!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!
( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )
!! “यह सुख श्रीहरिप्रिया सहेलियों का है” !!
गतांक से आगे –
“जी , यह सुख तो हितूहरिप्रिया सहेलियों का ही है …ये सहेलियाँ इन सुख को अपने नयनों से निहार निहार कर जीती हैं ….ना , ये सुख ब्रह्मा आदि को कहाँ ? हाँ , इन रसीली छबीली सखियों की कृपा हो जाये तो ही इस सुख की प्राप्ति हो सकती है अन्यथा नही ।”
कल गौरांगी मिली ….वहीं युगलघाट में …चर्चा श्रीमहावाणी जी में वर्णित ब्याहुला उत्सव का ही है ….शाश्वत को यही कह रही थी कि …ये रस सामान्य जनों के लिए है ही नही । ये तो उनके लिए है….”जिनके सर्वस युगल किशोर” । और ये पूर्ण भाव सखियों में ही परिलक्षित होता है …इसलिए ये उस निकुँज में अपने युगलवर को निहारते हुए परम सुख की अवस्था में स्थित रहती हैं …..इतना सुख तो महायोगी या किसी सिद्धात्मा को भी नही है …..फिर गौरांगी महावाणी जी के “सेवा सुख” की एक पंक्ति गुनगुनाती है ।
“इनको सुख इनहीं बने , मुख बरने कहा विशेष”
ये सखियाँ सुख रूपा हैं …..ये सुख देने वाली हैं ….ये युगल को सुख देकर परम सुख का अनुभव करती हैं …..गौरांगी कहती है ….इनको इतना सुख है …जिसका कोई दूसरा वर्णन नही कर सकता …अजी ! ये सखियाँ स्वयं भी अपने सुख का वर्णन नही कर सकतीं । गौरांगी ये कहते हुए मौन हो जाती है …फिर आगे कहती है …ये सखियाँ स्वयं सुख स्वरूपा हैं …यानि सुख और सखी में कोई भेद ही नही है ……
यह उत्सव को सुख समै , समझे जो समझनहार ।
हितू सहेली हरिप्रिया , जीवत नैंन निहार ।।
देखो ! ये जो उत्सव चल रहा है निकुँज में इन दिनों ….ये उत्सव ही सुखात्मक है ….इसको सब नही समझ सकते …कैसे समझें ….क्यों कि ये दोउ लाल ललना , दो तो हैं नहीं …एक ही हैं …दो तो ये सुख बरसाने के लिए बनते हैं …बाकी तो एक ही हैं । इस रस रहस्य को ये सखियाँ जानती हैं ……
किन्तु यहाँ तक पहुँचे कैसे ?
शाश्वत को दिक्कत है …क्यों की इसके ज्ञान के संस्कार बहुत गहरे गए हैं चित्त में…इसलिए ये पूछता है ।
“प्राकृत सम्बन्ध छूटे और भावात्मक देह परिपक्व हो ….तब जाकर हरिप्रिया सहेलियों का भाव संग प्राप्त होता है …वाणी जी के नित्य पाठ से ये संग होगा, फिर कृपा” । गौरांगी सटीक समाधान करती है । किन्तु एक बात वो अन्तिम में बोली ….साधक ध्यान दें ….वो बड़े प्रेम से “उत्साह सुख” का एक पद गाती है …..
