!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!
( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )
!! ये कहते हुए हरिप्रिया नाचने लगीं !!
॥ दोहा ॥
लाल पीयकी चितवनी, टोनाभरी बिसाल ।
गौर रूप अंजन अँजों, नैननि में रहें बाल ॥
॥ पद ॥
सुंदर स्याम सलौने पिय की चितवन माँही टोना जू।
गौर रूप चितवनिमें रँगि हूँ करूँ कामन रस लोना जू ॥
प्रिया पदन को होय महावर नख पदतरी रँगाऊँ जू।
कुंवरि चरन आभा को नूपुर होय चरन चिहुटाऊँ जू ॥
कंचन तन में मन पगिया करि जामें अँग लपटाऊँ जू।
वाही के पटकौ पटुका है करि के करि जकराऊँ जू ॥
रूप गुनन गूँथन की सूथन है कें तन लगि जाऊँ जू।
मैंननि में पिय ऐननि करिकें गाढे गहनि गहाऊँ जू ॥
रूपजाल कटि किंकिनि है कें हिलग हार हिये लाऊँ जू।
कुँवरि-मनोरथ माला है कें चौकी चित्त कराऊँ जू ॥
अति सुकुँवार भुजनि दुति हैं कें बाजूबंध बँधाऊँ जू।
प्यारी पद छबि पहुँची हैं कें पहुँचनि में पहुँचाऊँ जू ॥
अँगुरिन छबि है मुंदरी अँगुरिन नख अनुराग रँगाऊँ जू।
कर कमलन की प्रभा होय कें हस्तकमल मिलि जाऊँ जू ॥
करको करपर फूल लगाऊँ निरखि निरखि सुख पाऊँ जू।
सिरै पेच तन जोति जगमगैं जगमग जोति जगाऊँ जू ॥
कलँगी में मधि नायक हीरा तेज पुंज झलकाऊँ जू।
करननि दुति है कुंडल करननि नगन सुजटित जड़ाऊँ जू ॥
बेसरि को मोती मन करिके, नासा मंड मँड़ाऊँ जू ।
बंक चितवनी होय प्रिया की , नैंननि माहिं समाऊँ जू ।।
तिलक भाल मोतिन के अछित, प्रिया हंसनि दुति लाऊँ जू ।
अधर दसन में अरुन पीक ह्वै, अँग अंग माहिं रमाऊँ जू ।।
हेमांगी हिय माहिं धारिके , पिय प्राननि रलि जाऊँ जू ।
जकरि तकरि प्रिया के उर लाऊँ , सुख सौं तहाँ बसाऊँ जू ।।
अदन पान मधु सुधा कराऊँ , मन वांछित सब द्याऊँ जू ।
श्रीहरिप्रिया निहारि रूप छबि , छबि छबि माहिं छकाऊँ जू ।।महा . उत्साह सुख . 148
*जिस साधक की आत्मा विशुद्ध प्रेम रंग में रंग गयी है ….उसे उल्लास और उमंग बना ही रहता है …वो उत्सव में ही जीता है …और जो उत्सव में जीता है …वो अहंकार से शून्य होता चला जाता है …उसके अंदर आत्म संगीत झंकृत हो उठती है …फिर “पौरुष” का कहीं स्थान नही रह जाता ….फिर तो समर्पण , पूर्ण समर्पण ….तब लगता है कि अहो ! मैं इन सनातन जोरी के लिए कुछ करूँ …..ये मेरे लिए कुछ करें …ये भाव अब जा चुका है …अब तो प्रेम इतना उच्च और विशुद्ध स्थिति पर पहुँचा है कि …लग रहा है …मैं इनके लिए कुछ करूँ ..जिससे इनको अच्छा लगे …उत्सव, और उत्साह से भर जाये ..क्या करूँ ? प्रेम से भरे उस साधक को लगता है …मैं अपने प्रिय को अपना सब कुछ दे दूँ ….बस ये आनन्द में रहें …इनका आनन्द मैं और बढ़ा दूँ ।
हे रसिकों ! ये नित्य निकुँज का ब्याहुला उत्सव है ….इसलिए ये अद्भुत है …..यहाँ सखियाँ गीत गाती हैं …और कामना करती हैं ….निहारती रहती हैं अद्भुत रजत पाटे में विराजे नव दुलहा दुलहिन को …और खो जाती हैं …..युगल दम्पति के अंगों से प्रकाश झलमला रहा है …सौन्दर्य बाहर झांक रहा है ….एक नील ज्योति है और एक स्वर्ण की आभा है …जिससे समस्त जगमगा रहा है …सखियाँ आपस में बतियाती हैं ….हंसती और फिर खिलखिलाती हैं ….इनके मन में कामना उठती है ….तो ये आपस में अपनी सहचरियों को बताती हैं ….अष्ट सखियाँ हैं जो युगल वर के निकट खड़ी हैं ….