!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!
( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )
!! रस साम्राज्य !!
गतांक से आगे –
प्रेम पगे निरखें दोऊ , देखें सब मिल हेलि ।
आवो री अलबेलि बलि, बाढ़े रस रंग रेलि ।।
रँगरेली हेली लियें, करन लगीं गुन गान ।
बना बनी जु बनाय कें , बाने दोऊ बान ।।
हे रसिकों ! महत्व की बात ये है कि हमारे उपास्य को ही हमारी आवश्यकता है …..हमें उनकी आवश्यकता है किन्तु हमसे ज़्यादा उस रस रूप को हमारी आवश्यकता है । हमारे बिना उनका रस साम्राज्य कैसे चलेगा ….अजी ! सखियाँ तो चाहिए । अच्छा , एक बात विचारणीय है साम्राज्य क्या बिना प्रजा के चलेगा ? मात्र राजा रानी से साम्राज्य नही होता …उसके लिए प्रजा चाहिये ….सेवक और मन्त्रीगण चाहिए । तो हमारी आवश्यकता है ….ये महत्व की बात है ।
आहा ! रस का साम्राज्य ! जहाँ रस ही रस है …उत्सव ही जहाँ का धर्म है …अनन्यता ही जहाँ की जाति है ….हम सखी हैं ….हम से ही उनका ये साम्राज्य चलता है । वो रस हैं …वही रस जब स्वयं को चखना चाहता है तो दो बनता है ….फिर उस को वितरण करना चाहता है तो अनेक बनता है …..इस तरह इस रस साम्राज्य का विस्तार होता है ।
“प्राप्त को , पुनः अपनाना है”…..श्रीमहावाणी कहती है । वैसे वो तुम्हें प्राप्त है ….मिला ही हुआ है ….वो तुमसे अलग रह ही नही सकता । किन्तु क्या तुमने उसे कभी अपना माना है ? दिल में हाथ रखकर बोलो ….क्या तुमने उसे ही अपना माना है ? अपना घर किसे मान रहे हो ? इस ईंट पत्थर के गारे को ? अपना किसे मान रहे हो ? यहाँ के झूठे रिश्ते नाते को ? और एक तरफ वो रस साम्राज्य तुम्हारी प्रतीक्षा कर रहा है …कि तुम आओगे ? और रस में मग्न होकर उत्सवमय बन जाओगे ….किन्तु कब ? समय तो बीता जा रहा है ।
अनन्त अनन्त कमल खिले हैं वहाँ के सरोवरों में ….जिसमें भ्रमरों की गुंजार है ….नाना लता पुष्पों से आच्छादित हैं ……सुगन्ध ऐसी फैल रही है ….जो सबको मद होश कर रही है ……संगीत राग रागिनी का गान ऐसा चल रहा है कि सामान्य व्यक्ति सुने तो शायद अति आनन्द के कारण देह सम्भाल भी न सके । सुन्दर सुन्दर सखियाँ …..इनमें जो सौन्दर्य है …वो तो अप्सरा की बात जाने दो इन्द्राणी और उमा भवानी में भी वो सौन्दर्य नही है ….और इनकी संख्या अनन्त में है ।
सब चहक रही हैं ….हंस रही हैं ….कोई गीत गा रही हैं ….तो कोई गुनगुना रही हैं …उनकी वाणी भी हितमयी है …..अजी ! इनसे बड़ा हित रूप और कौन होगा ?