“मिलि चलौ मिलि चलौ मिलि चलें सुख महा , बहुत हैं विघ्न जगमगहि माहीं ।
मिलिचलें सकल मंगल मिलें सहजहिं, अनमिलि चलें सुख नहिं कदाहीं ।।
मिलि चलें होत सौं अनमिलि चलें कहाँ , फूटते होत हैं फटफटा हीं ।
हरिप्रिया जू कौ इह परम पद पावनौं , अतिहि दुर्लभ महासुलभ नाहीं ।।”
ये रसोपासना है …ये रस की उपासना है …इसलिए इसमें उत्सव हैं …महोत्सव हैं …अकेले की साधना नही है ये ….इसमें तो सब मिल जुलकर चलो ….कैसे मिलजुलकर ? अपने आचार्य सखी जू के साथ ….उनकी अनुगत हरिप्रिया सखी जू के साथ …साथ का अर्थ है …उनकी वाणी जी को उतारो …वो जो कह रही हैं …उसको गाँठ बाँध लो ..अकेले , अपने बुद्धि के दम से तुम योगादि में तो छलाँग लगा लोगे …किन्तु इस रस निकुँजोपासना में तुम प्रवेश भी नही पा सकोगे ।
अजी ! उत्सव के लिए सहेलियाँ नही चाहिए ? अकेले उत्सव थोड़े ही होता है …कोई बंदनवार बांधे ..कोई रंगोली काढ़े …कोई दुलहा दुलहिन को सजाए …कोई मंगलगीत गाये …कोई नाचे कोई बजाये ……ये होता है उत्सव ! इसलिए बहुत संकट हैं इस जगत में …..अपनी सहेलियाँ बनाओ …और इस रस निकुँज का सुख लूटो । कहाँ भटक रहे हो ।
गौरांगी की बातें मैं युगलघाट के नाव में बैठकर सुन रहा था ….मुझे रोमांच हुआ ….उसी समय निकुँज में हो रहे ब्याहुला में , मैं भी पहुँच गया था ….अनन्त सखियाँ हैं जो इस उत्सव का सुख लूट रही हैं ….सुख दे रही हैं ।
आओ , आओ ना ! निकुँज के इस ब्याहुला उत्सव में ……
!! पद !!
देखौ री ! दिन दूल्हे लाल भाँवती को भाँवतौ ।
नवल किशोरी गोरी सँग लियें , हिय में हरष बढ़ावतौ ।।
सुन्दर श्याम कमल दल लोचन , अंग अंग छबि पावतौ ।
रसिक शिरोमणि रसिक लाड़िलौ, रस बरसा बरसावतौ ।।
माथे मुकुट मनोहर सोहै , मनि मोती झलकावतौ ।
छैल छबिलौ गर्व गहीलौ , रँग रँगीलौ सुहावतौ ।।
लाल लली कौ अचल सुहाग , हमारें भाग जगावतौ ।
अति अनुराग भरयौ अलबेलौ , लोयन लाग लगावतौ ।।
वृन्दावन नव नित्य कुँज में , नित विलास विलसावतौ ।
श्रीहरिप्रिया प्रान को प्रीतम , नव नव सुख सरसावतौ ।। महा. उत्साह सुख .144 !
निकुँज , उत्सव के रँग में रँग उठा है ….चारों ओर सखियाँ ही सखियाँ दिखाई दे रही हैं ..उनकी अंगकांति से पूरा निकुँज झलमला रहा है …..नभ में चन्द्रमा पूर्ण है …..नही नही …आप तिथि को मत देखिये …यहाँ चन्द्र पूर्ण ही रहता है …..निकुँज का चन्द्रमा सखी ही हैं ….सखी ही चन्द्र सूर्य बनकर उत्सव की सुन्दरता को और बढ़ाती रहती हैं ….रितु भी यहाँ सखियाँ हैं ….वृक्ष आदि सब सखियाँ ही हैं ।
अब निहारिये इन युगल को …….
कैसे सुन्दर लग रहे हैं …देखो ! हरिप्रिया सखी कहती हैं …..वहीं विराजे हैं …रजत पाटे में …और दुलहा दुलहन का भेष है …अरी सखियों ! इस झाँकी पर तो मैं बलिहारी जाती हूँ ….इनका सौन्दर्य तो पल पल बढ़ता ही जा रहा है …अभी मैंने देखा था जो रूप छटा थी ….वो दुगुनी हो गयी है एक ही पल में ! अरे ! दर्शन तो करो । हरिप्रिया सबको दर्शन करने के लिए कह रही हैं ….ये किशोर हैं …वैसे भी सबसे सुन्दर अवस्था किशोर ही होती है …ये किशोर हैं …फिर निहारते हुए हंसती हैं ….फिर कहती हैं …ये मात्र किशोर कहाँ …ये तो नवल किशोर हैं …नये , नवीन उमंग लिए ..नवीन तरंगों से तरंगयित इनका मन अपनी किशोरी जू पर कैसा मचल उठा है ….और हमारी स्वामिनी तो इनसे भी ज़्यादा सौन्दर्य को अपने में समेट कर रखीं हैं …नवीन किशोरी हैं ये ….अरी ! अपने नयनों को सफल बनाओ …और निहारो इनको । युगल को अपलक निहारो ।
( हे रसिकों ! ब्याहुला के आगे की कोई विधि ही आरम्भ नही हो पा रही है …क्यों की ये सखियाँ बस इन रसिक दम्पति को निहार कर सुख लूट रही हैं …और उसी सुख को लुटा भी रही हैं , इन नवीन दुलहा दुलहिन को भी यही तो सुख दे रही हैं )
