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July 5, 2025 5:34 am

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महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (049): Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (049): Niru Ashra

महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (049)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

श्रीकृष्ण के प्रति गोपियों का अभिसार

कृष्ण गृहीतमानसाः…………स यत्र कान्तो जवलोलकुण्डलाः
निशम्य गीतं तदनवंगवर्द्धनं व्रजस्त्रियः कृष्णगृहीतमानसाः ।
आजग्मुरन्योन्यमलक्षितोद्यमाः स यत्र कान्तो जवलोलकुण्डलाः ।।[1]

‘निशम्य गीतं तदन्वंगवर्द्धनम्’- श्यामसुन्दर की बाँसुरी बजी। जैसे कोई तत्त्ववित् महात्मा तत्त्व का उपेदश करने के लिए उन्मुख हो और उसकी ध्वनि सुन करके जिज्ञासु लोग दौड़ आवें, वैसे ईश्वर अपने भक्तजनों को अपनी ओर आकर्षित करने के लिए इस वंशीध्वनि का प्रयोग करता है। एक बात आपको सुनावें- वंशीध्वनि और वेदध्वनि। शास्त्र में लिखा है कि जब ईश्वर प्रलय के समय सो जाता है तब उसके नाक की जो घर्घराहट है वह वेद ध्वनि है। कहा- उसमें अर्थ कहाँ से आया? अरे भाई! ईश्वर के नाक की घर्घराहट भी अर्थरूप होती है। कहा- नहीं, नहीं अपने भाव के अनुसार महात्मा लोग उस ध्वनि में से संकेत निकाल लेते हैं- ‘निःश्वसितमस्यवेदाः। अस्य महतोभूतस्य निःश्वसितमेतद्-यद् ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदोऽथर्वांगिरस इतिहासः पुराणम्।’ और वंशीध्वनि? यह तो जाग्रत अवस्था में जान-बूझकर कि लोग हमारी ओर सम्मोहित हों, आकृष्ट हों, जीवों को अपनी ओर खींचने के लिए ईश्वर का मधुर-मधुर आनन्द से ओत-प्रोत हृदयाकर्षण रूप बुलावा है आओ-आओ, आनन्द रस का पान करो, आनन्द-रस में स्नान करो, आनन्द रस के समुद्र में अवगाहन करो।

यह वेणुध्वनि क्या है? वेद में एक मंत्र आता है- सोम का वर्णन है उसमें। सोम माने चंद्रमा भी होता है और, सोम माने वह सोम-रस भी होता है जिसका विद्वान् लोग पान करते थे और सोम माने सूर्य भी होता है और सोम माने आत्मा भी होता है। निरुक्तकार ने वहाँ सोम शब्द का अर्थ किया है- एक सूर्य और एक भी होता है। निरुक्तकार ने वहाँ सोम शब्द का दो अर्थ किया है- एक सूर्य और एक आत्मा। मंत्र है- ‘सोमः पवते जनिता मतीनां।’ प्रकाशात्मक किरणों को उत्पन्न करने वाला जैसे सूर्य है, वैसे प्रकाशात्मक, वृत्तियों को प्रकट करने वाला आत्मा है; वही इन्द्रियों का जनयिता है, इन्द्रियों का सविता है, वही पृथ्वी का सविता है, वही अग्नि का सविता है, वही इन्द्र का सविता है और वही विष्णु का सविता है; इतनी बात उस मंत्र में कही गयी है। विष्णु नाम में है- ‘इन्द्रस्याथ विष्णोः जनिता।’ सोम माने आत्मा। +

अब देखो, सोम माने है श्रीकृष्णचंद्र। चंद्रवंश में उत्पन्न होने के कारण श्रीकृष्णचंद्र आह्लादमय रश्मियों वाले, आह्लादमय किरणों वाले, हैं। ये यदि वंशीध्वनि न करें, तो ये गोपियाँ क्या करेंगी, मालूम है? कोई गाय दुहेगी, कोई हलुआ पकावेगी, कोई बच्चे को दूध पिलावेगी, कोई रसोई परोसेगी, यही काम करेगी न? पर जब कृष्ण बाँसुरी बजाते हैं, तो कहते हैं- लो इधर घर के काम से संन्यास लो, अर्थ से, धर्म से, काम से, मोक्ष से, संन्यास लेकर आओ हमारी ओर।

