!! उद्धव प्रसंग !!
{ “भ्रमर गीत” – एक उच्च प्रेमगीत }
भाग-15
मधुप कितव बन्धो, मा स्पृशांघिं सपत्न्या…।
(श्रीमद्भागवत)
निभृत निकुञ्ज में उद्धव खड़े हैं… ।
इनको पता भी नही चल रहा कि…गोपियों के प्रेम में इनका ज्ञान, इनका योग… सब बहता जा रहा था… ।
क्या सोचकर आये थे मथुरा से ये उद्धव… कि गोपियों को ज्ञान मन्त्र की दीक्षा दूंगा !… पर… ।
कितने प्रेम से नन्दनन्दन ने विदा किया था मुझे मथुरा से… मेरा हाथ पकड़ा था…और सजल नेत्रों से कहा था…उद्धव ! मेरी गोपियों को सम्भालना…उन्हें समझाना…।
और मैं ? अहंकार में भर कर बोला था…दो घड़ी में ही समझा कर… ज्ञान का उपदेश करके लौट आऊंगा ।
दो घड़ी ?…
आज दस दिन होने को आगये इस वृन्दावन में आये…पर अब लौट चलूँ ।
इनको क्या ज्ञान दूंगा मैं… पर अब डर लगने लगा है कि… कहीं मैं अपना ज्ञान न भूल जाऊँ…!
चलूँ ! मैं वापस मथुरा… उद्धव जी विचार करते हैं ।
सामने श्री राधा रानी मूर्छित अवस्था में पड़ीं हैं… उनके चारों ओर गोपियां… उनकी प्यारी सखियाँ…कोई पंखा झल रही हैं… तो कोई जल का छींटा श्री राधा के मुँह पर दे रही हैं ।
उद्धव वापस चलने लगे… मथुरा की ओर ।
पर जाते जाते सोचा श्री राधिका के चरणों में प्रणाम तो कर लूँ ।
ये मेरे इष्ट की आल्हादिनी हैं…
दूर से ही साष्टांग प्रणाम किया उद्धव ने…श्री राधा के चरणों में ।
तुम कहाँ जा रहे हो ? श्री राधा ने पूछा ।
मथुरा… वापस… कृष्ण ने उत्तर दिया ।
पर तुम यहाँ छुप छुप के क्यों आते हो ?
कृष्ण ने कोई उत्तर नही दिया ।
बताओ… क्यों आते हो छुपके ?
कृष्ण बिना कुछ बोले भाग गए… ।
ओह ! तुम भाग रहे हो… पर अब मत आना… कभी मत आना ।
हाँ… मैं सब समझती हूँ…तुम उन मथुरा की नागरियों से डरते हो !
तुम्हें चाहने वालीं, तुम्हारी प्रेयसि मथुरा में भी हैं… मैं जानती हूँ ।
इसलिये तो तुम छुप छुप के आते हो… मुझ से मिलने ।
पर मुझे इस तरह से मिलना प्रिय नही है… ये राधा तुम्हारी है तो तुम भी इसी के रहो… मुझे ये सब कपटपूर्ण व्यवहार प्रिय नही ।
आँखें बन्द हैं… श्री राधा की… और भाव समाधि में ही ये सब देख रही हैं… बुदबुदा रही हैं ।
प्रेम समुद्र में… एक तरंग और जुड़ गया आज…
“मान”… श्री राधा “मानिनी” हो गयीं ।
नही मानें ना… तुम… चले ही गए ना… मथुरा ।
श्री राधा विरह में लंबी लंबी गर्म स्वांस छोड़ने लगी थीं… ।
तभी इधर सखियों ने देखा… उद्धव साष्टांग लेटे हुए हैं…
हे राधे ! उद्धव आपके चरणों में प्रणाम कर रहे हैं ।
सखियों ने कहा ।
हा हा हा हा हा हा हा… श्री राधा भाव समाधि में ही हँसने लगीं थीं ।
बड़े चालाक हो…कृष्ण ! स्वयं चले गए…और इस काले भौंरे को मुझे मनाने के लिए मथुरा से भेज दिया… ।
हट्ट !… हट्… मेरे पैर को न छू ।
सच में ही उसी समय… एक भौंरा उड़कर श्री राधा के चरणों को छूने लगा था… और सामने उद्धव प्रणाम कर रहे हैं ।
श्री राधा… अपने पैरों को हटाती हैं… ।
पर भौंरा है कि मानता ही नही ।
तब श्री राधा ने जो जो उस भौरें से कहा…वो प्रेम के हर भाव का स्पर्श करता है…प्रेम के साधकों के लिए… ये अद्भुत है ।
अरे ! कपटी के यार !… हट् ! जा मेरे सामने से जा ।
अरे ! मेरे चेहरे को छू रहा है… तेरी हिम्मत कैसे हुयी !
अच्छा ! लगता है… तूने ये सब अपने मित्र से ही सीखा है… सिखा कर ही भेजा होगा उसने तुझे… वो भी ऐसे ही करता था… कभी पैरों में गिरता था… तो कभी मेरे मुख को… या ठोड़ी को पकड़ कर बड़े प्यार से हिलाता था… मेरी प्यारी ! मेरी जीवन ! मेरी प्राण सर्वस्व !