आहा ! कमल दल के समान श्याम सुन्दर के नयन कितने सुन्दर लग रहे हैं ….नयन ही नही इनके अंग अंग की शोभा हृदय में सुख बसरा रही है । अरी सखियों ! देखो …इन दुलहा के सिर में जो सेहरा बंधा है ….उसकी चमक से पूरा निकुँज चमक उठा है …..क्या सुन्दर लग रहे हैं ये ….हरिप्रिया सखी कहती हैं …और आत्ममुग्ध हो जाती हैं ।
छैल छबीले हैं ….और गर्व से मत्त हैं …..हंसती हैं हरिप्रिया जू , कहती हैं – मुख देखो कैसे गुप्प से फुला लिया है लाल जू ने । ये गर्व के कारण है …इन्हें गर्व हो रहा है कि मैं दुलहा बन रहा हूँ ।
अति सुख के कारण हरिप्रिया सखी के नेत्रों से अश्रु बहने लगते हैं …वो अपने साड़ी के पल्लू से नयन पोंछती हैं ….फिर कहती हैं ….”हमारे लाल ललना का ऐसे ही अचल सुहाग बना रहे” और इन्हें देखते हुए हमारे भाग जागते रहें । ये दोनों कितने अनुराग से भरे हैं ना ! फिर एक तृण तोड़कर फेंक देती हैं हरिप्रिया ….मुझे तो डर लगता है कहीं मेरी ही नज़र इनको न लग जाये ।
ये कहते हुए हरिप्रिया अपनी दृष्टि युगल से हटा लेती हैं ….क्यों ? इसलिए कि ज़्यादा देखेंगी तो नज़र लग जाएगी ….वो अब श्रीवृन्दावन को देख रही हैं ….हे सखियों ! आज ब्याहुला के अवसर में ये श्रीवन भी कितना आनंदित हो रहा है ना …..धन्य है ये ..जहाँ ऐसे परम अनुरागी दम्पति नित्य विहार में मग्न रहते हैं ….अरी ! ये दो तो हमारे प्राण हैं …..इनके बिना हमारा जीवन क्या ! यही तो नव नव रस को हम सबके सामने विस्तार करते रहते हैं ….ताकि हमें आस्वादन का लाभ मिले ….ये कहते हुए हरिप्रिया सखी उन्मत्त हो जाती हैं ….और नृत्य करने लगती हैं …उनके साथ अनन्त सखियाँ भी मधुर स्वर-ताल में नाच रही हैं ।
क्रमशः …
( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )
!! “यह सुख श्रीहरिप्रिया सहेलियों का है” !!
गतांक से आगे –
“जी , यह सुख तो हितूहरिप्रिया सहेलियों का ही है …ये सहेलियाँ इन सुख को अपने नयनों से निहार निहार कर जीती हैं ….ना , ये सुख ब्रह्मा आदि को कहाँ ? हाँ , इन रसीली छबीली सखियों की कृपा हो जाये तो ही इस सुख की प्राप्ति हो सकती है अन्यथा नही ।”
कल गौरांगी मिली ….वहीं युगलघाट में …चर्चा श्रीमहावाणी जी में वर्णित ब्याहुला उत्सव का ही है ….शाश्वत को यही कह रही थी कि …ये रस सामान्य जनों के लिए है ही नही । ये तो उनके लिए है….”जिनके सर्वस युगल किशोर” । और ये पूर्ण भाव सखियों में ही परिलक्षित होता है …इसलिए ये उस निकुँज में अपने युगलवर को निहारते हुए परम सुख की अवस्था में स्थित रहती हैं …..इतना सुख तो महायोगी या किसी सिद्धात्मा को भी नही है …..फिर गौरांगी महावाणी जी के “सेवा सुख” की एक पंक्ति गुनगुनाती है ।
“इनको सुख इनहीं बने , मुख बरने कहा विशेष”
ये सखियाँ सुख रूपा हैं …..ये सुख देने वाली हैं ….ये युगल को सुख देकर परम सुख का अनुभव करती हैं …..गौरांगी कहती है ….इनको इतना सुख है …जिसका कोई दूसरा वर्णन नही कर सकता …अजी ! ये सखियाँ स्वयं भी अपने सुख का वर्णन नही कर सकतीं । गौरांगी ये कहते हुए मौन हो जाती है …फिर आगे कहती है …ये सखियाँ स्वयं सुख स्वरूपा हैं …यानि सुख और सखी में कोई भेद ही नही है ……
यह उत्सव को सुख समै , समझे जो समझनहार ।
हितू सहेली हरिप्रिया , जीवत नैंन निहार ।।
देखो ! ये जो उत्सव चल रहा है निकुँज में इन दिनों ….ये उत्सव ही सुखात्मक है ….इसको सब नही समझ सकते …कैसे समझें ….क्यों कि ये दोउ लाल ललना , दो तो हैं नहीं …एक ही हैं …दो तो ये सुख बरसाने के लिए बनते हैं …बाकी तो एक ही हैं । इस रस रहस्य को ये सखियाँ जानती हैं ……
किन्तु यहाँ तक पहुँचे कैसे ?