यदि भगवान्, यदि परमेश्वर, यदि वह तत्-पद-वाच्यार्थ ईश्वर कृपा करके (योगमाया मुपाश्रितः) बाँसुरी बजाकर, अपने आनन्द के लिए ललचाकर, अपनी ओर न बुलावे, तो भला संसार का अर्थ छोड़कर, भोग छोड़कर, धर्म छोड़कर, मोक्ष छोड़कर कौन दौड़ेगा परमात्मा की प्राप्ति के लिए? यह तो भगवत्कृपा है, यह जो वंशी है भगवत्कृपा की ध्वनि है, भगवत् प्रेम की ध्वनि उनके प्राण की ध्वनि है, उनके हृदय की ध्वनि है, जिससे संसार में अटके हुए जीवों को, संसार में भटके हुए जीवों को, बाँसुरी बजा-बजाकर के, नाच-नाचकर, गा-गाकर, अपनी ओर आकर्षण करते हैं। इस बात की वेदान्त के उच्च ग्रंथों में- दोनों तरह के ग्रंथों में, जो उच्चकोटि के युक्ति, तर्क और पाण्डित्य प्रधान हैं उनमें भी और जो अवधूतों और फक्कड़ों के वचन हैं उनमें भी संकेत किया गया है। अवधूत- गीता में कहा-

ईश्वरानुग्रहादेव पुंसामद्वैतवासना ।

श्रीदत्तात्रेय अवधूत अपनी अवधूत गीता में बोलते हैं कि ईश्वर की कृपा से अद्वैतवासना होती है, माने जब तक भगवान् स्वयं नहीं बुलावेगा, तब तक उसकी ओर कौन जावे? यदि अद्वैत की ओर जा रहा है तो यह उसी का प्रणयनिमंत्रण है। खण्डन-खण्डन-खाद्य में भी, यही श्लोक है-

ईश्वरानुग्रहादेव पुंसामद्वैतवासना । ++

खण्डन-खण्ड-खाद्य वेदान्त का उच्च कोटिका तर्कयुक्त, प्रमाणयुक्त, युक्तियुक्त, अनिर्वचनीयता का प्रतिपादक दर्शनशास्त्र का उच्च कोटि का ग्रंथ है। उसमें भी यही बात है कि ईश्वर जब अपनी ओर बुलाता है, पकड़ता है, कहता है कि आओ हमारी तरफ, तभी जीव अद्वैत तत्त्व की ओर चलता है; नहीं तो दुनिया में हजारों लोग मर रहे हैं- जी रहे हैं।

हजारों लोगों में से कोई एक इधर चलता है-

मनुष्याणां सहस्रेषु कश्चिद्यतति सिद्धये ।

यह जो वंशीवादन है, यह उसकी कृपा है, प्रेमरस की वर्षा है, आकर्षण है, विज्ञापन है; यह चुम्बक है अपनी ओर खींचने के लिए। वह वंशीध्वनि सुनी। गोपियों ने वह वंशीध्वनि सुनी। कैसी है वह? तो बोले-

‘मनोहरमपि अनंगवर्द्धनं, मनोहरमपि मनोजवर्द्धनम्।

एक ओर तो वह वेणु – नाद मन का कहरण करता है और दूसरी ओर मनोज को बढ़ाता है। यह वासना जिसको बोलते हैं, वह वासना यदि संसार की है तो बाँधने वाली है और यदि ईश्वर की है तो छुड़ाने वाली है। संसार वासना बन्धन का हेतु है और ईश्वर की प्राप्ति की वासना मोक्ष का हेतु है।

यतो यतो विरज्यते विमुच्यते ततः ततः।

एक प्रेम वह है जो संसार से छुड़ा दे और एक प्रेम वह है जो संसार में बाँध दे। भगवान जो प्रेम देता है वह संसार में बाँधने वाला प्रेम नहीं, संसार से छुड़ाने वाला होता। अगर यह ख्याल न हो कि वैकुण्ठ में लक्ष्मीजी सेविका हैं। पाँव दबाती हैं, शेषनाग हैं, क्षीरसागर है और जगदीश्वर मिलेंगे, तो कौन वैकुण्ठ जाने की इच्छा करेगा? घर-द्वार छोड़कर वैकुण्ठ जाने की इच्छा क्यों? स्वर्ग से वैराग्य किसको हो? यदि अपने भीतर सुख प्राप्त करने की लालसा न हो तो बाहर छोड़ करके आँख बन्द करके भीतर कौन देखे? तो ये भगवान बुलाते हैं। अनंगवर्द्धनम्- ईश्वर विषयक काम को बढ़ाती है यह वंशीध्वनि।

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹

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