थी ….वो धरती पर लेटे थे और “कृष्ण कृष्ण” पुकार रहे थे …बीच बीच में अपने सिर को पटक रहे थे जिसके कारण रक्त बह रहा था …वो चीख रहे थे …अश्रु ? अश्रु तो इतने बह रहे थे की पूरा कक्ष ही गीला हो गया था । वो अपना मुख धरती में रगड़ रहे थे …हरि हरि …कृष्ण केशव …माधव मुकुंद कहकर उनका उच्च स्वर से पुकारना वातावरण को अत्यन्त करुण बना रहा था ।
विष्णुप्रिया से अपने पति निमाई की ये स्थिति देखी नही गयी ….वो हिलकियों से फूट फूट कर रोने लगी ….फिर बैठ गयी निमाई के चरणों के पास …अपना सिर निमाई के चरणों में रख दिया ….नाथ ! मुझे छोड़कर मत जाना …जहां जाओ मुझे भी ले चलो ….क्यों नही ले जा सकते जब श्रीरघुनाथ जी अपनी श्रीसीता जी को वन में ले जा सकते हैं तो आप क्यों नहीं …जब धर्मराज युधिष्ठिर वन में अपनी पत्नी द्रोपदी को ले जा सकते हैं तो आप क्यों नहीं । मुझे यहाँ मत छोड़िए नाथ ! मुझे भी ले चलिये । ओह ! वो रोना …विष्णुप्रिया का वो क्रन्दन …दीवारें रो पड़ीं…..चेतन की बात नही है जड़ भी करुण रस में भींग गया । वो विष्णुप्रिया का चीखना …वो निमाई का हा नाथ ! कहकर चीत्कार करना ।
प्रिया ! निमाई ने नाम लेकर कहा । हाँ , हाँ नाथ ! विष्णुप्रिया तुरन्त आगे आई ।
सन्यास में स्त्री को साथ में रखने का विधान नही है …कुछ गम्भीरता के साथ निमाई बोले ।
तुम्हारे पति की भूमि नवद्वीप है …तो तुम यहीं रहो …अरुणोदय के समय नित्य गंगा में स्नान करना ….मेरा धोया वस्त्र धारण करना …ओह ! ये क्या कह रहे हैं निमाई ! विष्णुप्रिया को कुछ समझ में नही आरहा …ये मुझे छोड़कर ही जायेंगे ! तो मैं अब इनके बिना रहूँगी ! मर जाऊँगी मैं…
तुम्हें जीना है ….तुम्हें जगत की पतिव्रताओं के सामने एक आदर्श प्रस्तुत करना है ….
चावल की एक मुट्ठी हाथ में लेना …..और प्रिया ! हरे कृष्ण हरे कृष्ण इस महामन्त्र का जाप करना …एक बार मन्त्र पढ़कर एक दाना चावल का रखना ….इस प्रकार एक सौ आठ दानों को नामोच्चारण के साथ रखना फिर उन दानों को धोकर उसे पकाना फिर श्री कृष्ण को भोग लगाकर उसको ग्रहण करना । सिर्फ यही तुम्हारा आहार होगा …घर में संकीर्तन करवाना …वैष्णवों को अन्न दान करना । हे प्रिये ! बस मेरे इन वचनों का पालन करो …इस जगत में कोई किसी का नही है …माता पिता पुत्र पति कोई किसी का नही है ….ये सब मायामय जगत है …माया के बंधन में सब बंधे हैं ….इतना कहकर निमाई विष्णुप्रिया के मुख की ओर देखने लगे थे ।
वो अब कुछ नही बोल रही है …..क्या बोले । शून्य नयनों से बस अपने स्वामी को देख रही है । प्रेम की भी अपनी एक ठसक है ….वो क्या बार बार गिड़गिड़ाये …क्यों गिड़गिड़ाये ? हर बार यही उत्तर तो मिल रहा है ….की मैं सन्यास लूँगा ही । और अब तो ये भी बता दिया कि ….मेरे बिना तुम्हें कैसे रहना है ….क्या खाना है ….क्या पहनना है ….क्या बोलना है ….ओह ! पिया का ये कैसा अभिमान ! ले चलो ना अपने साथ , जो कहोगे वही करूँगी …..पर विष्णुप्रिया अब कुछ नही कह रही ….वो शून्य हो गयी है ….
“पतिधर्म रक्षा करे , सेइ पतिव्रता”
कहतो दिया …..दे तो दी पातिव्रत धर्म की शिक्षा …..पति धर्म की जो रक्षा करे उसी को पतिव्रता कहते हैं ….पतिधर्म है इस समय इनका सन्यास लेना ….मुझे हंसना चाहिए …मुझे प्रसन्न होना चाहिये …मुझे ख़ुशी खुशी इन्हें जाने देना चाहिये …..ओह ! इतने बड़े त्याग की अपेक्षा मुझ से ? क्यों ? मैंने तो पति सुख भी नही पाया अभी तक …..पत्नी पति कैसे संग रहते हैं ..हास्य विनोद कुछ नही हुआ मेरे साथ …..फिर इतने बड़े महान त्याग की अपेक्षा मुझ से क्यों ?