शाश्वत को दिक्कत है …क्यों की इसके ज्ञान के संस्कार बहुत गहरे गए हैं चित्त में…इसलिए ये पूछता है ।
“प्राकृत सम्बन्ध छूटे और भावात्मक देह परिपक्व हो ….तब जाकर हरिप्रिया सहेलियों का भाव संग प्राप्त होता है …वाणी जी के नित्य पाठ से ये संग होगा, फिर कृपा” । गौरांगी सटीक समाधान करती है । किन्तु एक बात वो अन्तिम में बोली ….साधक ध्यान दें ….वो बड़े प्रेम से “उत्साह सुख” का एक पद गाती है …..
“मिलि चलौ मिलि चलौ मिलि चलें सुख महा , बहुत हैं विघ्न जगमगहि माहीं ।
मिलिचलें सकल मंगल मिलें सहजहिं, अनमिलि चलें सुख नहिं कदाहीं ।।
मिलि चलें होत सौं अनमिलि चलें कहाँ , फूटते होत हैं फटफटा हीं ।
हरिप्रिया जू कौ इह परम पद पावनौं , अतिहि दुर्लभ महासुलभ नाहीं ।।”
ये रसोपासना है …ये रस की उपासना है …इसलिए इसमें उत्सव हैं …महोत्सव हैं …अकेले की साधना नही है ये ….इसमें तो सब मिल जुलकर चलो ….कैसे मिलजुलकर ? अपने आचार्य सखी जू के साथ ….उनकी अनुगत हरिप्रिया सखी जू के साथ …साथ का अर्थ है …उनकी वाणी जी को उतारो …वो जो कह रही हैं …उसको गाँठ बाँध लो ..अकेले , अपने बुद्धि के दम से तुम योगादि में तो छलाँग लगा लोगे …किन्तु इस रस निकुँजोपासना में तुम प्रवेश भी नही पा सकोगे ।
अजी ! उत्सव के लिए सहेलियाँ नही चाहिए ? अकेले उत्सव थोड़े ही होता है …कोई बंदनवार बांधे ..कोई रंगोली काढ़े …कोई दुलहा दुलहिन को सजाए …कोई मंगलगीत गाये …कोई नाचे कोई बजाये ……ये होता है उत्सव ! इसलिए बहुत संकट हैं इस जगत में …..अपनी सहेलियाँ बनाओ …और इस रस निकुँज का सुख लूटो । कहाँ भटक रहे हो ।
गौरांगी की बातें मैं युगलघाट के नाव में बैठकर सुन रहा था ….मुझे रोमांच हुआ ….उसी समय निकुँज में हो रहे ब्याहुला में , मैं भी पहुँच गया था ….अनन्त सखियाँ हैं जो इस उत्सव का सुख लूट रही हैं ….सुख दे रही हैं ।
आओ , आओ ना ! निकुँज के इस ब्याहुला उत्सव में ……
!! पद !!