यही कहते हुए वो थकता नही था… ।
पर अब नही मानूँगी ये सब मैं… क्यों कि मैं समझ गयी हूँ… वो कपटी हैं… और तू उस कपटी का मित्र !…
हट् ! मुझे मत छू ।
क्यों कि तू भी काला है… और वो भी काला ही था ।
कपटी तुम दोनों ही हो… तू भी किसी फूल में बैठता है ना… तो रस को चूस कर… उस फूल को छोड़ देता है… ।
इतना भी नही सोचता… कि बेचारे फूल पर क्या गुजरती होगी ।
कृष्ण भी ऐसा ही है… हम से प्रेम किया… खूब प्रेम किया… पर एक दिन हम सबको छोड़ कर चला गया… कपटी !
अरे ! अरे ! भौंरे ! इधर आ ! इधर आ !
राधा जी ने भौंरे से कहा ।
उद्धव जी प्रणाम करके वापस मथुरा लौटने वाले थे… पर इस प्रेम नगरी से अब निकल पाना क्या इतना आसान है ?
जब श्री राधा की दशा देखी… तो उद्धव भी स्तब्ध हो गए ।
उद्धव को लगा था… प्रेम का रंग देख तो लिया… ! प्रेम की छटा देख तो ली !
पर नही… ये तो “प्रेम पाठशाला” की प्रवेशिका ही थी… जो उद्धव ने अब तक देखा था… कक्षा 1… तो अब शुरू हो रही थी ।
उद्धव फिर रुक गए… और श्री राधा की भाव स्थित को देखकर रोमांच का अनुभव कर रहे थे… ।
भौंरे रूक !… इधर आ !
राधा फिर भौंरे को अपने पास बुलाने लगीं ।
ये तेरे मुँह में क्या लगा है रे ?
बता ? राधा ने भौंरे को अपने पास बुला कर देखा… और पूछा ।
ये पीला पीला पराग जैसा क्या है ?
ओह !… अब समझी मैं…
ये पराग वराग कुछ नही है… ये केसर है… जो तेरे मुँह में लगा है ।
अरे ! मधुप !… कम से कम घर से बाहर निकला कर तो मुँह तो पोंछ लिया कर… आ मैं तेरा मुँह पोंछ देती हूँ ।
भौंरा जब श्री राधा के पास में आया…तब श्री राधा ने एकाएक कहा… ना… जा… दूर रह मुझ से… मत आ मेरे पास… और अब तो मुझे छूना भी मत… मेरे पैर को भी मत छू… जा !
ये मेरी सौत का केसर अपने मुँह में लगा कर घूम रहा है… तुझे शर्म नही आती !
मैं सब जानती हूँ… मुझे सब पता है ।
मथुरा की वो नारियाँ…कृष्ण को आकर्षित करने के लिए…अपने वक्ष में केसर लगाती होंगी ।
और वह मधुपति कृष्ण… अपने गले में… घुटनों तक लटकती हुयी वनमाला पहन कर अपनी प्रियाओं से मिलने जाता होगा… वक्ष से मसली हुयी वनमाला के फूलों में तू ही तो बैठता होगा ना… ।
बस सीधे हमारी सौत के वक्ष का केसर वनमाला से होते हुए… तेरे मुँह में लग गया है… और हमें चिढाने के लिए… बिना मुँह पोंछे यहीं चला आया… हट् !… जा हमारे पास से ।
अरे ! तू तो अपने स्वामी की तरह ढीढ है रे !
मना कर रही हूँ… मेरे पैर मत छू…इन पैरों की महिमा को तू क्या जानें ! तेरे स्वामी अपवित्र कृष्ण ने…… अपने हाथों से इन्हें छू कर अपने आपको परम पवित्र किया है… ।
ऐसे पैरों को तू छू रहा है… ? मत छू ! जा !
इतना कहकर श्री राधा आँसू बहाते हुए… फिर हँसने लगीं ।
उद्धव की बुद्धि अब यहाँ से अवरुद्ध होने लग गयी थी ।
शेष चर्चा कल…
मैं यमुना जी से ये सब लिख कर लौट रहा था…।
हमारे अंदर पाश्चात्य की कुछ छूछी नैतिकता के संस्कार बीज पड़े थे ।
ये संस्कार थे… हर “कृष्णलीला” को अध्यात्म या सामाजिक दृष्टि से देखने के संस्कार… ।
क्यों ? क्या जो जैसा प्रसंग है… उसे उसी रूप से नही देखा जा सकता ?… ओह ! हमारे संस्कार आड़े आजाते हैं…
“ये गलत है… ये गलत है “
पर आज उद्धव के साथ साथ मैंने भी अपने समस्त संस्कारों को यमुना में बहा दिया…प्रेम प्रकट तभी होगा…जब आप पूर्वाग्रहों से मुक्त होंगे ।
सब बाजे हृदय बजैं, प्रेम पखावज तार ।
मन्दिर ढूँढत को फिरे, वहीं बजावनहार ।।


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