इन सबमें प्रमुखा श्रीरंगदेवि जू हैं …वो सुन्दर चँवर ढुरा रही हैं …..उनके पीछे हितू सहचरी जू हैं …जो अपलक निहार रही हैं युगल को ….किन्तु मन में आता है कि ..ज़्यादा निहाऊँगी तो नज़र न लगे इसलिए नज़र हटाकर अपनी सखियों को देख लेती हैं …इनकी प्यारी सखी हैं हरिप्रिया …हरि प्रिया इन्हीं को देख रही हैं ….फिर युगल को । वो मुस्कुराकर अपनी सखी हरिप्रिया को जब देखती हैं ….तो हरिप्रिया आनंदित हो उठती हैं …हरिप्रिया उल्लास से भरकर गीत गाने लगती हैं …युगल को देखदेख बलैयाँ लेती हैं ……हरिप्रिया से युगल वर भी बहुत प्रसन्न हैं ….अब इसे क्या चाहिए …युगल की प्रसन्नता । हरिप्रिया देखती हैं की अपने विवाह में ये किशोर इतने प्रसन्न हैं कि अपनी प्यारी किशोरी जू को टेढ़ी नज़र से देखते हैं ….नही , पहले तो सीधे सीधे ही देख रहे थे …किन्तु सखियों ने जब छेड़ना आरम्भ किया तब नज़र हटा ली …अब टेढ़ी दृष्टि से अपनी दुलहन को देख रहे हैं …..किन्तु वह बंक भृकुटी स्थिर हो गयी है ….वो बस देखे ही जा रहे हैं ….बहुत देर हो गयी है ….ये क्या समाधि ही लग गयी ।
अब देखिए …..हरिप्रिया मुस्कुराती हैं ….वो अपनी सखी जू ..श्रीहितू सहचरि जू की ओर देखती हैं …फिर दोनों युगल को देखते हैं …..किशोर अपनी किशोरी को ही देखे जा रहे हैं ..टेढ़ी नज़र से …किन्तु सखियों को तो समझ में आही गया है ।
ये ऐसे क्यों देख रहे हैं ? निकुँज में बोलने की आवश्यकता नही है …वहाँ तो बिना बोले ही सब समझ लिया जाता है …हरिप्रिया ने श्रीहितू सहचरी जू से पूछा था ….वो बस मुस्कुराती हैं …फिर आनंदित हो उठती हैं …..इक टकी लगाकर श्याम सुन्दर देख रहे हैं ….तभी हरिप्रिया प्रेम से उन्मादी हो उठती हैं और हंसती हैं…उसकी हंसी सब सुनते हैं …युगल का भी ध्यान हरिप्रिया की ओर जाता है …तब वो अपने आँचल से हंसी को छुपाती हैं…किन्तु अब उससे रहा नही जाता क्यों की ….उसे वो दीख गया है ….जो शायद किसी सखी को नही दीखा ….वो अपने को सावधान करके कहती हैं अरी सखियों ! देखो तो हमारे लाल जू के नयनों में हमारी प्रिया जू की छबि उभर आयी है ….ये आनन्दमय क्षण है….देखो ! लालन के नयनों में प्रिया जू की छबि ।
हरिप्रिया की बात सुन कर सब सखियाँ लाल जू के नेत्रों में देखने लगती हैं ….हाँ , हाँ , प्रिया जू तो इनके ही नयनों में ही हैं ….एक सखी कहती है । हरिप्रिया कहतीं हैं ….”अपने लालन ने प्रिया जू को ही अंजन बनाकर अपने आँखों में आँज लिया है”….ओह ! “तभी लाल जू के नयनों में इतना जादू भरा है , प्रिया जू हैं ना इसलिए”। हरिप्रिया ये भी कह देती हैं ।
कुछ देर के लिए रस सिंधु की उछाल मनौं निकुँज में चल पड़ी थी …उसी में सब सखियाँ डूब रही हैं ….कुछ देर के बाद सावधान होकर हरिप्रिया कहती हैं …जादू है इनके आँखों में …. प्रिया और लाल के रूप दर्शन करके मुझे तो यही लग रहा है …..क्या लग रहा है ? रहने दे …हरिप्रिया बोली ….क्यों रहने दे ,बोलो ? सखियाँ पूछती हैं ….मैं तो कह रही थी कि इन नयनों में जिसमें हमारी प्रिया जू के दर्शन हो रहे हैं ….इन नयनों में मैं अंजन बनकर अँज जाऊँ ! ये क्या कह रही हो आप …हंसते हुए सब सखियाँ हरिप्रिया को पूछती हैं …क्यों ठीक नही कहा क्या ? अच्छा , ये नही तो महावर बन जाऊँ और हमारी प्रिया जू के चरणों से लग जाऊँ ! हरिप्रिया की ये स्थिति देखते ही बन रही थी ,और सखियाँ उनकी भाव दशा को समझ रही हैं ….ब्याहुला में ये उन्मद हो रही हैं ।