देखौ री ! दिन दूल्हे लाल भाँवती को भाँवतौ ।
नवल किशोरी गोरी सँग लियें , हिय में हरष बढ़ावतौ ।।
सुन्दर श्याम कमल दल लोचन , अंग अंग छबि पावतौ ।
रसिक शिरोमणि रसिक लाड़िलौ, रस बरसा बरसावतौ ।।
माथे मुकुट मनोहर सोहै , मनि मोती झलकावतौ ।
छैल छबिलौ गर्व गहीलौ , रँग रँगीलौ सुहावतौ ।।
लाल लली कौ अचल सुहाग , हमारें भाग जगावतौ ।
अति अनुराग भरयौ अलबेलौ , लोयन लाग लगावतौ ।।
वृन्दावन नव नित्य कुँज में , नित विलास विलसावतौ ।
श्रीहरिप्रिया प्रान को प्रीतम , नव नव सुख सरसावतौ ।। महा. उत्साह सुख .144 !
निकुँज , उत्सव के रँग में रँग उठा है ….चारों ओर सखियाँ ही सखियाँ दिखाई दे रही हैं ..उनकी अंगकांति से पूरा निकुँज झलमला रहा है …..नभ में चन्द्रमा पूर्ण है …..नही नही …आप तिथि को मत देखिये …यहाँ चन्द्र पूर्ण ही रहता है …..निकुँज का चन्द्रमा सखी ही हैं ….सखी ही चन्द्र सूर्य बनकर उत्सव की सुन्दरता को और बढ़ाती रहती हैं ….रितु भी यहाँ सखियाँ हैं ….वृक्ष आदि सब सखियाँ ही हैं ।
अब निहारिये इन युगल को …….
कैसे सुन्दर लग रहे हैं …देखो ! हरिप्रिया सखी कहती हैं …..वहीं विराजे हैं …रजत पाटे में …और दुलहा दुलहन का भेष है …अरी सखियों ! इस झाँकी पर तो मैं बलिहारी जाती हूँ ….इनका सौन्दर्य तो पल पल बढ़ता ही जा रहा है …अभी मैंने देखा था जो रूप छटा थी ….वो दुगुनी हो गयी है एक ही पल में ! अरे ! दर्शन तो करो । हरिप्रिया सबको दर्शन करने के लिए कह रही हैं ….ये किशोर हैं …वैसे भी सबसे सुन्दर अवस्था किशोर ही होती है …ये किशोर हैं …फिर निहारते हुए हंसती हैं ….फिर कहती हैं …ये मात्र किशोर कहाँ …ये तो नवल किशोर हैं …नये , नवीन उमंग लिए ..नवीन तरंगों से तरंगयित इनका मन अपनी किशोरी जू पर कैसा मचल उठा है ….और हमारी स्वामिनी तो इनसे भी ज़्यादा सौन्दर्य को अपने में समेट कर रखीं हैं …नवीन किशोरी हैं ये ….अरी ! अपने नयनों को सफल बनाओ …और निहारो इनको । युगल को अपलक निहारो ।
( हे रसिकों ! ब्याहुला के आगे की कोई विधि ही आरम्भ नही हो पा रही है …क्यों की ये सखियाँ बस इन रसिक दम्पति को निहार कर सुख लूट रही हैं …और उसी सुख को लुटा भी रही हैं , इन नवीन दुलहा दुलहिन को भी यही तो सुख दे रही हैं )
आहा ! कमल दल के समान श्याम सुन्दर के नयन कितने सुन्दर लग रहे हैं ….नयन ही नही इनके अंग अंग की शोभा हृदय में सुख बसरा रही है । अरी सखियों ! देखो …इन दुलहा के सिर में जो सेहरा बंधा है ….उसकी चमक से पूरा निकुँज चमक उठा है …..क्या सुन्दर लग रहे हैं ये ….हरिप्रिया सखी कहती हैं …और आत्ममुग्ध हो जाती हैं ।
छैल छबीले हैं ….और गर्व से मत्त हैं …..हंसती हैं हरिप्रिया जू , कहती हैं – मुख देखो कैसे गुप्प से फुला लिया है लाल जू ने । ये गर्व के कारण है …इन्हें गर्व हो रहा है कि मैं दुलहा बन रहा हूँ ।
