: !! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!
( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )
!! देखौ अतिहिं विचित्र अलि !!
गतांक से आगे –
! पद !
बाने बान रँगीली रँगीले , दूल्हे दूलहनि रसिक रसीले ।
बिमला बारिज-बदनी बाला , बिधिसों बाँधत बंदनमाला ।।
फूलन कौ मंडप छबि छायौ , रच्यौ मोहनी महा सुहायौ ।
कनकलता ज्यों लटकत डोलै , कलबैनी कोयल ज्यों बोलैं ।।
गरबभरी मंगल बहु गावैं, भाँति भाँति दोउ लाल रिझावैं ।
कोउ रतन चौकी लै आई , रंगमहल में आनि बिछाई ।।
बना बनी दोऊ बैठाये , निरखि निरखि उर नैंन सिराये ।
कोउ रँगरेलिनि तेल चढ़ावैं, बेलि मेलि रस रेलि लगावैं ।
बड़भागिन बड़ भाग मनावैं , श्रीहरिप्रिया निरखि बलि जावैं ।। महावाणी , उ,सु.प. 141 .
क्या करें ? कौन सी ऐसी उपासना करें जिससे उस रस सिन्धु में हम भी अवगाहन कर सकें ?
क्या करें ? कौन सी ऐसी उपासना करें जिससे उस रस साम्राज्य में हमारा भी प्रवेश हो ?
क्या करें ? कौन सी ऐसी उपासना करें जिससे हम भी उन रसिक रसीली को भर निहारते रहें ?
“नाम जाप करो , लीला स्मरण करो”……शाश्वत बोला ।
क्या नाम जाप करते रहने से उस रस की प्राप्ति होगी ? और अगर होगी तो वो भविष्य हुआ ….और भविष्य यानि जो आज नही है ……यानि कल होगी । और कल क्या कभी किसी ने देखा है ? कल क्या हो जाए कुछ पता है ? नाम जाप छूट जाए …या हम नाम जाप करने लायक ही ना रहें …फिर ? यमुना जी के युगल घाट में शाश्वत धूप में सोया हुआ था किसी ने उसे पहचाना और ये प्रश्न कर दिया । तो उसका उत्तर था ..नाम जाप करो और लीला स्मरण करो ।
गौरांगी श्रीराधा बल्लभ दर्शन करके जुगल घाट आयी थी …..उसने प्रश्न भी सुना था और शाश्वत का उत्तर भी । किन्तु उसने तुरन्त ये बात कह दी कि ….होगी ? नाम जाप आदि से उस रस की प्राप्ति होगी ? तो क्या भविष्य हैं हमारे प्रिया लाल ? तो क्या ये निकुँज हमारा भविष्य है ? और अगर भविष्य ये हैं तो वर्तमान क्या है ? ये संसार ? बात तो ठीक कह रही थी गौरांगी …..जो अभी नही हैं ….कल मिलेंगे ! क्यों ? नाम जाप करो । गौरांगी इस बात को दोहरा दोहरा कर हंसती है ……भविष्य में मिलने वाले हैं क्या हमारे प्रिया लाल ? यानि वो काल से बँधे हैं ? फिर ये बात कहती है …शाश्वत लेट कर बतिया रहा था गौरांगी की बात ने उसे उठा दिया …वो बैठ गया । हमारे प्रिया लाल काल के बंधन में नही हैं …कि भविष्य में मिलेंगे ?
हे अलि ! तुम ही बताओ ….हमारे भीतर तो अभी भी पुरुष भाव है ….तुम ही बता सकती हो कि वो रस राज्य कहाँ , कैसे मिलेगा ? शाश्वत ने गौरांगी से अब पूछा ।
वो थे , हैं , रहेंगे , अनुभव करने योग्य पात्र हो जाना ही मात्र अपेक्षित नही है क्या ?
गौरांगी बोली ।
शाश्वत ! मिलन में देरी , दूरी की ये कल्पना ही स्वाहा हो जाये तो ? क्या वो मिले ही नहीं हैं ? क्या वो यहीं नहीं हैं ….और वो निकुँज क्या यही श्रीवृन्दावन नही हैं ? वो यही है …बाहरी माया का आवरण है …वो हटे तो नित्य निकुँज यही है …..यहीं प्रिया लाल हैं …यहीं हमारी सखियाँ हैं …यही हमारी यमुना हैं …..यहीं उत्सव महोत्सव है ।
श्रीमहावाणी जी में स्पष्ट लिखा है …कोई ओर निकुँज नही हैं ….यही निकुँज है …यही है ….
