महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (010)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
रास की भूमिका एवं रास का संकल्प -भगवानपि०-
तो आओ लीला प्रारम्भ कर देते हैं-
भगवानपि ता रात्री शरदोत्फुल्लमल्लिका: ।
वीक्ष्य रन्तु मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रिताः ।।
भगवान माने बहुत मीठे। भगवान शब्द का अर्थ है मीठा। गुलाबजामुन, रसगुल्ला जैसा मीठा नहीं। यह महापुरुष होने पर भी, पुरुषोत्तम होने पर भी, दूर से देखने में लगे कि कोई लड़की हैं। अब आपको इस शब्द से यह अर्थ न निकलता हो तो हमें खोलकर बताना होगा। भगवान शब्द का अर्थ ही यह है कि हो लड़का और दिखे लड़की। संस्कृत का ‘भग’ शब्द आपको मालूम हो तो इसका अर्थ ठीक-ठीक समझ जाएंगे। भग क्या है? जो इनकी मीठी आवाज सुन ले वह इन पर लट्टू’; जो इनको देखे तो सो लट्टू, जो लख ले सो लट्टू; जो सूँघ ले सो लट्टू- ‘पिबन्त्य इन चक्षुर्भ्यां लिहन्त्य इव जिह्वय’ यह वर्णन आया है। आँखों से कृष्ण को पीती हैं; ‘पिवन्त्य इव चक्षुभर्यां लिहन्त्य इव जिह्या’- माने यह कृष्ण बहुत मीठा है, माधुर्य सारसर्वस्व है। ‘भगवानपि’- भगवान होने पर भी ‘रन्तुं मनश्चक्रे’- उसके मन में विहार का संकल्प उदय हुआ। ‘भगवानपि’ यह वैसे ही हैं जैसे गीता में-
अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन् ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय संभवाम्यात्ममायया ।।
‘अजोऽपि सन् अव्ययात्मा’ और ‘अजोऽपि सन् सम्भवामि’- मैं अजन्मा होकर भी जन्म लेता हूँ। और यहाँ है कि भगवान होकर भी विहार का संकल्प लेता हूँ। दोनों को मिलाओ तो जैसे अजन्मा का जन्म सम्भावित है इसी प्रकार भगवान में विहार का संकल्प यद्यपि असम्भावित है तथापि भक्तवात्सल्य- ‘मुख्यं तु तस्य कारुण्यम्’ के कारण सम्भावत है। कहा- नहीं- भाई! राधिका के प्रेम का इतना प्रबल आकर्षण है कि- ‘भगवानपि रन्तुं मनश्चके’ उनकी भगवत्ता में कोई व्यवधान नहीं होता है लेकिन राधिका के प्रेम ने खींच लिया।
आराधिका राधिका हैं न! बोले- भगवान का डर तो लगता नहीं कि ब्रह्म के सिवाय और कुछ हो जाएंगे। भगवान प्रेम परवश हो जाते हैं। इसमें फर्क क्या है? जो सोचता है कि यदि हम प्रेम-परवश हो जाएंगे तो हमारे ब्रह्मत्व की हानि हो जाएगी, वह तो अपने को बचाकर रखेगा। वह अपने को सम्हालेगा कि कहीं हम जीव न हो जाएं। ये नकली ब्रह्म जितने होते हैं उनको जीव होने का डर लगा रहता है।*
ये श्रीकृष्ण असली ब्रह्म हैं। यह जानता है कि हम गोपियों के अधीन हो जाएं, परवश हो जायें तो क्या परवश होने से हमारे ब्रह्मत्व की हानि हो जाएगी? कहा- नहीं यह तो पूर्ण स्वतंत्र है। कोई क्षति होने वाली नहीं है।
‘भगवानपि रन्तुं मनश्च के’। अब ‘अपि’ शब्द का सुन्दर भाव श्रीधर स्वामी ने बताया। क्या? कि गोपियाँ चाहती थीं कि श्रीकृष्ण हमारे साथ क्रीड़ा करें- यह तो चीरहरण के प्रसंग में ही जाहिर हो गया था।
नन्दगोपसुतं देवि पतिं मे कुरु ते नमः ।
गोपियों के मन में तो था ही लेकिन अब श्रीकृष्ण के मन में आया- ‘भगवान अपि रन्तुं मनश्चक्रे’ में ‘आपि’ का यही भाव है। और श्रीधर स्वामी का एक भाव और काम क मन में भी था कि ये संन्यासी लोग जो हैं उन्होंने काम का बहुत तिरस्कार किया है। तो तिरस्कृत होकर वह यह सोचने लगा कि भगवान हमको स्वीकार करें तो इनके तिरस्कार का जो हमारा दुःख है वह मिट जायेगा।
