महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (057)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
जो जैसिह तैसेहि उठ धायीं-2
हृदय में सोई हुई चीज का उल्लेख करें। कृष्ण कृषक हैं किसान हैं। एक सज्जन आये कृष्ण के पास, बोले- मैं बिलकुल निर्वासन हँ, श्रीकृष्ण। मुझे तत्त्वज्ञान हो गया है, मेरे मन में कोई वासना नहीं है। कृष्ण बोले- अच्छा; और थोड़ी देर में, महाराज, कहीं से घूम-फिरके साड़ी पहनकर, लड़की बनकर, सामने आ गये। अब उन निर्वासन जी महाराज के मन में जो वासनाएँ छिपी हुई थीं, उस लड़की को देखते ही प्रकट हो गई। अब निर्वासन जी तो पीछे-पीछे दौड़े। कृष्ण छिप गये; फिर घूम-फिरकर बालक बनकर बाँसुरी लेकर आ गये। बोले- कहो निर्वासनजी महाराज। यह क्या हुआ? अरे तुम हमसे प्रेम करो, देखो झूठ-मूठ के निर्वासन मत बनो। भक्ति जो है यह व्यक्ति की शक्ति है। अच्छा, एक बात आपको सुनाता हूँ। हम ईश्वर को चाहें कि ईश्वर हमको चाहे, दोनों में कैसे काम बनेगा? सचमुच अगर ईश्वर हमको चाहे तो तुम सह नहीं सकते बर्दाश्त नहीं कर सकते। अरे उसके न बाप, न माँ, न भाई, न बन्धुः वह अगर चाहे तो किसी को बुलावेगा नहीं, वह तो आकर तुम्हारे घर में बैठ जाएगा। तब कहोगे हाय-हाय, य तो बड़ी मुश्किल हुई, अब क्या करें? उसकी न तो जाति, न बिरादरी, न नर्क, न स्वर्ग, न पुनर्जन्म, न माँ, न बाप, न कोई रोकने वाला, ने वेद, न धर्म, परंतु अगर तुम चाहोगे तो तुम्हारे जीवन का निर्माण होगा; ईश्वर को चाहने से हृदय का निर्माण होता है।
यह ब्रह्म जो है, परमार्थ वस्तु है; किसी को बनाता नहीं है, सबको प्रकाशित करता है, सबको आनन्द देता है, सबको सत्ता देता है, सबमें समान है। और यह जो भक्ति है, वह ब्रह्म की शक्ति नहीं है, यह प्रेमी की शक्ति है, इसी से जो विरोध मानते हैं कि वेदान्त में और भक्ति में विरोध है वे जानते नहीं कि श्रीरामानुजाचार्य जी महाराज जो विशिष्टाद्वैत का प्रतिपादन करते हैं उसमें जो अन्तर्यामी ईश्वर है, ब्रह्म है, वह कैसा है। जो समझते कि वेदान्त और भक्ति विरुद्ध हैं, उनको मालूम नहीं कि श्रीवल्लभाचार्य जी महाराज का विशुद्धाद्वैत क्या है और उनकी भक्ति क्या है। जो समझते हैं कि भक्ति और वेदान्त विरुद्ध हैं उनको भी नहीं मालूम कि निम्बार्काचार्याजी महाराज का द्वैताद्वैत और भक्ति क्या है? अरे द्वैताद्वैत, विशुद्धाद्वेत- वह तो वस्तु-तत्त्व है, मूल तत्त्व है, सिद्धांत है। वह तो सम्पूर्ण जगत् का अधिष्ठान है, आश्रय है, परस्पर-विरुद्ध-धर्माश्रय है, अविकृत उपादान है। और, नारायण। यह भक्ति जो है, वह मनुष्य के हृदय में पैदा होने वाली हमारी चीज है। जिसके दिल में भक्ति रहती है उसका निर्माण करती है। सादन का रहस्य ही यह है कि अगर अपने दिल को बनाना हो तो भगवान् की भक्ति करो, प्रेम करो।+
व्यतस्त्तवस्त्राभरणा: काश्चिद् कृष्णान्तिकं ययु:।
चुम्बक अपनी जगह पर और उसने लोहे की खींच लिया; सोना जाकर कसौटी से मिल गया; यह है- कृष्णान्तिकं ययुः। अब यह कहो कि विघ्न ना पड़े, तो जो विघ्न से हार जाता है, वह भक्ति के, प्रेम के मार्ग में चलने योग्य नहीं, धर्म के मार्ग में चलने योग्य नहीं है। ये जो आजकल स्कूल और कालेजों में से पढ़कर निकलते हैं और अपने माँ-बाप को अहमक बोलते हैं वे भला क्या जाने कि भक्ति क्या होती है। उनसे कहो- ईश्वर का भजन करो, तो कहेंगे- भक्ति क्यों करें?