गौरांगी मधुर स्वर में श्रीमहावाणी जी का ये पद गाती है ……
“यही है यही है भूली भरमौं न कोउ , भूली भरमें तें भव भटक मरिहौं
लाडिली लाल के नित्य सुखसार बिन , कौंन बिधि वारतें पार परिहौं ।।”
“यही है…यहीं हैं”……बस ये बात गाँठ बांध लो …..दूरी का आवरण माया है …उसे हटा दो …बस फिर जो भी दिखेंगे प्रिया लाल ही प्रिया लाल ।
कल की बात नही , आज की बात है …अभी की बात है …वो अभी हैं ….यहीं हैं ।
बस …माया का आवरण ! ये हटाने से हटेगा …..गौरांगी हंसते हुए चल दी थी ।
परम रसीले दुलहा दुलहिन के रूप में प्रिया लाल विराजे हैं …..अति अद्भुत छटा है , चारों ओर सखियाँ हैं ….जो प्रसन्न मुख हैं …ये सखियाँ सौन्दर्य की देवि हैं ….ये सब इन प्रिया लाल के ब्याहुला में अति उत्साहित हैं ….कैसे इस ब्याहुला उत्सव को सुन्दर बनाया जाए यही प्रयास है इन सब का ।
तभी हरिप्रिया सखी कहती हैं ….विमला नामक एक सखी से ….कमल के समान मुख वाली है ये……इसके अंग से कमल की गन्ध प्रकट होती है ….इसी को हरिप्रिया सखी ने अपने पास बुलाकर कहा …”बंदनवार तो बांधा ही नही”…..ओह ! ये सखी इन छैल छबीले जुगलवर को देखने में ही इतनी मग्न हो गयी थी की ……अब जीभ दबाती हुयी वो बंदनवार बांधने के लिए भागी …..हरिप्रिया सखी मन ही मन हंसती हैं कि …जुगल की वर वधू छवि देखकर ये सब भूल रही हैं …..ब्याह में ये सब सामान्य बात है …ये कहते हुए हरिप्रिया आगे चली जाती हैं ।
विमला सखी बंदनवार बांधती है …..विधि पूर्वक बांधती है ……
मंडप के चारों ओर बांधती है ….उस महल में भी बांधती है जहां प्रिया लाल ब्याह के बाद जाएँगे ….उस महल के कक्ष में भी बांधती है जहाँ दम्पति सुरत सुख में भीजेंगे । चारों ओर बांधकर अब उसे और आनन्द आता है ….वो विमला सखी ….अब फिर दुलहा दुलहिन को देखने लग जाती है । हरिप्रिया सखी उधर से कमल पुष्पों का एक गट्ठर लेकर आयी हैं ….कमल पुष्प को अलग अलग जगह लगाना है …..किन्तु ये जब देखती हैं ….तब हंसते हुए विमला के सिर में कमल नाल से हल्की चोट करते हुए कहती हैं …”नज़र तू ही लगाएगी इन युगलवर को”। विमला फिर सावधान हो जाती है । अनेक सखियाँ हैं जो अधिकतर गौर वर्णी ही हैं ….वो सब इधर उधर मत्त डोल रही हैं ..मानौं सुवर्ण लता की तरह । इन सब सखियों की आवाज कोयल से भी सुरीली है …..पास में ही सखियों की एक टोली और बैठी है …जो मंगल गीत गा रही हैं …..और ऐसे ही मंगल गीत नही गा रहीं …गर्व से भरकर गा रही हैं ….ऐसा गर्व ! जैसा – बेटे का ब्याह हो तो उसकी माता कितनी फूली फूली रहती है ….कि मेरे लाल का ब्याह है …ऐसे ही ये सब सखियाँ आज फूल रही हैं …गर्व से इनके पाँव ज़मीन पर नही हैं ….आनन्द अपनी सीमा पार कर रहा है ।
अब यहाँ से उठाकर सखियाँ प्रिया लाल को बड़े प्रेम से रंगमहल में ले जाती हैं ….वहाँ दो रतन चौकी बिछाई गयी है …उसमें प्रिया लाल बिराजे हैं ….अद्भुत झाँकी है । सखियाँ इस झाँकी को देखकर अपने को रोक नही पातीं और इत्र फुलेल जुगल के अंगों में लगाने लग जाती हैं ….इस झाँकी को हरिप्रिया सखी देखती हैं और सुख सिन्धु में वो हिलोरें लेने लग जाती हैं ……
एक सखी नज़र उतारती है ..तो एक सखी काजल का टीका लगा देती है …एक सखी राई नौंन उतारती है ,तो एक सखी मन्त्र भी पढ़ रही है …ताकि कोई अलाय बलाय इनके निकट न आ सके ।
हरिप्रिया सखी देख रही हैं जुगल को ……ज़्यादा भी नही देख सकतीं इन्हें भी डर लगता है कि कहीं मेरी ही नज़र न लग जाये । बलैयाँ लेती हैं ….बलि बलि जाती हैं ।
चारों ओर से मंगल वाद्य बज रहे हैं ……….
