!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी” !!
( जब हितसखी ने कहा -“अति ही अरुण तेरे नैंन री” )
गतांक से आगे –
कौन है वो जो इस “अद्वैत”को भी द्वैत बनाने में तुला है ?
कौन है वो जो इस आत्माराम में भी दूसरे के प्रति आकर्षण पैदा कर रहा है ?
कौन है वो जो इस पूर्णानन्द को भी अपूर्ण बनाने में लगा है ?
जी , इसका एक ही उत्तर है …..”हित सखी”।
साधकों ! परमात्मा की दो प्रकार की सृष्टि है ……एक जीवार्थ और एक आत्मार्थ ।
जीवार्थ – यानि जो जीव हैं उनके लिए परमात्मा की सृष्टि …और दूसरी है आत्मार्थ ……यानि अपने लिए सृष्टि । श्रीकृष्ण परब्रह्म हैं …वो अपने लिए , अपने आनन्द के लिए सृष्टि करते हैं तो सबसे प्रथम “श्रीवृन्दावन” को प्रकट करते हैं …भई ! आपको रस लेना है …उसी रस को रास बनाना है तो स्थान तो चाहिये …इसलिये वो प्रथम स्थान की सृष्टि करते हैं …..फिर उसके बाद वो अपनी आत्मा को प्रकट करते हैं …..वो श्रीराधा के रूप में होती हैं ….दोनों मिलते हैं …आनन्द और रस का मिलन हुआ , सुख बरसा , पर जो सोचा था वो नही हुआ । प्रेम सिन्धु में जो तरंगे नित नवीन उठती रहें ….ये कैसे हो ?
रास , ये एक में तो असम्भव ही है ….दो में मिलन हो सकता है ….किन्तु रास तो दो में भी सम्भव नही है …उसके लिए मण्डली चाहिये …तो क्या किया जाए ! तब ब्रह्म ने अपने ही भीतर विराजमान “हित तत्व” को आकार दिया …उन्हें प्रकट किया ।
“हित” का अर्थ प्रेम होता है ….हित – साधारण शब्दों में “भला” के लिए प्रयोग किया जाता है ….दूसरे की भलाई की भावना जो है – उसे “हित” कहते हैं ।
अब ये हिततत्व ऐसा प्रेमतत्व था …जो सर्वभावेन अपने प्रिय के ही विषय में , उनके सुख में , उनके आनन्द की व्यवस्था में ही लगा रहता था । इनके बिना सम्भव ही नही है कि वो ब्रह्म और उनकी आल्हादिनी अपनी लीला को प्रस्तुत कर पाते । इसलिये ब्रह्म ने अपने रस को बढ़ाने के लिए अपने से ही इस हिततत्व को प्रकट किया था । और यही हिततत्व “हित सखी” के रूप में प्रकट हो गयीं । ये ब्रह्म और आल्हादिनी की प्रेरयिता हैं ….इन पूर्णानन्द में भी आकर्षण प्रकट करने वाली कोई हैं तो वो हैं – हित सखी । जो नाना रंगों को , जो नाना रसों को दिखाकर प्रेरित करती हैं कि …मिलो , प्रेरित करती हैं कि विलसो…प्रेरित करती हैं कि तुम पूर्ण कहाँ हो ? उस पूर्णानन्द को विस्मृति करा देती हैं कि तुम अपूर्ण हो …ये हिततत्व का चमत्कार है ।
प्रेम में अपने आपको भूलना ये भी आवश्यक है । अपनी महिमा को अगर तुम समझते रहे कि मैं ये हूँ , कि मैं वो हूँ …तो प्रेम का पूर्ण होना सम्भव नही है …प्रेम में तो स्व माहात्म्य की विस्मृति आवश्यक है । ये हितसखी दोनों को ही दोनों के स्वरूप को भुलवा देती है …श्याम सुन्दर भूल जाते हैं कि मैं परब्रह्म हूँ और श्रीराधा भूल जाती हैं कि मैं सर्वोच्च सत्ता की परम शक्ति हूँ …ये विस्मृति प्रेम राज्य में आवश्यक है …ये विस्मृति नही होगी तो प्रेम का पुष्प खिलेगा नही । इसलिये इन युगल के विहार में “हित सखी” की प्रधानता है । ये विलास , रास , महारास ये सब हित सखी का ही सुन्दर प्रबन्ध है ….चलिये अब आनन्द लीजिये उस प्रेमराज्य का …जहां श्याम सुन्दर हैं उनकी प्रिया हैं और मध्य में हित सखी है …जो दोनों को मिलाना भी चाहती है और नही भी । ये अद्भुत रस केलि है । और स्मरण रहे – “यही सनातन है” ।
आज पागलबाबा बहुत हंस रहे हैं ….