अति सुख के कारण हरिप्रिया सखी के नेत्रों से अश्रु बहने लगते हैं …वो अपने साड़ी के पल्लू से नयन पोंछती हैं ….फिर कहती हैं ….”हमारे लाल ललना का ऐसे ही अचल सुहाग बना रहे” और इन्हें देखते हुए हमारे भाग जागते रहें । ये दोनों कितने अनुराग से भरे हैं ना ! फिर एक तृण तोड़कर फेंक देती हैं हरिप्रिया ….मुझे तो डर लगता है कहीं मेरी ही नज़र इनको न लग जाये ।
ये कहते हुए हरिप्रिया अपनी दृष्टि युगल से हटा लेती हैं ….क्यों ? इसलिए कि ज़्यादा देखेंगी तो नज़र लग जाएगी ….वो अब श्रीवृन्दावन को देख रही हैं ….हे सखियों ! आज ब्याहुला के अवसर में ये श्रीवन भी कितना आनंदित हो रहा है ना …..धन्य है ये ..जहाँ ऐसे परम अनुरागी दम्पति नित्य विहार में मग्न रहते हैं ….अरी ! ये दो तो हमारे प्राण हैं …..इनके बिना हमारा जीवन क्या ! यही तो नव नव रस को हम सबके सामने विस्तार करते रहते हैं ….ताकि हमें आस्वादन का लाभ मिले ….ये कहते हुए हरिप्रिया सखी उन्मत्त हो जाती हैं ….और नृत्य करने लगती हैं …उनके साथ अनन्त सखियाँ भी मधुर स्वर-ताल में नाच रही हैं ।
क्रमशः …
!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!
( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )
!! “यह सुख श्रीहरिप्रिया सहेलियों का है” !!
गतांक से आगे –
“जी , यह सुख तो हितूहरिप्रिया सहेलियों का ही है …ये सहेलियाँ इन सुख को अपने नयनों से निहार निहार कर जीती हैं ….ना , ये सुख ब्रह्मा आदि को कहाँ ? हाँ , इन रसीली छबीली सखियों की कृपा हो जाये तो ही इस सुख की प्राप्ति हो सकती है अन्यथा नही ।”
कल गौरांगी मिली ….वहीं युगलघाट में …चर्चा श्रीमहावाणी जी में वर्णित ब्याहुला उत्सव का ही है ….शाश्वत को यही कह रही थी कि …ये रस सामान्य जनों के लिए है ही नही । ये तो उनके लिए है….”जिनके सर्वस युगल किशोर” । और ये पूर्ण भाव सखियों में ही परिलक्षित होता है …इसलिए ये उस निकुँज में अपने युगलवर को निहारते हुए परम सुख की अवस्था में स्थित रहती हैं …..इतना सुख तो महायोगी या किसी सिद्धात्मा को भी नही है …..फिर गौरांगी महावाणी जी के “सेवा सुख” की एक पंक्ति गुनगुनाती है ।
“इनको सुख इनहीं बने , मुख बरने कहा विशेष”
ये सखियाँ सुख रूपा हैं …..ये सुख देने वाली हैं ….ये युगल को सुख देकर परम सुख का अनुभव करती हैं …..गौरांगी कहती है ….इनको इतना सुख है …जिसका कोई दूसरा वर्णन नही कर सकता …अजी ! ये सखियाँ स्वयं भी अपने सुख का वर्णन नही कर सकतीं । गौरांगी ये कहते हुए मौन हो जाती है …फिर आगे कहती है …ये सखियाँ स्वयं सुख स्वरूपा हैं …यानि सुख और सखी में कोई भेद ही नही है ……
यह उत्सव को सुख समै , समझे जो समझनहार ।
हितू सहेली हरिप्रिया , जीवत नैंन निहार ।।
देखो ! ये जो उत्सव चल रहा है निकुँज में इन दिनों ….ये उत्सव ही सुखात्मक है ….इसको सब नही समझ सकते …कैसे समझें ….क्यों कि ये दोउ लाल ललना , दो तो हैं नहीं …एक ही हैं …दो तो ये सुख बरसाने के लिए बनते हैं …बाकी तो एक ही हैं । इस रस रहस्य को ये सखियाँ जानती हैं ……
किन्तु यहाँ तक पहुँचे कैसे ?