कामस्तु मनश्चक्रे एव भगवानपि मनश्चक्रे।
काम तो चाहता ही था। इसी को श्रीधर स्वामी ने दूसरे ढंग से कहा कामदेव ने ब्रह्मा को जीत लिया।
ब्रह्मदिजयसंरूढदर्पकंदर्पदर्पहा ।
काम ने ब्रह्मा को जीत लिया सरस्वती के प्रसंग और रुद्र को जीत लिया, मोहनी के प्रसंग में। वृन्दा आदि के कई प्रसंग पुराणों में ऐसे आते हैं कि काम ने विष्णु को भी जीत लिया। शिवपुराण पढ़े तो मालूम पड़ता है। वृन्दा के प्रति अतिशय आसक्ति विष्णु की हो गयी; वह जब जल गयी तो विष्णु उसके चिता की भस्म शरीर में लगाकर बैठे और फिर क्या-क्या उपाय किया गया कि फिर पौधे के रूप में प्रकट हुईं। तो यह जो काम है वह बड़ा प्रबल अपने को माने। इसने छाती ठोंकी। खम ठोंक दिया। ब्रह्मा को जीता, रुद्र को जीता, विष्णु को जीता। अब कृष्ण को जीत लें तो हम सचमुच अजेय हो जाएँ। क्या? बोले- कृष्ण ने ब्रह्मा का मद दूर किया, इन्द्र के मान का मर्दन किया, वरुण से पूजा करवा ली, यह तो कोई बड़ा मालूम पड़ता है। तो काम ने कहा कि हमसे दो – दो हाथ हो जाय ! तो चाहता ही था कि हमसे दो–दो हाथ हो जाए ! ‘भगवानपि रन्तुं मनश्चक्रे’- अब श्रीकृष्ण के मन में भी दो-दो हाथ करने की इच्छा हो गयी कि यह अच्छी क्रीड़ा होगी। ‘अपि’ से यही संकेत है।*
रास के हेतु, स्वरूप और काल
भगवानपि ता रात्री वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे
श्रीशुक उवाच
भगवानपि ता रात्री: शरदोत्फुल्लिमल्लिका: ।
वीक्ष्य रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रित: ।।[1]
अच्छा! ‘भगवानपि ता रात्रीः शरदोत्फुल्लमल्लिकाः’ भगवान ने रास-विलास का संकल्प लिया।
वेदान्त- दर्शन में निरूपण है कि भगवान का स्वभाव वैसा ही है जैसा लोगों का स्वभाव होता है। जैसे लोग कभी लोगों के बीच में रहना, हँसना, खेलना पसन्द करते हैं, लीला करते हैं और कभी अकेले रहना पसंद करते हैं; वैसे भगवान भी कभी लोगों में रहना पसंद करते हैं और कभी अकेले रहना पसंद करते हैं। वेदान्त- दर्शन में यह सूत्र ही है- ‘लोकवत् तु लीलाकैवल्यम्’। अर्थात् कभी लीला, कभी कैवल्य; कैसे? बोले- जैसे लोगों की। जैसे कोई आदमी कभी चाहता है कि हमारे पास कोई न रहे, एकान्त में रहें, वैसे जब भगवान एकान्त चाहते हैं तो महाप्रलय कर दिया, एकान्त में चले गये। कभी भगवान के मन में आया कि अब तो खेलेंगे, सोसाइटी चाहिए, कम्पनी चाहिए, सामाजिक जीवन चाहिए, तो रंगमंच में आकर तरह-तरह का वेश धारण करते हैं।
तो पहली बात देखो- बाल-धर्म का पालन कर रहे हैं भगवान। जैसे छोटे- छोटे बालक आपस में नाचते हैं, गाते हैं, खेलते हैं तो जब भगवान अवतार लेकर आये तो बाल-धर्म का पालन करना उनका स्वभाव है। बालक बनें और ‘ताताथेई’ न करें, ऐसा नहीं होता। बचपन में भाई! सब बालक नाचते हैं, माताएं नचाती हैं। हम भी नाचें हैं। हमको याद है हमको भी दही मथने के बाद जो कमोरी में माखन चिपका रह जाता है- दहेंड़ी में- से जो निकलती है मलाई- वह सब मिलती थी जब नाचते थे। तो यह नाचना, गाना, बजाना यह तो बालक का स्वभाव है। जब भगवान बालक रूप में आये तो बालक धर्म का पालन करना स्वाभाविक है। जब भगवान बालक रूप में आये तो बालक- धर्म का पालन करना स्वाभाविक है। नन्हीं-नन्हीं लड़कियों के साथ बालक बनकर स्वयं भगवान नाचते हैं।*
क्रमशः …….
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Author: admin
Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877