ये हंसते हैं तो बालकों की तरह हंसते हैं …खिलखिलाते हुये हंसते हैं । इनके साथ राधा बाग भी हंस रहा है ….गौरांगी मेरी ओर देखती है …वो भी हंस रही थी ।
आज बड़े हंस रहे हैं बाबा ,आप तो ? शाश्वत गम्भीर है इसलिये ये प्रश्न भी उसी ने किया ।
बाबा के हंसते हुए अब अश्रु बहने लगे थे …बाबा सामान्य बात या संसारी बात में हंसते नही हैं …इनकी स्थिति बहुत ऊँची है …पर ये अपनी स्थिति किसी को दिखाते भी तो नही है ।
“डर गये …डर गये”…..बाबा स्वयं ही बोल उठे ।
कौन डरा ? क्यों डरा ? गौरांगी ने प्रश्न किया ।
“लालन डर गये”…..बाबा की आँखें मत्त हैं ।
लालन क्यों डर गये ? अब ये मेरा प्रश्न था ।
लालन दवे पाँव आरहे थे श्रीजी के पास …श्रीजी पर्यंक में लेटी थीं ….श्रीजी को डराने के लिए आरहे थे ….किन्तु जब उन्होंने श्रीराधा रानी की चोटी पर्यंक से नीचे लटकी हुई देखी ….तो साँप समझ कर डर गये …और भाग गये …बाहर जाकर उन्होंने दूसरी साँस ली । ये कहते हुए पागल बाबा फिर हंस रहे थे ।
ओह ! तो ये लीला राज्य में थे …..और इनके सामने ये लीला आज प्रकट हुयी थी …..
हम बाबा को निहार रहे थे …..गदगद भाव से उन्हें देख रहे थे …बाबा समझ गये कि अब ये लोग मुझे महिमामण्डित करेंगे …इनके मन में “मैं” आजाऊँगा । ये सोचकर बाबा तुरन्त गम्भीर हो गये …बोले …श्रीहित चौरासी जी कहाँ हैं ? आज तो आठवाँ पद है …गाओ ।
शाश्वत ने कहा ….बाबा ! अभी आधा घण्टा और है …लोग आजाएँ ।
बाबा बोले …लोग आते रहेंगे …हम तो श्रीजी को सुना रहे हैं ना ? ले आओ वाणी जी और गान करो …..बाबा की आज्ञा , तुरन्त वाणी जी लाई गयी ….और आठवें पद का गायन गौरांगी ने जैसे ही आरम्भ किया ….रसिक जन दौड़े दौड़े आने लगे …..और राधा बाग में श्रीहित चौरासी जी का ये पद गूंज उठा । आठवाँ पद ।
अति ही अरुण तेरे नैंन नलिन री !
आलस जुत इतरात रँगमगे , भये निशि जागर मषिन मलिन री ।।
सिथिल पलक में उठत गोलक गति , विधयौ मोहन मृग सकत चलि न री ।।
श्रीहित हरिवंश हंस कल गामिनी , सम्भ्रम देत भ्रमरनि अलिन री ।8 ।
अति ही अरुण तेरे ...............
( साधकों ! ये लीलाएं “कुछ समझने” के लिए नही हैं , कुछ ज्ञान, सन्देश आदि के लिए भी नही हैं ..ये सिर्फ ध्यान के लिए हैं ..चिन्तन के लिए हैं , उस लीला राज्य में आपकी गति हो इसलिए हैं )
अब बाबा सबको ध्यान कराते हैं ……….