कभी ईश्वर ने बनायी होगी सृष्टि। अब ईश्वर नहीं है। अरे, बाबा। ईश्वर है तो सर्वदा है नहीं तो हम लोगों का तो यह पक्ष है कि कदाचित् यह बात भी मान ली जाय कि ईश्वर नहीं है, तो भी भक्ति करने वाले का कल्याण होगा, हित होगा, मंगल होगा। यह पक्ष शास्त्र में है कि यदि कदाचित् ईश्वर न भी हो तो भी जो उसका ध्यान करेगा, उसका भजन करेगा, प्रेम करेगा, उसका कल्याण होगा। तो लौकिक नियम सा है- प्रारभ्यते न खलु विघ्नभयेन नीचैः-
विघ्न के भय से नीच लोग काम प्रारम्भ ही नहीं करते। ये बोलेंगे- इसमें यह रूकवट है, वह रुकावट; उनको जो मददगार है, वह दिखायी नहीं पड़ेगा और जो रूकावट है वह दिखाई पड़ेगी। यदि काम प्रारम्भ करिया और उढुक लग गयी तो बोलेंगे- अरे अमंगल हो गया। कहेंगे कोई आकाश में आत्मा रहती है, उसने आकर हमसे कहा है, यह इशारा किया है, कि पाँव में ठोकर लग गयी अब इस रास्ते पर मत जाओ, ठोकर लगे तो लौट जाओ।
हम आपको अपने जीवन की कितनी बात बता सकते हैं कि पहले उसमें खूब विघ्न आया। एक बार हम कर्णवास से हरिद्वार के लिए चले पैदल; कोई दो सौ मील होगा। जो कर्णवास से निकले वर्षा शुरू हो गयी; सायंकाल और बादल आसमान में, और वह बिजली चमके, वह गर्जना हो; तीन मील चलते-चलते रात हो गयी। ऐसा लगे कि पहले ही ग्रास में मक्खी गिरी बड़ा विघ्न पड़ा। फिर एक रोशनी दिखाई पड़ी। नहर पारकर रात में बिलकुल रोशनी के सीथ में रास्ते से नहीं खेतों में भरा हुआ पान पार करके गाँव में 10 बजे, पहुँच गया; जाने पर उन लोगों ने आग जलायी और हमारे भीगे कपड़े सुखाये, दूध पिलाया, सो गये। लेकिन उसके बाद हरिद्वार तर कभी वर्षा नहीं आयी, बड़े आनन्द से यात्रा हुई। अब पहले दिन हम सोचते कि मक्खी गिर गयी, तो यात्रा कहाँ से होती। नारायण, विघ्न आने से जो अपना मार्ग छोड़ देते हैं उनके अंदर कोई जीवन नहीं है, भला। यह तो असल में विघ्नों से तपकर अपना साधन बनता है।++
विघ्न भी दो तरह का होता है। एक तो बाहर की वस्तुओं से आकर और दूसरा अपने मन से आकर। काम करने में जो ढिलाई होती है उसमें तो विघ्न अपने मन में- से आते हैं कि इसमें यह डर है, यह डर है अब डर के मारे पाँव ही न रखें धरती पर। एक आदमी ने कहा महाराज; छह महीने के बाद ऐसा हो जावेगा तो? एक आदमी ने कहा-अगर पानी न बरसा तो? मैंने कहा आज ही भूकम्प आ जाए तो? नारायण कौन सा इन्तजाम करोगे? आदमी को अपने दिमाग को खराब नहीं