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November 21, 2024 4:35 pm

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महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (026) : Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (026) : Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (026)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

योगमाया का आश्रय लेने का अर्थ

तो, योगाय या माया तां उपाश्रितः- ये संसार के बिछुड़े हुए लोग, विरही लोग, ये दुःखी लोग संसार के विषयों से प्रेम करके दुःखी हो गये। उनके दुःख निवाकरण के लिए ये परम कृपालु, ये करुणा, वरुणालय, ये करुणारुण नयन हृदय में करुणा लिए और करुणा के कारण आँखें लाल-लाल किये पुकार-पुकारकर आमंत्रण दे रहे हैं, निमंत्रण दे रहे हैं कि आओ-आओ-आओ।

यह निमंत्रण देते हैं, लो तुम्हें गन्ध चाहिए तो गंध लो, रस चाहिए तो रस लो, रूप चाहिए रूप लो, स्पर्श चाहिए स्पर्श लो, शब्द चाहिए शब्द लोद, दिल चाहिए दिल लो, दिमाग चाहिए दिमाग लो और कुछ न चाहिए तो हमको ही ले लो। ‘स्मरतः पादकमलं स्वात्मानमपि यच्छति।’ योगाय- माने जीवों को ईश्वर की प्राप्ति हो जाए, उनको अविनाशी सत् मिले, उनको स्वयं प्रकाश चित् मिले, उनको अनायास नित्यानन्द मिले, इसके लिए योगमाया का आश्रय लिया। ‘योगाय या माया कृपा तां उपाश्रितः’ माया शब्द का अर्थ दम्भ और कृपा दोनों है- माया दम्भे कृपायां च। कठोरा भव मृद्वी वा प्राणास्त्वमसि राधिके। अस्ति नान्या चकोरस्य चंद्रलेखां विना गति। देखो, क्या बोलते हैं- अरी गोपी। अरी ग्वालिनी। तू चाहे मेरे साथ कठोरता बरत, कठोर हो जा, और चाहे कोमल हो जा, हमारे प्राण तो तुम हो, ‘अस्ति नान्या चकोरस्य चंद्रलेखां बिना गतिः।’ चकोर के लिए चंद्रमा की चंद्रिका के सिवाय और कोई आश्रय नहीं है। तो योगमाया माने कृपा, प्रेम संसार के जीवों को अपनी ओर खींचने के लिए।

अच्छा योगमाया माने होता है वंशी। ‘योगाय माया शब्दो यस्याम’। यह मायिक शब्द जो है वह ‘माङ्माने शब्दे च’ से बना है। अतः माया माने शब्द अर्थात् वंशी, मुरली। योगाय माया शब्दो यस्यां सा योगमाया- अर्थात् मुरली, वंशी, बाँसुरी क्या है? प्राणों की, हृदय की पीड़ा को बाँसुरी जितनी प्रकट कर सकती है उतना कोई वाद्य नहीं कर सकता। ये ढोलक है, मृदंग है, नगाड़ा है इनको पटापट पीटो, तब बोलते हैं और सारंगी आदि तार वाद्यों को रगड़ो तब आवाज निकलती है, काँसे के झाँझ को लेकर आपस में टकराओ तब आवाज निकलती है। परंतु टकराने का नाम प्रेम नहीं है, घिसने का, रगड़ने का नाम प्रेम नहीं है। अरे बाजा तो वह है जो अपनी साँस से प्राणवायु से बजाया जाय। इसको बाँसुरी बोलते हैं। अधरामृत का पान करे।*

श्रीवल्लभाचार्य जी महाराज तो कहते हैं कि श्रीकृष्ण अपने आनन्द को बाँसुरी द्वारा ही गोपियों में स्थापित करते हैं- योगाय माया शब्दो यस्याम् सा योगमाया। बाँसुरी उठायी और बरसा दिया आनन्द। इसमें डूब जाओ। वंशी के लिए वैष्णव लोग चार बात मानते हैं। वंशी का एक स्वरूप तो है आचार्य, गुरु का। गुरु भी तो शब्द ही देता है। एकबार सच्चा गुरु सच्चा मंत्र कान में दे दे, तो उसे छोड़ा नहीं जा सकता। एक हमारे मित्र हैं- बड़े भगतराज। उनसे पूछो कि तुम्हारा गुरु कौन है? तो पाँच सात का नाम बतावेंगे। जिस दिन गुरु अपना शक्तिशाली मंत्र देगा, उसको अगर छोड़ोगे तो सपने में चढ़ बैठेगा तुम्हे ऊपर। वह मंत्र नहीं, भूत होकर गला दबावेगा, तुमको छोड़ नहीं सकता। जो रोज-रोज बदलने वाले लोग हैं वे व्यापार करना चाहते हैं; परमार्थ के क्षेत्र में। तो यह वंशीजी है इसका एक रूप है- गुरु। भगवान् की वंशी गोपियों को आकृष्ट करती है- इसका अर्थ यह होता है कि आचार्य अपने हृदय में जो भगवद्भक्ति है वह शिष्य को अपने मुखारविन्द से शब्द द्वारा देकर उसके हृदय को भगवान् की ओर खींचता है। आचार्य है वंशी।