।। ध्यान ।।
सुन्दर चिद श्रीवृन्दावन है …इसकी शोभा भी हर क्षण नवीनता को प्राप्त होती रहती है ….यमुना जी का आकार कंगन का है …यमुना इस श्रीधाम की परिक्रमा लगाती हैं ….नवीन नवीन कुंजें हैं यहाँ …जब जब सखियों की इच्छा होती है जैसे कुँज की , वैसा ही कुँज प्रकट हो जाता है ।
लताओं की डाली पुष्पों के भार से झुकी हुई हैं …उन लताओं के पत्ते चमकीले हैं …उनमें चमक है …उन्हीं लताओं में पक्षी गण बैठे रहते हैं …ये भी मधुर मधुर गान सुना रहे हैं प्रिया प्रियतम को ।
कमल दल के दिव्य आसन में युगल विराजे हैं ….दोनों में खूब बातें हुईं …कलह भी हुआ …कण्ठ में विराजित श्याम सुन्दर की मालावलि भी तोड़ दी प्रिया ने ।
पर अन्त में मिल गये ….श्याम सुन्दर देख रहे थे प्रिया की ओर …तभी प्रिया ने अपने नयनों को थोड़ा ( अर्ध )मूँद लिया …फिर मुस्कुराने लगीं …श्याम सुन्दर प्रिया की इस छवि पर मुग्ध हो गये …और प्रिया से फिर कहा …एक बार और …प्रिया फिर अपने नयनों को आधा मूँद कर मुस्कुरा दीं ….बस क्या था ! श्याम सुन्दर अपनी प्रिया की इस प्रेमपूर्ण झाँकी को देखकर मूर्छित ही हो गये ।
प्रिया अपने प्रियतम को उठाने ही जा रही थीं कि अवसर देखकर हितसखी कुँज में चली आई ।
श्रीराधा जी अपनी सखी को देखती हैं …वो कुछ कहतीं कि सखी ही श्रीराधा रानी के निकट जाकर बैठ जाती है ….नयनों के संकेत से पूछती हैं …हितू ! क्या है ? सखी श्रीजी का हाथ छूती है बड़े प्रेम से …फिर मन्द मुस्कुराती हुई कहती है ….”शिकारी ने आखिर वाण चला ही दिया , बेचारा मृग मूर्छित हो गया “ ये कहते सखी हंसती है …श्रीजी श्याम सुन्दर की ओर देख रही हैं ….फिर सखी की ओर देखती हैं तो सखी कहती है ……..
( इस आठवें पद में सखी का श्रीजी के प्रति शुद्ध सख्य भाव है )
अरी राधे ! तेरे नयन तो अरुण नलिनी के समान हैं …..लालिमा लिए कमल के समान ।
क्यों ? लाल क्यों हो रहे हैं तुम्हारे नेत्र ? और अलसाये हुये से भी हैं ….काजल भी पुछ गया हैं ।
“देखो ! यहाँ फैल गया है”……अपने हाथ से काजल पोंछते हुए सखी कहती है ।
श्रीराधा जी कुछ नही कहतीं …वो कुछ शरमा सी गयीं हैं ।
मैं मैं समझ गयी ……सखी आह भरते हुए कहती है ….
बोल , बोल क्या समझी ? श्रीराधारानी पूछती हैं ।
यही कि रात भर के जागरण ने आपके नेत्र अरुण कर दिये हैं ….और ये नेत्र तो ऐसे लग रहे हैं ….
सखी इतना बोलकर फिर चुप हो जाती है …तो श्रीराधा जी उससे तुरन्त पूछती हैं ….
मेरे नेत्र कैसे लग रहे हैं ?
तो सखी हंसती है ..ताली बजाकर हंसते हुए कहती …ऐसे लग रहे हैं जैसे रात्रि में किसी ने इन्हें रँग दिया हो…..उफ़ ! रँगे हुए हैं ये नयन । और हाँ प्यारी जू ! ये रंगने के कारण इतरा भी रहे हैं ।
श्रीराधा जी कुछ नही बोलतीं और शरमाते हुए नयनों को झुका लेती हैं ।
हाँ , सच कह रही हूँ…..ये आपके नयन इतरा रहे हैं …..और इतरायें भी क्यों न …सखी कहती है – मोहन रूपी मृग का इन्होंने शिकार किया है और देखो , मूर्छित कर दिया । तभी थक गयी हैं आपकी पलकें ..इसलिए झुकी हुयी हैं …थकान हो गयी शिकार करते हुए…. इसलिये ये नयन लाल हो रहे हैं …सखी गदगद होकर कहती है …..तभी कुँज के भ्रमर नाना पुष्पों को छोड़कर श्रीजी के ऊपर मँडराने लगते हैं …..तो सखी हंसते हुये कहती है ….लो , इन भ्रमरों को भी भ्रम हो गया है की ये नयन नही कमल ही हैं …और प्रातः के समय का खिला कमल । आहा ! हे प्यारी जू ! अब उठाओ इस मृग को ….और अपने हृदय से रस पान का कराओ ..नही तो ये मृग तो गया ।
इतना कहकर खिलखिलाकर सखी हंस पड़ी …
श्रीराधा जी उस अपनी प्यारी सखी को हृदय से लगा लेती हैं ।
इतना ही बोले पागल बाबा आज । इसके आगे भी बोलने वाले थे पर इनकी भी वाणी पंगु हो गयी थी …क्यों की ये दर्शन कर रहे थे प्रिया प्रियतम के , और बोल रहे थे ।
फिर गौरांगी ने इसी श्रीहित चौरासी जी के आठवें पद का गायन किया ….
“अति ही अरुण तेरे नैंन नलिन री …….”
आगे की चर्चा कल –
Author: admin
Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877