क्रमशः….
!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!
( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )
!! रसरुपौ रसायनौ !!
गतांक से आगे –
एक शब्द हैं “रस”, और फिर दूसरा शब्द है “रसायन”। रस + अयन मिलकर बनता है रसायन ।
हे रसिकों ! ये बात श्रीमहावाणी ने ही बताई है कि ये रस भी हैं और रसायन भी हैं …दोनों ही हैं ।
इन दिनों गौरांगी श्रीमहावाणी जी का ही पाठ कर रही है ….पागलबाबा से उसने पूछा था तो बाबा ने बड़ी प्रसन्नतापूर्वक आज्ञा दे दी ।
मेरे ऊपर इन दिनों ठाकुर जी की इतनी कृपा है कि मुझे वो श्रीवन से बाहर भेज ही नही रहे ….उन्हें अपने ही पास रखना है मुझे ।
युगलघाट में ही कल गौरांगी मिली …..दूर एकान्त यमुना पुलिन धूप बड़ी अच्छी लग रही थी …वहीं रेती में बैठकर श्रीमहावाणी जी का पाठ कर रही है वो । मैं नित्य की तरह पहले युगलघाट फिर श्रीराधावल्लभ और श्रीबाँके बिहारी ….वापस फिर युगलघाट में बैठकर कुछ नाम जाप या वाणी जी के पदों का गायन करता हूँ ।
मैं वहाँ गया तो गौरांगी पाठ कर रही है …..महावाणी जी के पद ये बड़ा ही मधुर गाती है …वैसे महावाणी जी में अपनी ही मधुरता है….किन्तु एक सखी के मुख से विशेष मधुर लगता ही है …..
“पूरन प्रेम प्रकाश के , परी पयोधनि पूरी ।
जय श्रीराधा रस भरी , श्याम सजीवन मूल ।।
जय श्रीराधिका रस भरी ।
रसिक सुन्दर साँवरे की , प्रान जीवन जरी ।।
गौर अंग अनंग अद्भुत , सुरति रंगनि ररी ।
सहज अंग अभंग जोरी , सुभग साँचे ढ़री ।।
परम प्रेम प्रकाश पूरन , पर पयोधिनि परी ।
हितू श्रीहरिप्रिया निरखति , निकट निज सहचरी ।। महा. सेवा सुख 32 ।
“आइये हरि जी”
मुझे देखकर वो बड़ी प्रसन्न हुई । मुझे बैठने के लिए कहा । मैंने कहा …कितना सुन्दर पद गायन किया तुमने ! आहा ! आनन्द आगया ।
उसने महावाणी जी रख दी थी और मुझ से बोली ….एक बात अद्भुत है इस महावाणी जी में ! मैंने कहा – इसमें तो हर बात अद्भुत है …तुम कौन सी बात कह रही हो । नही , हरि जी ! महावाणी जी में लिखा है ….”रसरुपौ रसायनौ” ….इसका क्या अर्थ हुआ ? मैं कुछ बोलता गौरांगी ही अभी बोल रही थी ….ये रस रूप हैं …ये तो हर रसिक वाणी में कहा गया है …किन्तु रस रूप भी हैं और रसायन भी हैं ….इसका अर्थ ? मुझ से प्रश्न किया गया था तो मैंने कहा …गौरांगी ! रसायन शास्त्री कहते हैं ….पारद का नाम है रस …..और अयन कहते हैं ….मार्ग को ….है ना ? गौरांगी सुन रही है …..”इसलिए जिन जिन औषधियों में पारद का प्रयोग होता है उसे ही रसायन कहा जाता है”।
रस अति चंचल है ….पारद को देखो ….तुम पकड़ भी नही पाओगी । अति चंचल और अक्षय ऊर्जावान है रस । और रसायन का काम रोगों का हरण कर देह को सुदृढ़ बनाना …..आयु को स्थिर करना है ।
