!! राधा बाग में – “श्रीहित चौरासी” !!
( रस जगत – “मदन मथत घन निकुँज खेलत हरि” )
गतांक से आगे –
“क्या बनूँ ? “
किन्ही ऊँचे रसिक प्रेमी के पद की रज बन जा ।
उनके पग को चूम ले । उसी से तेरा हृदय प्रेम प्रकाश से प्रकाशित हो उठेगा ।
“क्या करूँ ? “
किन्ही ऊँचे रसिक प्रेमी के चरण रज को अपनी आँखों का अंजन बना ले ….भैया ! तेरी दिव्य दृष्टि खुल जाएगी । फिर तो सर्वत्र युगलवर ही मुस्कुराते दिखाई देंगे ।
“ किससे मिलूँ ? “
सबसे बढ़िया …अपने आपको यहाँ की रज से मिला दे …श्रीवृन्दावन की रज में मिल जा ।
अहंकार बाधक है ना ! हाँ, बहुत बड़ी बाधा है ….ये तुझे प्रेम जगत में जाने ही नही देगी …इसलिये तू अपने को रज में मिला दे , हाँ , यहाँ के रज में ….तुझे स्पष्ट समझ में आजाएगा कि तेरे अहंकार का लय हो चुका है । तेरे अश्रु बहने लगेंगे ….तुझे रोने की इच्छा होगी …तू रोयेगा ….आहा ! ये रुदन , ये अश्रु तेरे जन्म-जन्मों के पाप पुण्य सबको बहा देगी …तुझे प्रेम का राज्य दिखाई देने लगेगा । तुझे अपने जो लग रहे थे आज तक , वो सब पराये लगेंगे और अपने तो “युगल किशोर” ही लगेंगे ।
निकुँज की सखियाँ ही अपनी सहेली लगेंगी ।
यहाँ का जगत जल उठेगा …राख बन जाएगा ….किन्तु इस जगत के हृदय में जलते ही ….दूसरा जगत हमें दिखाई देगा जो दिव्य जगत होगा । “रस जगत” ।
पागलबाबा ने उस नव युवक को ये सब रस रहस्य समझाया था ।
बरसाना के राधा बाग में इन दिनों वर्षा बहुत हो रही है …किन्तु रसिकों का आनन्द इससे कम होने का नाम नही ले रहा …वर्षा में भी रसिकजन झूम रहे हैं …भींग रहे हैं ।
आज का पद कौन सा है …..कौन सा गाऊँ ? वो युवक जुगलकिशोर शरण गौरांगी से पूछ रहा था तो बाबा ने कहा …आज गौरांगी गायेगी …तुम उसका गायन सुनो , और पीछे गायन करो ।
उसने सिर झुका कर स्वीकार किया ।
वीणा में गौरांगी ने गायन किया था …..
आज श्रीहित चौरासी का पैंसठवाँ पद था । गायन अत्यन्त मधुर ।
मदन मथन घन निकुँज खेलत हरि , राका रुचिर शरद रजनी ।
यमुना पुलिन तट सुरतरु के निकट , रचित रास चलि मिलि सजनी ।।
बाजत मृदु मृदंग नाचत सबै सुधंग , तैं न श्रवण सुन्यौ बैनु बजनी ।
श्रीहित हरिवंश प्रभु राधिका रमन , मोकौं भावै माई जगत भगत भजनी । 65 ।
मदन मथन घन निकुँज ……….
पद गायन पश्चात् बड़े प्रेम से बाबा ने ध्यान लगवाया ।
!! ध्यान !!