करना चाहिए। एक ने आज ही कहा कि पूना में तो जगह मिली नहीं अब नासिक में तलाश करते हैं, बम्बई से तो भागना ही पड़ेगा, पानी की समस्या है बम्बई में। अरे नारायण, आप पानी का खर्च ज्यादा मत करना सो तो ठीक है, लेकिन बिलकुल बेफिकर रहना, जाना-वाना कहीं नहीं पड़ेगा हमारी जिम्मेदारी है। संसार में कितनी बार अवर्षण होता है, अपने मन को क्यों कमज़ोर बनाना? यह वर्षा व्यष्टि प्रारब्ध से नहीं होती, उसमें एक आदमी का प्रारब्ध नहीं होता, उसमें सबका प्रारब्ध मिला होता है। वर्षा समष्टि प्रारब्ध से होती है। विघ्न की कल्पना, जो चीजों से विघ्न आता है, जैसे साँप आ गया, गर्म हवा चलने लगी, ये सब निर्जीव विघ्न है; लेकिन जब सजीव से विघ्न आता है; जैसे घर के लोग रोते हैं उस समय विघ्न का पता चलता है। आप समझो कि आप कहीं जा रहे हैं हमने आपको रोकने के लिए आगे हाथ कर दिया तो आप और जोर लगाकर हमारा हाथ हटावेंगे, आगे बढ़ जाएंगें।
अच्छा, हम ऐसे हाथ न करें, तो आप मामूली गति से चलेंगे लेकिन यदि हम हाथ से रोक कर दें तो जोर लगाकर निकलेंगे। इसका अर्थ हुआ कि आपके भीतर प्रेम में जो शक्ति छिपी हुई है उसको जाहिर करने के लिए, प्रकट करने के लिए, सोती हुई शक्ति को जगाने के लिए, विघ्न आया। तो गोपियाँ बी जब श्रीकृष्ण के पास चलीं तो उनको भी विघ्न आया। यह कोई उनके पाप का फल नहीं है, यह तो उनके पुण्य का फल है; अरे पुण्य का नहीं, श्रीकृष्ण की कृपा का फल है। उनके हृदय में जो प्रेम है, उसको आप कैसे जानेंगे कि कितना प्रेम था। इसलिए थोड़ी रुकावट पड़ी। बड़े वेग से गोपी चलें। महाराज, जब मोटर को ऊपर चढ़ना होता है और चढ़ नही पाती है- ऊँचाई रोकती है- तो गीयर बदल देते हैं और जोर से चलाते हैं। इसी प्रकार रूकावट पड़ने पर यह प्रेम जोर से चलाने का है, कम करने का नहीं है-
ता वार्यमाणाःपतिभिः पितृभिर्भातृवन्धुभिः ।
गोविन्दापहृतात्मानो न न्यवर्तन्त मोहिताः ।।
ता वार्यमाणाः पतिभिः- पतियों के द्वारा गोपियों का वारण किया गया। पति ने दो चीज से वारण किया। एक धर्म से और एक प्रेम से। प्रेम से हाथ पकड़ लिया और बोले हमको छोड़करर जाना तुम्हारा धर्म नहीं है। यह नहीं कि कृष्ण के पास जाना धर्म नहीं है, बल्कि बात यह कही कि हमको छोड़करर जाना धर्म नहीं है।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹


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