अब सुनो …..गौरांगी ! ये जुगल सरकार जब अलग अलग होते हैं ना, तो “रस रूप” होते हैं …अति चंचल , अति ऊर्जा से सम्पन्न …..किन्तु जब दोनों मिल जाते हैं ….एक हो जाते हैं …..तब वो विरह रूपी रोग का हरण कर…..हमें रस का मार्ग प्रदान करते हैं ….द्वैत समाप्त हो जाता है …और अद्वैत की स्थिति जब बनती है तब ये रसायन बन कर हम सबके लिए सुलभ हो जाते हैं …..इसलिए …ये रस हैं तो द्वैत हैं और रसायन हैं तो अद्वैत हैं ……हम सबके लिए उपासनीय ये श्रीराधा कृष्ण ही हैं ….जो दो होते हुए भी एक हैं । मैं बोलता जा रहा था …..यही रस , रसायन बनता है ….दो रस रूप मिलकर समस्त का पोषण करते हैं ….सखियाँ , वनराज आदि आदि सब का …..यही एक मार्ग प्रशस्त करता है कि….रस का अयन ये है ….देखो । रस का मार्ग ये है ….जहाँ दो रस मिलकर रसायन बन समस्त को रस का वितरण कर रहे हैं ।
अब गौरांगी के नेत्र बन्द हो गये थे …वो भाव जगत में चली गयी थी …वो बारम्बार “रसरुपौ रसायनौ”….यही, यही कह रही थी ।
मैं कुछ देर वहाँ बैठा फिर अपनी कुटिया चला आया था ।
!! दोहा !!
बलि जाऊँ चौकी चतुर , बैठे रंग रली ।
सोधें सरस न्हवावहीं, अतिहिं विचित्र अली ।।
निकुँज आज स्वयं में मत्त है …..वो स्वयं सज रहा है ….उसकी लताओं में अपने आप पुष्प खिल रहे हैं …….पक्षियों का कलरव आनन्द फैला रहा है चारों ओर ……और ये सखियाँ …..सुन्दर रतन जटित चौकीं पर विराजे वर वधू को देखकर बारम्बार बलिहारी जा रही हैं ….और ये प्रेम रंग से रंगे दोउ सुकुमार अद्भुत शोभायमान लग रहे हैं । इनके आगे अनन्त सखियाँ हैं …..कोई नृत्य कर रही हैं तो कोई वाद्य बजा रही हैं ….कोई बस लता की ओट से इन दोनों को निहार रही हैं ….कोई कोई सखी तो “मैं भी वर वधू को इत्र फुलेल लगाऊँगी” …कहकर जिद्द कर रही हैं ….तो श्रीरंगदेवि सखी उनको भी लगाने के लिए संकेत कर देती हैं …इन सखियों की संख्या भी बहुत है …वो सब सखियाँ अपने मन भावन तरीके से – “सोंधे सरस न्हवावहीं” इत्र फुलेल से मानौं नहला ही रही हैं …..और जब जुगल के श्रीअंग को छूते हुए ये इत्र आदि लगाती हैं ….तो जुगल भी इनकी ओर देखकर मुस्कुरा देते हैं …फिर तो इनको जो सुख मिलता है ….उसको कौन गा सकता है भला ।
कोई सखी है जो ….इत्र-फुलेल प्रिया जू के कोमल करों में लगाती है….फिर लाल जू के वक्षस्थल में लगाकर हंसते हुए चली जाती है …प्रिया जी संकेत में लाल जी से पूछती हैं ये हंसते हुए क्यों गयी ? लाल जी कहते हैं ..आप अपना कोमल कर मेरे वक्षस्थल में रखिए ….शरमाते हुए प्रिया जू फिर इधर उधर देखने लग जाती हैं ….कोई सखी इत्र-फुलेल पहले स्वामिनी जू के चरणों में लगाती है…और फिर उसी इत्र-फुलेल को लाल जू के कपोल में लगाते हुए सिर से छुवाते हुए जैसे ही आगे बढ़ती है ….वहाँ उपस्थिति अनन्त सखियाँ करतल ध्वनि करने लग जाती हैं । इस सखी पर लाल जू बड़े ही प्रसन्न दिखाई देते हैं ….उसी सखी को देखकर उसका आभार भी जताते हैं । इस तरह ये “रस” अब “रसायन”बनने की तैयारी में जुट गया है ।
रसायन क्यों ? हम सबके लिए ।
“अतिहिं विचित्र अली”
ये मार्ग ही विचित्र है ….इस मार्ग में चलने वालों की रीति ही विचित्र है ।
क्रमशः ….


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