बेचारी विष्णु प्रिया …निमाई ने अपने पाँव हटाये …विष्णुप्रिया भी उठकर खड़ी हो गयी …प्रातः की वेला हो चुकी थी ..निमाई बिना कुछ बोले बाहर निकल गये । खड़ी है ये बेचारी विष्णुप्रिया ।
शचि देवि उठ गयीं हैं ….वो विष्णुप्रिया के पास आईं ….प्रिया ! प्रिया ! झकझोरा शचि देवि ने पर जड़वत प्रिया खड़ी ही रही । निमाई कहाँ गया ? शचि देवि ने पूछा …पर प्रिया ने इसका भी कोई उत्तर नही दिया । शचि देवि बाहर भागी …..निमाई , निमाई ! आवाज लगाई दो तीन बार ….पर कोई प्रत्युत्तर नही मिला । वो गंगा घाट में गयीं …..अभी स्नान में ज़्यादा लोग आये नहीं हैं …एक दो लोग ही हैं जो गंगा घाट पर हैं ……शचि देवि ने इधर उधर देखा ….पागलों की तरह फिर आवाज दी …निमाई , निमाई , दो लोगों ने संकेत किया कि निमाई प्रभु वो रहे …..
चिल्ला उठीं शचिदेवि …..क्यों की निमाई गंगा के मध्य धारा में बढ़ते जा रहे थे …उन्हें कुछ भान नही था ….वो आगे आगे और आगे …दो लोग कूदे गंगा में और निमाई को पकड़ कर किनारे में ले आये ….निमाई के मुख से “कृष्ण कृष्ण कृष्ण” यही नाम प्रकट हो रहा था ।
कुछ देर में जब निमाई को होश आया …तो उन्होंने चारों ओर देखा ….माता शचि को देखकर थोड़ा मुस्कुराये । तभी शचि देवि को उन्माद चढ़ गया ….निमाई ! तू इस तरह अपनी माता और उस बेचारी विष्णुप्रिया को दुःख देगा …तो ठीक है , मैं भी इस देह का अभी गंगा में परित्याग करती हूँ ….तू जिद्दी है निमाई तो तेरी ये माता तुझसे ज़्यादा जिद्दी है …..इतना कहते हुए शचि देवि गंगा की उस प्रवल धारा में कूद गयीं । निमाई ने देखा वो तुरन्त पीछे माता के कूद गये …और अपनी माता के प्राणों की रक्षा की । ये क्या किया तूने माँ ! निमाई गम्भीर होकर पूछ रहे हैं । तू वचन दे ….कि सन्यास नही लेगा । निमाई चरणों में गिर गये ….माँ ! बिना सन्यास के मैं जी नही पाऊँगा । तू समझती क्यों नही माँ ! जगत को निष्काम प्रेम की शिक्षा देने के लिए ही मेरा ये जन्म हुआ है …और निष्काम प्रेम बिना वैराग्य के सम्भव नही है माँ !
शचि देवि ने देखा निमाई मानेगा नही …ये मर जायेगा …उससे अच्छा है कि सन्यास ही ले ले ।
यही सोचकर शचिदेवि बोलीं …..तो ले लेना सन्यास पर आये दिन ये रोना धोना ठीक नही है निमाई ! तू मेरी बात समझ रहा है ना ! ये आए दिन क्रन्दन , ये आए दिन चीख पुकार …निमाई ! मेरे पुत्र , तू समझ, विष्णुप्रिया बहुत छोटी है अभी , उसके कोमल हृदय में कितना वज्राघात होता होगा जब तू नित्य ये आलाप करता है ..मैं सन्यास लूँगा ..मैं सन्यास लूँगा ।
निमाई को ये बात माता की अच्छी लगी ….ठीक है माँ ! तो मैं अब इस विषय को छेड़ूँगा ही नही …..मैं जब तक घर में हूँ एक अच्छा गृहस्थी बनकर रहूँगा । ये कहकर शचि देवि का हाथ पकड़ निमाई अपने घर की ओर चले थे ।
विष्णुप्रिया अकेली रो रही है …..निमाई घर आ गये …विष्णुप्रिया दौड़ती हुई गयी और निमाई के चरणों में गिर गयी …..मैं ही हूँ अपराधिन ! नाथ ! मैं विष पी लुंगी तो सब ठीक हो जायेगा ।
निमाई ने ये सुनते ही प्रिया को पकड़ कर अपने हृदय से लगा लिया ….उसके अश्रुओं को पोंछने लगे ….फिर थोड़ा मुस्कुराकर बोले …..मुस्कुराओगी नही ? बेचारी विष्णुप्रिया ….अब वो मुस्कुरा रही थी …उसने शचि माँ की ओर देखा ….उसे लगा कि माँ ने ही ऐसा कुछ समझाया है कि उसके प्राणबल्लभ अब सन्यास नहीं लेंगे । मुस्कुराओ प्रिया ! विष्णुप्रिया के हृदय में अब आनन्द सागर हिलोरें लेने लगा था ….वो अब प्रसन्नता से अपने प्रियतम की छाती से चिपक गयी थी ।
इस बेचारी को लग रहा था कि उसके प्राणधन अब सन्यास लेंगे नहीं ……
शेष कल –


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