हरिप्रिया हंसती हैं …फिर कहती हैं ..नही नही …मैं नूपुर बन जाती हूँ …और श्रीकिशोरी जू के चरणों से बंध जाती हूँ ….ये कहते हुए हरिप्रिया को रोमांच हो रहा है । फिर कुछ देर बाद कहने लगती हैं …नही , नही …ये फिर भी दूरी है …”क्यों न मैं स्वर्ण कांति बनकर दुलहन के अंगों से ही लिपट जाऊँ” , ओह ! हरिप्रिया के आनन्द का कोई थाह नही है आज ….फिर दृष्टि गयी दुलहा सरकार में …हाँ , “इनको देखते हुये इन्हीं को अपने नयनों में बन्द कर लूँ”….ये कहते हुए हरिप्रिया नयनों को बंद कर लेती हैं । कुछ ही पलों में फिर नयनों को खोल हरिप्रिया प्रिया जी को देखकर कहती हैं ……”नही ,मैं तो प्रिया जू की करधनी बनूँगी …उनकी पतली सुन्दर कटि में बंधी रहूँगी ….मेरी स्वामिनी मुझे अपने साथ ही लिए चलेंगी …लाल जू जब मिलेंगे अपनी प्यारी से तब वो मुझे भी खोलेंगे ….ओह ! युगल के रस प्रसंग का मैं भी एक हिस्सा हो जाऊँगी”।
ये सुनते ही प्रिया जू हंसीं ….तो हरिप्रिया तुरन्त बोलीं ….नहीं , नही , मैं तो प्रिया जू के मनोरथों की माला बनूँगी ….वाह ! कितना आनन्द आएगा …मनोरथ बनकर प्रिया जू के चित्त की चौकी में चढ़ी रहूँगी । हरिप्रिया कहती हैं । प्रिया जू , लाल जू को हरिप्रिया की ओर दिखाती हैं …दिखाते समय बाँह उठ गयीं हैं प्रिया जी की …तो हरिप्रिया कहती हैं ….मेरी तो इच्छा है कि इन सुन्दर बाहों की आभा मैं बन जाऊँ …नही नही , बाजूबंद बनकर इनकी बाहों में ही रहूँ । नही, इनकी पतली और लम्बी उँगली तो देखो …मुझे तो लग रहा है इन उँगलियों की शोभा बन जाऊँ ….फिर हरिप्रिया कहती हैं …..”नख लालिमा लिए हैं …ये लालिमा भी मैं ही बनूँ” नही नही , मैं हथ फूल बनकर इनके हाथों में ही सदा के लिए रह जाऊँ । हरिप्रिया के मनोरथ अद्भुत हैं ….सब सखियाँ सुनकर गदगद हो रही हैं …..हरिप्रिया की ओर अब लाल जू ने देखा तो हरिप्रिया बोली …”इनके सेहरा की कलंगी बन जाऊँ”….ओह ! क्या सुख मिलेगा ….फिर कहती हैं …नही नही …सेहरा में जो मणि लगी है ….झलमला रहा है …उसकी झलमलाहट बन जाऊँ । नही , इनके कानों में जो कुण्डल हैं ना …वो कुण्डल मैं बनूँ ….क्या अद्भुत सुख मिलेगा…अपने छाती में हाथ रखकर आह भरते हुए हरिप्रिया कहती हैं । नही , नथ बेसर बनूँ ….फिर प्रिया जू की ओर देखकर कहती हैं …प्रिया जू की नथ बेसर बनूँ …नहीं , दोनों की बनूँ….फिर हंसती हैं हरिप्रिया । ये अद्भुत कामना हरिप्रिया की इस निकुँज में आज प्रकट हो रही थी । इनके माथे की तिलक बन जाऊँ ….मोती के अक्षत बनकर इनकी शोभा को और बढ़ाऊँ …..ये प्रिया जी जब हंसती हैं …ओह ! इनकी हंसी बन जाऊँ …..हंसते हंसते इनके कपोल लाल हो गये हैं …वो लालिमा भी मैं बन जाऊँ ….
हे हरिप्रिये ! तू चाहती क्या है ? श्रीहितू सखी जू ने पूछा ।

तब हरिप्रिया बोलीं ….कुछ नही , मैं तो यही चाहती हूँ कि ये दोनों ऐसे ही मिले रहें ….इनके इसी मिलन को देख देखकर मैं छकी रहूँ ….इसी मिलन उत्सव की झाँकी में , मैं अपने को मिटा दूँ ।
ये कहते हुए हरिप्रिया नाचने लगीं ….उनकी जितनी सखियाँ थीं वो भी नाच उठीं थीं …दिव्य शहनाई बज उठी थी …पूरा निकुँज उत्सव में डूब गया था ।
क्रमशः ….

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