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July 6, 2025 6:04 pm

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श्री जगन्नाथ मंदिर सेवा संस्थान दुनेठा दमण ने जगन्नाथ भगवान की रथ यात्रा दुनेठा मंदिर से गुंडीचा मंदिर अमर कॉम्प्लेक्स तक किया था यात्रा 27 जुन को शुरु हुई थी, 5 जुलाई तक गुंडीचा मंदिर मे पुजा अर्चना तथा भजन कीर्तन होते रहे यात्रा की शुरुआत से लेकर सभी भक्तजनों ने सहयोग दिया था संस्थान के मुख्या श्रीमति अंजलि नंदा के मार्गदर्शन से सम्पन्न हुआ

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!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!-( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )-!! सखी ! मेरी यह अभिलाषा है !! : Niru Ashra

!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!-( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )-!! सखी ! मेरी यह अभिलाषा है !! : Niru Ashra

!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!

( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )

!! सखी ! मेरी यह अभिलाषा है !!

गतांक से आगे –

हे रसिकों ! वो प्रेम तत्व एक ही है….किन्तु निकुँज में ये चार रूपों में रूपायित हो जाते हैं….ये चार आवश्यक हैं लीला के लिए ….फिर ये निकुँज की लीला तो नित्य लीला है….कोई अवतार काल की बात तो है नही ….अब देखिए प्रेम है तो एक ही …लेकिन उसके चार रूप निकुँज में दर्शाये हैं श्रीमहावाणी में । प्रेम का ही आनन्द रूप हैं श्रीश्याम सुन्दर , उन आनन्द की आल्हादिनी हैं श्रीराधिका जी , अब लीला के लिए भूमि तो चाहिए …तो वो लीला भूमि है श्रीवृन्दावन और सखियाँ हैं इन युगल की इच्छा शक्ति । निकुँज लीला में सखियाँ ही मुख्य हैं ….ये बात आप अच्छी तरह से समझ लीजिए ….सखियाँ इन युग्म तत्व की इच्छा हैं ….यही उत्सव की भूमिका बनाती है …ऋतुओं को बुलाती हैं ….यहाँ ऋतु भी मायिक नहीं हैं …ये सखियाँ ही ऋतु बनकर छा जाती हैं निकुँज में ….जब ये सखियाँ इच्छा करें …वही ऋतु प्रकट है । फिर उत्सव होते हैं …ऋतु अनुसार । काल की गति यहाँ तक है नही …इसलिए रस की जो धारा बहती है वो कब तक बहेगी ये सखियों पर ही छोड़ना पड़ेगा । यही है निकुँज …यही है निकुँज कि रीत ..निहार रही हैं सखियाँ इन दम्पति को …तो बस निहार ही रही हैं …काल का वहाँ कोई हस्तक्षेप नही हो सकता । किन्तु जब आरम्भ में ही श्रीमहावाणी कह देती है कि …..”इच्छा सखी अनूप” यानि इच्छा ये सखियाँ हैं …तो इसका मतलब ही यही हुआ कि …सखियाँ तो युगल की इच्छा को ही पूरा कर रही हैं …अजी ! इन सखियों की अपनी कोई इच्छा नही है …मैं पूर्व में ही कह चुका हूँ कि ….सखियों के पास मन ही नही है …युगल के मन से ही ये सब कुछ कर रही हैं ।

अद्भुत रस का विलास हो रहा है ….युगल चन्द्र की चकोरी ये सखियाँ दुलहा दुलहिन को देख देखकर मुग्ध हो जाती हैं ….और हाँ , इतनी मुग्ध हैं कि ….उन्हीं में खो जाती हैं ।


                         ॥ दोहा ॥

छबि छबि माहिं छकाय कें, निरखूँ रंग अपार ।
भेद भरे गुन गायकें, लड़ऊँ दोउ सुकुँवार ॥
दोउ सुकुमार लड़ायहूँ, अद्भुत रूप बनाइ ।
नील पीत रस रंग के, नव नव रंग कराइ ॥

                ॥ पद ॥

नील पीत रंग सूत रँगाऊँ, नखसिख अंग मपाऊँ जू।
डोरा करि करि उर पहिराऊँ मधुकर करि रस पाऊँ जू ॥
लोयन को अंजन लै-लै के कंजन माहिं अँजाऊँ जू।
मनरंजन कूँ हंजन करिकें कुंजन माहिं बसाऊँ जू ॥
बाम चरन प्रिया आभा लैहूँ छबि जल माहिं मिलाऊँ जू।
श्रीराधा मंत्रनि मंत्राऊँ नैननि है के प्याऊँ जू॥
मानसमुद को हंस बनाऊँ मोतिन-थार चुगाऊँ जू।
नवल महल में बास कराऊँ प्रेम-सुधा सरसाऊँ जू॥
रूप-सरोवर में सपराऊँ कंचन बरन बनाऊँ जू।
सब रस सुखद बसन पहिराऊँ हित अँगराग लगाऊँ जू॥
कंचनमनि मर्कतमनि ल्याऊँ , भूषण प्रेम जड़ाऊँ जू ।
रचि रचि तन सिंगार सजाऊँ , सरस किलोल कराऊँ जू ।।
कल कदम्ब छाया बैठाऊँ , अमृत फल अँचवाऊँ जू ।
श्रीहरिप्रिया पद रूप रराऊँ , हंस हंसिनि हुलसाऊँ जू ।। महा. उत्साह सुख 149