दूसरे वंशी माने होती है- सखी-सहेली, पूरब की भाषा बहुत मीठी होती है, आप लोग उससे परिचित नहीं है। जैसे- कोकिल शब्द है तो हिंदी में इसको कोयल बोलते हैं लेकिन पूर्वी भाषा में कोयल से संतोष नहीं होता है, कोयलर बोलते हैं। देखो कितना मीठा हो गया। हिंदी में जो सहेली शब्द है- वह संस्कृत के सहचरी शब्द में से आया है। च गायब हो गया तो सहेली बना। किन्तु पूरबिया में सहेली से संतोष नहीं होता, सहेलर बोलते हैं। यह मीठी क्या, जनकपुरी की भाषा है। शब्द में मिठास आ गयी, शब्द में अमृत पड़ गया।

तो यह वंशी सहेलर है, सखी है श्रीराधारानी को कृष्ण के पास पहुँचने में जो मदद करती है वह कौन है? कि वह सखी है; वह भी वंशी है। गुरु भी वंशी है; सखी भी। माने जो समान प्रेम करने वाले भक्तलोग हैं वे सखी हैं। तीसरे इस वंशी सखी का रूप क्या है? तो कहा- बाँसुरी अन्य सखियों की तरह श्रीकृष्ण के अधरामृत का पान करती है। चौथा- वंशी का रूप क्या है? कहा- वह प्यार है जिसकी गोद में राधाकृष्ण दोनों खेलते हैं। तो देखो वंशी हित तक पहुँचती है। कृष्ण के मन में राधारानी का हित करने का जो चाव है और राधारानी के मन में कृष्ण का हित करने का जो चाव है, इस चाव को बोलते हैं वंशी, यह हित है।*

जब कृष्ण के प्रेम में राधा और राधा के प्रेम में कृष्ण- दोनों जब बेसुध हो जाते हैं तो वहाँ दोनों के सुख का सम्बोध है। उसको हित-तत्त्व बोलते हैं। अज्ञात दशा में सुख नहीं रहता। सुख ज्ञात रहना चाहिए। चित हो तब तो सुख मालूम पड़े? सुषुप्ति में भी यदि चेतन नहीं होता तो सुख कैसे मालूम पड़ता? तो जब कृष्ण राधा में और राधा कृष्ण में लीन हो गये, उस समय जो दोनों के सुख का संबोध है, उसको हित-तत्त्व बोलते हैं। यही वंशी है। चिद्- अभिव्यक्ति आचार्य है- वंशी का गुरुरूप। सद्-अभिव्यक्ति है वंशी का सखी रूप। स्वयं वंशी आनन्दाभिव्यक्ति है। और हित तत्त्व है स्वयं सच्चिदानन्द। तीनों एक हैं। भगवान् ने उसी वंशी का आश्रय लिया। ‘योगमायामुपाश्रितः।’

रन्तुं मनश्चक्रे योगमायामुपाश्रितः- अब एक दूसरा भाव देखो इसका- योगमाया माने राधारानी। जब रास करने का बिलकुल निश्चय हो गया तब भगवान् ने सोचा कि यदि राधारानी अनुकूल नहीं होगी तो रास नहीं हो सकता। अतः ‘योगमायाम् उपाश्रितः’ माने राधारानी का आश्रय लिया। सर्वाश्रयोऽपि भगवान् कृष्णः- ब्रह्मा के आश्रय कृष्ण; शंकर के आश्रय कृष्ण; इन्द्र के आश्रय कृष्ण। सम्पूर्ण जगत्, अनन्त कोटि ब्रह्माण्ड के आश्रय कृष्ण; सम्पूर्ण जीवों के आश्रय कृष्ण; सबके आश्रय कृष्ण भगवान् होने पर भी रास करना हुआ तो बोले- बाबा! अकेले काम नहीं बनेगा; जब तक श्रीराधारानी रास के लिए तैयार नहीं होंगी, गोपियों के साथ रास करने की स्वीकृति नहीं देंगी, स्वयं सोलहों श्रृंगार करके उसमें शामिल नहीं होगी, तब तक रस बनेगा ही नहीं; तब सबके आश्रय होने पर भी योगमाया राधां उपाश्रितः श्रीराधारानी के आश्रित हुए।

आश्रित हुए- उपाश्रितः- माने पास गये, पाँव पकड़ लिया। श्रीराधारानी बोलीं- प्रियतम, यह क्या कर रहे हो? दोनों हाथ पकड़कर हृदय से लग गयीं और बोलीं- यह क्या कर रहे हैं? आज पाँव क्यों छू रहे हैं? कहा- तुम्हारी शरण में हूँ तुम्हारे आश्रय में हूँ। देखो- इतने बड़े होकर होकर भी इतना दैन्य दिखाते हैं। बोलीं- प्रियतम्, आज्ञा करो। कहा- आज्ञा नहीं, तुमसे आज्ञा लेने आया हूँ, बोलीं- क्या? कहा- गोपियों के मन में रास की है। एक दिन उनके साथ रास हो जाए। इसलिए मैं तुम्हारी शरण में हूँ देवि, प्रिया हो, प्रसन्न हो जाओ, कृपा करो कि गोपियों को भी तुम्हारे साथ रास करने का, नृत्य करने का, गाने-बजाने-नाचने का आनन्द मिले। और यह आनन्द इन गोपियों को मिलेगा, इनमें प्रकट होगा तो व्यास-शुकदेव आदि उसका गान करेंगे, संसार के सब जीवों को मालूम पड़ेगा, तो वे भी हमारा ध्यान करेंगे, वे भी हमसे प्रेम करेंगे। उनके हृदय में भी सच्चे प्रेम का उदय होगा। इसलिए ‘योगमायामुपाश्रितः’

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹

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