!! एक अद्भुत काव्य – “प्रेम पत्तनम्” !!
( प्रेम नगर 17 – “नगर में ‘अद्वैत’ है” )
गतांक से आगे –
यत्र सह: सहस्यसंज्ञावेवाद्वैतपरिनिष्ठितौ शंकरशिष्यौ ।
यत्राभिमता प्रचुरद्वचारमध्वमता ऊष्मकभामादिदर्शननामानस्तदंतेवासिन: ।।
अर्थ – श्रीशंकराचार्य के दो शिष्य यहाँ स्थाई रूप से निवास करते हैं । उन शिष्यों के नाम हैं – सहा और सहस्य । इन दोनों के कारण ही यहाँ ऐक्य बना रहता है ।
माध्व मत का यहाँ प्रचार नही है ….इनके शिष्य ऊष्मक और भान ये दो शिष्य यहाँ आते तो हैं किन्तु चले जाते हैं ।
प्रेम की सेज सजाकर दोनों प्रियाप्रियतम एक हो जाते हैं ….एक ही बने रहते हैं । यहाँ इतनी भी दूरी सह्य नही है …..साँसों की धड़कन भी लगता है रुक जाये …यहाँ तो साँसें भी एक हो जाती हैं । इसे ही कहते हैं अद्वैत । दो नही है ।
हे रसिकों ! आनन्द लो इस रस का ।
“लुटै आत्म सरबसु उमँगै , तहँ पयोधि अपार ।
जल, थल, नभ, मधुमय ह्वै जावै , झरै सुधाकर सार।।”
यह सरस विहार है …ये नित्य विहार है …यहाँ अद्वैत घटता है ….अद्वैत ही है यहाँ । अजी तुम्हें दो लग रहे हैं …द्वैत तो यहाँ है ही नही ।
“दोनों मिल एकहि भए श्रीराधाबल्लभ लाल”
यहाँ लिखा है ……श्रीशंकराचार्य के दो शिष्य यहाँ स्थाई रूप से निवास करते हैं …..किन्तु माध्वाचार्य के शिष्य की यहाँ चलती नही है । ये बड़ा अद्भुत रूपक प्रस्तुत किया गया है ….शिष्य कहने का अर्थ है ..सिद्धांत …आचार्य श्रीशंकर का सिद्धांत है अद्वैत …..यानि प्रेमनगर में अद्वैत सिद्धांत का ही बोलबाला है ….इसका अर्थ ये हुआ कि यहाँ अद्वैत ही है । और आगे लिखा – माध्वाचार्य के शिष्य यहाँ आते तो हैं किन्तु अपने सिद्धांत का प्रचार नही कर पाते ..और प्रेमनगर से तुरन्त चले जाते हैं । माध्वाचार्य का सिद्धांत है …द्वैत । यानि इस “प्रेम नगर” में द्वैत नही है । अद्भुत लिखा है “प्रेम पत्तनम्” के लेखक ने …अब आगे सुनो – कौन से दो शिष्य हैं शंकराचार्य के जो यहाँ निवास करते हैं ? स्थाई रूप से निवास करते हैं ? उनका नाम बताया है …..”सहा और सहस्य” । सहा का अर्थ होता है ..मार्गशीर्ष महीना और सहस्य का अर्थ है पौष का महीना । प्रेमी और प्रेयसी इस महीने में एक होकर ही रहते हैं …अलग अलग रह नही सकते …इसलिये ये महीना अद्वैत का है ….दो एक हो जाते हैं ।
प्रेमनगर में ये दो महीना स्थाई हैं ….और यही दो महीना दो प्रेमियों को एक बनाकर रखते हैं ।
“तू मति सोवै , री परी , कहौं मैं टेरी ।
सजि शुभ भूषण बसन , अब पिया मिलन की बेरी ।”
अरी पगली ! अभी तक सोई पड़ी है ? उठ , मत सो …देख तेरे पिया तेरे द्वार पर आगये हैं …सज , शृंगार कर , अब अपने पिया से एक हो जा , यही तो तेरा सुहाग है ….सौभाग्य है । यही तेरी मोक्ष-मुक्ति है ।
“पिया मिलन की बेरि , छाँड़ि अजहूँ लरिकापन ।
सूधे दृग सौं हेरि , फेरि मुख ना , दै तन मन ।।”
ये समय बर्बाद करने का नही है …तू उठ और जा …पिया से मिल …ये लड़कपन छोड़ …कब तक इस तरह प्रमाद में रहेगी पगली ! देख उसे …सीधे देख ….और अपना तन मन उसे दे दे ।