जय जय ।
सुन्दर से रत्न जटित पाटे में युगल विराजे हैं ….एक श्याम हैं और दूसरी गौर हैं ….कभी तपते सुवर्ण को देखा है ? उसमें जो चमक आती है वो किसी में नही है ….वैसी ही द्युति ली हैं हमारी स्वामिनी …..बस बस ….समझ गये ब्याहुला की तैयारी है …और ये दोनों प्यारे दुलहा दुलहिन हैं ….मेरी तो यही अभिलाषा है कि ….कि ये दुलहिन मुग्ध दुलहा मेरी ओर एक बार देखें ।
किन्तु ये अभिलाषा मेरी ठीक नही ..इस रस साम्राज्य के अनुकुल नही हैं …ये तो एक दूसरे को ही देखकर खो गये हैं …आहा ! इनको कितना सुख मिल रहा है …फिर मेरी ओर क्यों देखें ? सखियों की भावना यही है …कि इनके सुख में हमारा सुख , अब मेरी भावना भी यही हो रही है ।
चलिए ! इस झाँकी का दर्शन कीजिए –
“प्रेम पगे निरखें दोऊ , देखें सब मिल हेलि”
दुलहा की आसक्ति दुलहिन पर कैसी है …इसका वर्णन किया गया है ।
दोनों विराजे हैं …सखियाँ शृंगार कर रही हैं …कोई देख देख कर मुग्ध हो रहीं हैं ।
सेहरा बाँध दिया है …..सुन्दर रेशमी वस्त्र पहना दिया है …..रोरी का तिलक भी लगा दिया है ….अब सखियाँ थोड़ी दूर हो जाती हैं ….ज़्यादा पास से दर्शन अच्छे नही होते …इसलिए थोड़ी दूरी भी आवश्यक है ….अब सखियाँ थोड़ी दूर चली जाती हैं ….और निहारती हैं इन दोनों को ….सौन्दर्य की राशि हैं ये तो …किन्तु देखो तो – ये एक दूसरे को ही देख रहे हैं …..नही नही , आसक्त तो लाल ही हैं ….इनके नयनों से ही पता चल रहा है सखी ! कि मानौं कितने प्यासे हैं ….तभी प्यारी ने प्यारे को मुस्कुराकर देख अपने नयनों को मींच लिया ….पूरा नही मींचा थोड़ा …बस फिर क्या था …उसी में लालन का मन भी प्यारी के नयनों की कोर में फंस गया …..अब जब फंस गया तो इधर उधर देख ही नही रहे लालन …..अब इस झाँकी का वहाँ उपस्थित अनन्त सखियाँ दर्शन कर रही हैं ….और मुग्ध हैं …..उनके हृदय में जो आनन्द का हिलोर चल रहा है …वो वर्णनातीत है …..उसके विषय में क्या कहें ।
तभी श्रीहरिप्रिया सखी जू ने सब सखियों को सावधान किया ……जब सब सावधान हो गयीं तब चहकते हुए हरिप्रिया जू बोलीं …”आवो री अलबेलि बलि”। अब आगे आओ ….सब आओ ….दूर खड़ी होकर अपने दर्शन सुख का ध्यान मात्र न रखो ..सम्भालो ! इस “रस रंग लीला” से इनको बाहर निकालो …पास आओ ….दूर रहोगी तो ऐसे ही एक दूसरे में खोए रहेंगे ये, काल का यहाँ कुछ पता नही है …अनादि काल से ये एक दूसरे को देख ही तो रहे हैं पर क्या तृप्त हुए ?
हरिप्रिया जू की बातें सुनकर सब सखियाँ आगे आयीं …..और बड़े प्रेम से मंगल गीत गाने लगीं ….तब जाकर दुलहा सरकार का ध्यान अपनी दुलहन से हटा और सखियों को देखा …बस फिर क्या था …सखियों ने बना ( दुलहा ) और बनी ( दुलहन ) दोनों को सजा कर ….उनको फिर निहारने लगीं …किन्तु ये दोनों तो एक दूसरे को फिर देखने लग गये थे….इस बार दुलहिन बनीं श्रीजी अपने दुलहा भेष श्याम को ही देख रहीं हैं ……साड़ी ऐसी पहनाई गयी है श्रीजी को जो झीनी है जिसमें से प्रिया जू का श्रीअंग झलक रहा है ….कान्तिमय है वो वस्त्र । उसी साड़ी से प्रिया जू की रूप छटा बिखर रही है …..आहा ! हाथों में उनकी चार चार चूड़ियाँ सखियों ने पहना दी हैं । नासिका में नक बेसर ….मुख में पान है ….और जब पान चर्बित करती हैं …तब उनकी दंत पंक्ति चमकती है ….तब ऐसा लगता है कि …विद्युत कौंधा ! अधर पान की लाली से लाल हो गये हैं …..ऐसा रूप देखकर फिर श्यामसुन्दर मोहित हो गये …उनका मन फिर अपनी प्यारी के रूप सौन्दर्य में खो गया । क्या करें ! रहा नही गया और अति आसक्ति के कारण श्याम सुन्दर ने अपनी प्यारी को हृदय से लगा लिया ….किन्तु तभी सखियाँ जोर से बोलीं …अभी नही , अभी नही ….हंसती हुई आईं श्रीरंगदेवि जू ने दोनों में दूरी बना दी । तब सारी सखियाँ ताली बजाकर हंसने लगीं थीं । किन्तु लालन दुखी हो गये थे । तब दोनों की बलैयाँ लेते हुए श्रीरंगदेवि देवि जू बोलीं – ये तुम्हारी ही हैं प्यारे ! बस ब्याह हो जाने दो, ये सुनकर प्रिया जू शर्माती हुयी नीचे देखने लगीं थीं …..और मन्द मन्द मुस्कुरा भी रहीं थीं ।
अजी ! क्या कहें ….ये रस का साम्राज्य है …और हाँ , ये रस हैं तो यही रसायन भी हैं ।
“आवो री अलबेलि बलि, बाढ़े रस रंग रेलि”
क्रमशः ….



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