शरद ऋतु है …श्रीवृन्दावन का शीतल वातावरण है ….पवन बह रहे हैं । पुष्प लताओं में झूल रहे हैं ….सरोवर में कमल खिले हैं …चन्द्रमा की पूर्णता है …..चन्द्रमा की चाँदनी चारों ओर बिखरी हुयी है ….चमक रहे हैं पत्ते भी । यमुना की रेत चमक रही है ।
युगलवर रास कर रहे हैं …मृदु हास कर रहे हैं । किन्तु श्याम सुन्दर का ध्यान अब श्रीजी से किंचित हटा …..उनका ध्यान गया एक मोर पर …..क्यों की श्रीजी ने उस मोर को “मोर” कह दिया था यानि “मेरा” । आहा ! मेरी प्यारी ने इसे मोर कहा । उसे देखने लग गये ….श्रीजी को अच्छा नही लगा …उनकी ओर श्याम सुन्दर का ध्यान नही ….तो बस , वो वहाँ से चली गयीं ।
श्याम सुन्दर का ध्यान मोर से हटा तो उन्होंने देखा प्यारी तो नही हैं ….ओह ! दुःख छा गया मन में ….वो बैठ गये उसी कल्पवृक्ष के नीचे …..विलाप करने लगे ।
हित सखी …..जो इन दोनों की सन्धिनी है …उससे ये सब देखा नही गया । वो फिर प्रिया जी के पास गयी , प्रिया जी ने हित सखी को देखा तो समझ गयीं । क्या बात है , क्यों आयी है तू ?
प्रिया जी के इस प्रश्न का उत्तर हित सखी ऐसे देती है ।
हे प्रिया जू !
देखो तो सही , शरद पूर्णिमा की कितनी सुन्दर रात्रि है । काम के मन को मथने वाले श्याम सुन्दर निकुँज में खेल रहे हैं ….अकेले रास खेल रहे हैं । चलो ना ! हित सखी प्रार्थना के स्वर में कहती है । आपके प्रीतम ने वहाँ सुन्दर कुँज बनाया है …आपने देखा ही है ….सब मिलकर चलिए ना , वहाँ पर । श्रीराधा रानी कुछ नही कहतीं ….तो हित सखी कुछ देर बाद फिर प्रार्थना करने लगती है । प्यारी जू ! वहाँ नृत्य भी हो रहा है …..प्रलोभन दिखा रही है हित । वहाँ अन्य सखी गण सुधंग नृत्य प्रस्तुत कर रही हैं ….किन्तु आपके बिना सब अधूरा है । मृदंग भी बज रहा है ..बाँसुरी भी बज रही है ….
हाँ , तो सब हो ही रहा है ना , फिर मेरे जाने की आवश्यकता ही क्या है ?
मानौं श्रीराधारानी हित सखी से कहती हैं ।
तो हित सखी कहती है – प्यारी जू ! आप दोनों ही इस “रस जगत” के अधिपति हो …किन्तु मुझे एक बात अच्छी नही लगती ।
क्या बात अच्छी नही लगती सखी ? श्रीराधा जी पूछती हैं ।
ये अच्छी नही लगती कि रस जगत तो अपने भक्तों का आदर करता है ना ? फिर आप अपने भक्त को कैसे दूर कर सकती हो ?
मैंने किस भक्त को दूर किया ? भोली श्रीजी पूछती हैं ।
क्यों , श्याम सुन्दर आपके भक्त नही हैं क्या ? बस आपकी ही भक्ति में तो डूबे रहते हैं । अभी भी जो बाँसुरी बजा रहे हैं वो, आपकी स्तुति का ही तो गान है , जो मृदंग आदि बज रहे हैं वो सब आपका कीर्तन ही तो है । प्यारी जू ! भक्त ही नही अनन्य भक्त हैं श्याम सुन्दर आपके । ये सुनते ही प्रिया जी मुस्कुरा जाती हैं …और हित सखी को अपना हाथ देती हैं …हित सखी प्रसन्न होकर उनका हाथ पकड़ती है …..और दोनों रास मण्डल की ओर चल देती हैं ।
पागल बाबा आनंदित हैं …रसिक समाज गदगद है …वो युवक नेत्रों से अश्रु प्रवाहित कर रहा है ।
गौरांगी फिर इसी पद का गायन करती है ।
सब इसके पीछे गाने लगते हैं । वो युवक धीरे धीरे सुरीला हो रहा है ।
“मदन मथन घन निकुँज खेलत हरि”
आगे की चर्चा अब कल –
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