****कोकिल गा रहे हैं , कीर बोल रहे हैं , हंस हंसिनी यमुना में जल केलि कर रहे हैं ….

लताओं ने पुष्प प्रकट कर दिये हैं ….अनन्त पुष्प श्रीनिकुँज में फैल गये हैं …पुष्पों की रंगोली बन रही है ….बनाया नही है ….अपने आप । सुगन्ध की वयार चल पड़ी है ….गीत संगीत बज उठे हैं ….शहनाई की ध्वनि मंगल का विस्तार कर रही है ……

वहाँ सुन्दर ब्याह मण्डप सजा है …. रजत पाटे पर विराजमान हैं युगल सरकार ….दोनों की अवस्था किशोर है ….छोटे छोटे हैं दोनों ही …सखियाँ तो इन्हें गोद में लेकर भी चल देती हैं । यही आज दुलहा दुलहन बनके बैठे हैं ….सेहरा माथे पर सजा है ….कलंगी लगी है …इधर उधर देख रहे हैं लाल जी ….प्रिया जी शरमाई लजाई सी बैठी हैं …आहा ! सुन्दरता की राशि हैं अपनी प्रिया जू तो , उनकी सुन्दरता का क्या बखान ! चारों ओर अनन्त सखियाँ हैं ….वो सब चित्रलिखी सी खड़ी होकर बस अपने इन “युगल प्राण” को देखे जा रही हैं …..श्रीरंगदेवि जू चँवर ढुरा रही हैं ….उनके पीछे श्रीहितू सखी जू शान्त भाव से दोनों को मण्डप में बैठे देख रही हैं …और बलैयाँ लेती जा रही हैं । इन सबके मध्य हरिप्रिया सखी बहुत आनंदित हैं …..वो इन दोऊ लाल ललना को देख देखकर अभिलाषा करती हैं ….इनकी अभिलाषा तो अद्भुत है ….क्यों न हो युगल चन्द्र की चकोरी जो हैं ये सब ।

*””मेरी तो यही अभिलाषा है”….आह भरते हुए हरिप्रिया सखी अपनी छाती में हाथ रखकर कहती हैं । और क्या क्या अभिलाषा है , सखी जू ! सब बता दो आज तो ? हरिप्रिया की सखियाँ इनसे पूछती हैं ….तो ये कहती हैं …”मेरी तो यही अभिलाषा है कि इन युगल की छबि देखकर ही मैं छकी रहूँ और इन्हीं के गुण गा गाकर मैं इन दोउ सुकुमार को लाड़ लड़ाती रहूँ …अरी सखियों ! प्रेम के नीले और पीले धागों से मैं इनका शृंगार करूँ”। और मुझे कुछ नही चाहिए ….इतना कहकर हरिप्रिया मौन हो जाती हैं ….हरिप्रिया ही इस ब्याह के रंग को गाढ़ा कर रही हैं….इसलिए जब ये चुप हो जाती हैं …तब सब इनकी ओर ही देखते हैं ….यहाँ तक कि …दुलहा दुलहन भी ।