शाश्वत को दिक्कत है …क्यों की इसके ज्ञान के संस्कार बहुत गहरे गए हैं चित्त में…इसलिए ये पूछता है ।
“प्राकृत सम्बन्ध छूटे और भावात्मक देह परिपक्व हो ….तब जाकर हरिप्रिया सहेलियों का भाव संग प्राप्त होता है …वाणी जी के नित्य पाठ से ये संग होगा, फिर कृपा” । गौरांगी सटीक समाधान करती है । किन्तु एक बात वो अन्तिम में बोली ….साधक ध्यान दें ….वो बड़े प्रेम से “उत्साह सुख” का एक पद गाती है …..
“मिलि चलौ मिलि चलौ मिलि चलें सुख महा , बहुत हैं विघ्न जगमगहि माहीं ।
मिलिचलें सकल मंगल मिलें सहजहिं, अनमिलि चलें सुख नहिं कदाहीं ।।
मिलि चलें होत सौं अनमिलि चलें कहाँ , फूटते होत हैं फटफटा हीं ।
हरिप्रिया जू कौ इह परम पद पावनौं , अतिहि दुर्लभ महासुलभ नाहीं ।।”
ये रसोपासना है …ये रस की उपासना है …इसलिए इसमें उत्सव हैं …महोत्सव हैं …अकेले की साधना नही है ये ….इसमें तो सब मिल जुलकर चलो ….कैसे मिलजुलकर ? अपने आचार्य सखी जू के साथ ….उनकी अनुगत हरिप्रिया सखी जू के साथ …साथ का अर्थ है …उनकी वाणी जी को उतारो …वो जो कह रही हैं …उसको गाँठ बाँध लो ..अकेले , अपने बुद्धि के दम से तुम योगादि में तो छलाँग लगा लोगे …किन्तु इस रस निकुँजोपासना में तुम प्रवेश भी नही पा सकोगे ।
अजी ! उत्सव के लिए सहेलियाँ नही चाहिए ? अकेले उत्सव थोड़े ही होता है …कोई बंदनवार बांधे ..कोई रंगोली काढ़े …कोई दुलहा दुलहिन को सजाए …कोई मंगलगीत गाये …कोई नाचे कोई बजाये ……ये होता है उत्सव ! इसलिए बहुत संकट हैं इस जगत में …..अपनी सहेलियाँ बनाओ …और इस रस निकुँज का सुख लूटो । कहाँ भटक रहे हो ।
गौरांगी की बातें मैं युगलघाट के नाव में बैठकर सुन रहा था ….मुझे रोमांच हुआ ….उसी समय निकुँज में हो रहे ब्याहुला में , मैं भी पहुँच गया था ….अनन्त सखियाँ हैं जो इस उत्सव का सुख लूट रही हैं ….सुख दे रही हैं ।
आओ , आओ ना ! निकुँज के इस ब्याहुला उत्सव में ……
!! पद !!
देखौ री ! दिन दूल्हे लाल भाँवती को भाँवतौ ।
नवल किशोरी गोरी सँग लियें , हिय में हरष बढ़ावतौ ।।
सुन्दर श्याम कमल दल लोचन , अंग अंग छबि पावतौ ।
रसिक शिरोमणि रसिक लाड़िलौ, रस बरसा बरसावतौ ।।
माथे मुकुट मनोहर सोहै , मनि मोती झलकावतौ ।
छैल छबिलौ गर्व गहीलौ , रँग रँगीलौ सुहावतौ ।।
लाल लली कौ अचल सुहाग , हमारें भाग जगावतौ ।
अति अनुराग भरयौ अलबेलौ , लोयन लाग लगावतौ ।।
वृन्दावन नव नित्य कुँज में , नित विलास विलसावतौ ।
श्रीहरिप्रिया प्रान को प्रीतम , नव नव सुख सरसावतौ ।। महा. उत्साह सुख .144 !
निकुँज , उत्सव के रँग में रँग उठा है ….चारों ओर सखियाँ ही सखियाँ दिखाई दे रही हैं ..उनकी अंगकांति से पूरा निकुँज झलमला रहा है …..नभ में चन्द्रमा पूर्ण है …..नही नही …आप तिथि को मत देखिये …यहाँ चन्द्र पूर्ण ही रहता है …..निकुँज का चन्द्रमा सखी ही हैं ….सखी ही चन्द्र सूर्य बनकर उत्सव की सुन्दरता को और बढ़ाती रहती हैं ….रितु भी यहाँ सखियाँ हैं ….वृक्ष आदि सब सखियाँ ही हैं ।
अब निहारिये इन युगल को …….