बरनै “दीन दयाल” छमैगो , चूकन हूँ पति ।
जागी हिय सौं लागी , सुहागिन सोवै तू मति ।।
मिल उससे ….मिलते-खेलते अगर तुझ से गलती हो तो होने दे …वो दीन दयाल है ….तेरी हर गलती को क्षमा करेगा । उसके हृदय से लग जा …उसके हर अंग से लग जा …उसके वक्ष में प्रहार कर ….खेल , तू आज सुहागन बन ही जा ….मत सो , जाग जा ….अभी भी समय है ।
ये अद्भुत प्रेमनगर है ….यहाँ यही सिखाया जाता है …यहाँ की यही पढ़ाई है ।
जैसे श्रीआचार्य शंकर अपने शिष्यों को अद्वैत की शिक्षा देते हैं …इस प्रेमनगर में भी अद्वैत की ही शिक्षा दी जाती है …यहाँ यही मत है ..यहाँ यही सिद्धांत है ।
द्वैत नही है यहाँ ….हाँ माध्वाचार्य के दो शिष्य हैं …..वो आते हैं प्रेमनगर में पर ठहर नही पाते क्यों की …यहाँ के लोग उन्हें पसंद नही करते । चलिए सुनिये उनके नाम ….ऊष्मक और भाम ….ऊष्मक यानि गर्मी , ये नाम ज्येष्ठ महीना का है, और भाम , वैशाख । ये महीना हैं जो प्रेमियों में द्वैत का संचार करते हैं …गर्मी में प्रेमी अलग हो जाते हैं ….इसलिये प्रेमनगर में इन्हें पसंद नही किया जाता ।
एक बात यहाँ समझने की है …कि गर्मी ( द्वैत ) रहती ही नही है ये नही कहा गया है ।
“महावाणी जी” में लिखा है …शरद और वसन्त ये नित्य निकुँज में रहते हैं …किन्तु ग्रीष्म का भी कभी कभी आगमन होता है ….कब होता है …ग्रीष्म उस समय आता है …जब श्रीराधारानी मान कर बैठती हैं ….रूठ जाती हैं ।
द्वैत की आवश्यकता ही नही है ऐसा आप कह नही सकते ….हाँ , स्थाई भले ही अद्वैत हो …किन्तु द्वैत से प्रेम पुष्ट होता है । रूठना , मान कर बैठना , ये द्वैत है । ये नही होगा तो रस की वृद्धि नही होगी । इसलिये महावाणीकार लिखते हैं …द्वैत भी आवश्यक है और अद्वैत भी ।
ये री या जोरी पर तोरि तृण ड़ारियें ।
रोम रोम निज प्रति होय दृग थोक थिर ,
तोऊ या छबिहिं , अवलोकत न हारियें ।।
लगत कैसी लसनि गसनि अँग अंग की कसनि ,
भुज की बसनि , उर ते नही टारियें ।।
(श्री)हरिप्रिया प्रतिदिना विपुल पुलकनि प्रभादेखि ,
अनमेखि तन मन , धन जू वारियें ।।
जय हो….क्या सुन्दर छवि है ….इस छवि पर तो तृण तोड़ डालो । सखी ! हमारे रोम रोम में बिना पलक के अगर नयन हों और उनसे हम इनको देखें तो भी तृप्त न हों ….सखी ! ये दोनों कैसे परस्पर गाढ़ आलिंगन में मग्न हैं ….समझ ही नही आरहा कौन लाल हैं और कौन ललना ! इस समय इनके अंगों में कैसा रोमांच हो रहा है …देखो तो । आहा ! लगता है इस प्रेमपूर्ण छवि पर हम अपना तन मन सब वार दें ।
अब क्या कहोगे ? ये प्रेम की ऊँचाई नही है ….जहां द्वैत है ही नही …बस दो एक हो गये हैं …होना ही है ….अद्वैत ही प्रेम का लक्ष्य है । प्रेम अद्वैत तक पहुँचा कर ही दम लेता है ।
“रैन दिनहिं छिन छिनहिं प्रति , परनि प्रेम रस हेलि ।
जुगल कुंवर वर की अहो ! अलबेली यह केलि ।।”
जय हो इन अलबेले रसिक रसिकनी की …और जय ही इस प्रेमनगर की …..
शेष कल –
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