“सखी ! मैं क्या कहूँ …मेरी तो यही अभिलाषा है कि ….प्रेम के जो पीले और नीले रंग है ना ….उनके धागे से मैं इनको सजाऊँ , सखी ! एक एक प्रेम का डोरा चुनकर इनके हृदय का श्रृंगार करूँ” , क्या इनका हृदय सजा नही है ? एक सखी मुस्कुराते हुए पूछती है तो हरिप्रिया कहती हैं …”नही नही , सजा है …अरे ! जिस हृदय में हमारी प्यारी जू विराजमान हैं वह हृदय तो सजा ही है …किन्तु सखी ! मेरी तो इच्छा होती ही है ना ..कि और सजाऊँ “ …..ये कहते हुए हरिप्रिया लाल जू की ओर देखती है ….फिर वो हंसते हुए कहती है ….”ये लालन तो मधुकर हैं , भ्रमर हैं ना , सखी ! इन्हें तो मैं अपने हाथों से कलि के रस का पान कराऊँ” । इसका अभिप्राय क्या है ? सखियाँ पूछती हैं …तो हरिप्रिया सखी साड़ी के पल्लू से अपना मुँह ढँकते हुये , शरमाने स्वाँग करते हुए कहती हैं ….”हए ! ये किशोरी जू ही तो कुसुम कलि हैं, समझती नही है सखी !” ये सुनते ही पूरा निकुँज और प्रसन्नता से भर गया , उन्मत्त हो हंसती हैं हरिप्रिया ….फिर कहती हैं …”प्रिया जू के नयनों से अंजन लेकर इनके कंजन यानि मुख कमल में लगा दूँ “। इसका क्या अर्थ है ? सखियाँ फिर पूछती हैं तो हरिप्रिया अपने अधरों में हास्य बिखेरते हुये कहती हैं ….”प्यारी जू अपने नयनों से चूमेंगी लाल जू के मुख कमल को”….ये सुनते ही लाल जू ने अपनी प्रिया जू को देखा वो तो शरमा के नीचे ही देख रहीं थीं । हरिप्रिया को अब और आनन्द आरहा है ….लजाते देखा प्रिया जू को …तो वो और बोलीं …”मेरी तो ये अभिलाषा है कि ब्याह के बाद इन दोनों को एक कुँज में बन्द कर दूँ …ताकि इनकी अभिलाषा भी पूरी हो जाए “। बस ये सुनते ही पूरा निकुँज हंस पड़ा था …लाल जू लाड़ली जू दोनों मंद मंद मुस्कुरा रहे हैं । हरिप्रिया इतने पर ही कहाँ रुकने वाली थीं ….”मैं तो चाहती हूँ उस कुँज में , मैं जाऊँ …और वहाँ जाकर प्रिया जू के वाम चरण की आभा लेकर श्याम के श्यामलता की जल में मिलाऊँ …और श्रीराधा राधा राधा महामन्त्र का जाप करते हुए उस जल को नेत्रों के माध्यम से पी जाऊँ “। ओह ! अनन्त सखियाँ हरिप्रिया की बातें सुनकर सुख सिंधु में उतर चुकी हैं । हरिप्रिया सखी अपनी अभिलाषा अभी ओर जब बताने लगीं ….तब युगल भी उसकी बातों को ध्यान से सुनने लगे । “मैं तो लालन को प्रिया जू के मानस का हंस बना दूँ …और प्रिया जू के मानस में जो प्रेम के मोती हैं उन्हें चुगाऊँ , इतना ही नही …मैं इन दोनों रसिक दम्पति को ….रंगमहल में वास कराकर इन्हें प्रेमामृत रस से आकंठ डुबो दूँ”।

“अरी सखियों ! ये सांवले हैं ना , मैं इन्हें गोरा बना दूँगी” ….हरिप्रिया फिर हंसते हुए कहती हैं ….लाल जू हरिप्रिया की ओर देख रहे हैं …हरिप्रिया कान पकड़ कर संकेत करती है …लालन ! ब्याहुला है , आज क्षमा। प्रिया जी हंस रही हैं …हरिप्रिया मत्त होकर कहती हैं …”प्यारी जू के रूप सरोवर में इनको स्नान कराकर मैं गोरा बना दूँगी”। ये सुनते ही अनन्त सखियाँ करतल ध्वनि करने लगीं थीं ।

“फिर सुन्दर प्रेम का लेप कर इन्हें प्रेम के ही वस्त्र पहनाऊँगीं , सखी ! “फिर तो कंचन मणि और नीलमणि रूपी इन युगल को मिलाकर मैं सुख पाऊँगी”। हरिप्रिया कहती हैं …”सखियों ! इन दोनों का शृंगार करूँ ….फिर इन दोनों को कदम्ब की छाँयां में बैठाकर अमृत फल चखाऊँगीं”।

एक सखी बोली ….अब ये अमृत फल क्या है ? हरिप्रिया बोलीं …यहीं सारे भेद खुलवायेगी क्या ? ये सुनते ही सब हंसने लगी हैं ….श्रीरंगदेवि जू कहती हैं ….अब बता दे हरिप्रिये ! तो हरिप्रिया कहती हैं ….”हमारी प्रिया जू के अधर रस ही तो इन लाल जू के अमृत हैं …मैं उसी अमृत को पिलवाऊँगी…और इनके सुन्दर चरणों में ही बैठ कर अपने को अनुरक्त कर दूँगी”, ये कहकर हरिप्रिया नृत्य करने लगीं थीं ….चारों ओर से – जै हो , जै हो ..जै हो …कि ध्वनि गूंज उठी थी ।

पूरा निकुँज हरिप्रिया की अभिलाषा सुनकर आनंदित हो उठा था ।

क्रमशः ….

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