कैसे सुन्दर लग रहे हैं …देखो ! हरिप्रिया सखी कहती हैं …..वहीं विराजे हैं …रजत पाटे में …और दुलहा दुलहन का भेष है …अरी सखियों ! इस झाँकी पर तो मैं बलिहारी जाती हूँ ….इनका सौन्दर्य तो पल पल बढ़ता ही जा रहा है …अभी मैंने देखा था जो रूप छटा थी ….वो दुगुनी हो गयी है एक ही पल में ! अरे ! दर्शन तो करो । हरिप्रिया सबको दर्शन करने के लिए कह रही हैं ….ये किशोर हैं …वैसे भी सबसे सुन्दर अवस्था किशोर ही होती है …ये किशोर हैं …फिर निहारते हुए हंसती हैं ….फिर कहती हैं …ये मात्र किशोर कहाँ …ये तो नवल किशोर हैं …नये , नवीन उमंग लिए ..नवीन तरंगों से तरंगयित इनका मन अपनी किशोरी जू पर कैसा मचल उठा है ….और हमारी स्वामिनी तो इनसे भी ज़्यादा सौन्दर्य को अपने में समेट कर रखीं हैं …नवीन किशोरी हैं ये ….अरी ! अपने नयनों को सफल बनाओ …और निहारो इनको । युगल को अपलक निहारो ।
( हे रसिकों ! ब्याहुला के आगे की कोई विधि ही आरम्भ नही हो पा रही है …क्यों की ये सखियाँ बस इन रसिक दम्पति को निहार कर सुख लूट रही हैं …और उसी सुख को लुटा भी रही हैं , इन नवीन दुलहा दुलहिन को भी यही तो सुख दे रही हैं )
आहा ! कमल दल के समान श्याम सुन्दर के नयन कितने सुन्दर लग रहे हैं ….नयन ही नही इनके अंग अंग की शोभा हृदय में सुख बसरा रही है । अरी सखियों ! देखो …इन दुलहा के सिर में जो सेहरा बंधा है ….उसकी चमक से पूरा निकुँज चमक उठा है …..क्या सुन्दर लग रहे हैं ये ….हरिप्रिया सखी कहती हैं …और आत्ममुग्ध हो जाती हैं ।
छैल छबीले हैं ….और गर्व से मत्त हैं …..हंसती हैं हरिप्रिया जू , कहती हैं – मुख देखो कैसे गुप्प से फुला लिया है लाल जू ने । ये गर्व के कारण है …इन्हें गर्व हो रहा है कि मैं दुलहा बन रहा हूँ ।
अति सुख के कारण हरिप्रिया सखी के नेत्रों से अश्रु बहने लगते हैं …वो अपने साड़ी के पल्लू से नयन पोंछती हैं ….फिर कहती हैं ….”हमारे लाल ललना का ऐसे ही अचल सुहाग बना रहे” और इन्हें देखते हुए हमारे भाग जागते रहें । ये दोनों कितने अनुराग से भरे हैं ना ! फिर एक तृण तोड़कर फेंक देती हैं हरिप्रिया ….मुझे तो डर लगता है कहीं मेरी ही नज़र इनको न लग जाये ।
ये कहते हुए हरिप्रिया अपनी दृष्टि युगल से हटा लेती हैं ….क्यों ? इसलिए कि ज़्यादा देखेंगी तो नज़र लग जाएगी ….वो अब श्रीवृन्दावन को देख रही हैं ….हे सखियों ! आज ब्याहुला के अवसर में ये श्रीवन भी कितना आनंदित हो रहा है ना …..धन्य है ये ..जहाँ ऐसे परम अनुरागी दम्पति नित्य विहार में मग्न रहते हैं ….अरी ! ये दो तो हमारे प्राण हैं …..इनके बिना हमारा जीवन क्या ! यही तो नव नव रस को हम सबके सामने विस्तार करते रहते हैं ….ताकि हमें आस्वादन का लाभ मिले ….ये कहते हुए हरिप्रिया सखी उन्मत्त हो जाती हैं ….और नृत्य करने लगती हैं …उनके साथ अनन्त सखियाँ भी मधुर स्वर-ताल में नाच रही हैं ।
क्रमशः …


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