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July 6, 2025 11:45 pm

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श्री जगन्नाथ मंदिर सेवा संस्थान दुनेठा दमण ने जगन्नाथ भगवान की रथ यात्रा दुनेठा मंदिर से गुंडीचा मंदिर अमर कॉम्प्लेक्स तक किया था यात्रा 27 जुन को शुरु हुई थी, 5 जुलाई तक गुंडीचा मंदिर मे पुजा अर्चना तथा भजन कीर्तन होते रहे यात्रा की शुरुआत से लेकर सभी भक्तजनों ने सहयोग दिया था संस्थान के मुख्या श्रीमति अंजलि नंदा के मार्गदर्शन से सम्पन्न हुआ

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!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!-( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )-!! रस समुद्र की तरंगें !! : Niru Ashra

!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!-( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )-!! रस समुद्र की तरंगें !! : Niru Ashra

!! दोउ लालन ब्याह लड़ावौ री !!

( श्रीमहावाणी में ब्याहुला उत्सव )

!! रस समुद्र की तरंगें !!

गतांक से आगे –

एक विशाल रस समुद्र है …..कहाँ है ? ये प्रश्न आप कर रहे हैं तो आप ही इस प्रश्न का उत्तर दीजिए कि – विश्व में रस है ना ? आप जो करते है वो रस के लिए ही करते हैं ना ? आपको रस मिलता है ना ? भले ही बूँद वत मिले …किन्तु वो बूँद वत रस भी आपको निहाल कर जाता है …फिर आप उसी को पाने के लिए लालायित रहते हैं …ये बात है ना ? तो बताइये फिर …वो रस आता कहाँ से है ? अरे भैया ! उस रस का कोई मूल तो होगा ? जी , है ।

एक विशाल रस का समुद्र है ….उसी समुद्र से एक बूँद रस , हमको किसी न किसी पदार्थ आदि से प्राप्त होता रहता है ….विचार कीजिए …कि एक बूँद के लिए हम पगलाये रहते हैं …..तो फिर उस समुद्र में ही अगर हम डूबे रहें ….तो ?

ये रस का समुद्र है …..निकुँज । इसी में रस रूप लाल जू हैं ..उनकी प्रिया जू रस ही हैं …इन्हीं युगल रस की ही तरंगे जब उठती हैं तब वही सखियाँ बन जाती हैं ….अजी ! उसी रस से एक रस की अवनी तैयार हो जाती है ….जिसे श्रीवृन्दावन कहते हैं ।

इसी रस समुद्र में आए दिन तरंगे उठती रहती हैं …..वही नाना तरंग “नित्य विहार” है ।

हे रसिकों ! आइये , इन दिनों तरंगे नहीं , रस समुद्र में ज्वार भाटा आया हुआ है ….जिसे डूबना हो वो शीघ्र चले मेरे साथ ………

                !! दोहा !! 

बलि जाऊँ श्रीहरिप्रिया , यह सुख अब मोहि दीज ।
रूप अनुपम लाड़ली , निरखि निरखि सुख लीज ।।

                 !! पद !! 

निरखि निरखि प्रिय रूप अनूपम अतन रतन गुन गावैं जू।
नखनि तरुनि अरुनाई लखि लखि कुमुदनि कुवज भिरावैं जू ॥
भालनि नैंननि मधुक चंपके लाली लाल लगावैं जू।
बार बार अंग अंग परि लावत बिछुर न नेक सुहावैं जू॥
प्रिया उरनि आरोपित धर छबि पद सम करि परसावैं जू।
सम नहिं जानि कुमुद कलकमलनि मसरि-मसरि सरसावैं जू ॥
देखि बौरता बिहँसि बिहारिनि निज रद रंग ररावैं जू।
श्रीहरिप्रिया की लै बलिहारी रूप यहै भल पावैं जू ॥१५२॥

*मैंने दो या तीन दिन पहले कहा था ….कि निकुँज में सब कुछ चिद् है , यहाँ जड़ सत्ता है ही नही ……लताएँ वृक्षों से लिपट कर क्षण में ही कुँज का निर्माण कर देती हैं …..श्रीमहावाणी में तो यहाँ तक लिखा है …कि युगल सरकार जब चलते हैं ….तो उन्हें देखकर लताएँ वृक्षों पर तुरन्त चढ़ जातीं हैं ….और देवताओं की तरह पुष्प बरसाना शुरू कर देती हैं ।

आज यही तो हो रहा है ……ब्याह मण्डप में लाल जू जब अति रस से भींग गये तो उठ गये ….अपनी रसीली प्रिया जू को निहारा और रस सागर में डूब गये …अब रस में रस ही डूब जाये तो क्या दशा हो ! लाल जू अपने ही विवाह उत्सव में ठुमकने लगे ….अपनी रस भरी प्यारी को भी अपने साथ उठा लिया ….और दोनों ने “रस नृत्य” किया …सखियाँ तो देख देखकर रीझ रही हैं …उन्हें यही सुख तो चाहिए । अब उसी समय लताओं ने इन युगल के ऊपर पुष्प बरसाने आरम्भ कर दिये थे । पुष्प से ये भर दिये गए ..चारों ओर छबीली सखियाँ जै जै कार कर उठी थीं ।

हरिप्रिया सखी की दशा तो अनिर्वचनीय हो गयी….वो इन दोनों को निहार निहार कर अपने आपको भी बिसर रही हैं…..इनसे अब बोला भी नही जा रहा ।

“बलि जाऊँ श्रीहरिप्रिया , यह सुख अब मोहि दीज”

अति रस के कारण नेत्रों से अश्रु बह चले हैं हरिप्रिया के ….वो अपने अश्रु पोंछ रही है और हंस रही है …..वो यही कह रही है ….हे प्रिया प्रियतम ! बलिहारी जाऊँ ….अपना आँचल फैला कर कहती हैं हरिप्रिया ….यह सुख मुझे दीजिए …मुझे यही सुख चाहिए ….

कौन सा सुख ?

हरिप्रिया की सखियाँ उन्हें सम्भालती हैं ….किन्तु वो भी क्या सम्भालेंगी …वो खुद डूबी पड़ी हैं इस रस समुद्र में ।

यही सुख …..कि प्रिया जू को निहार निहार कर मैं मत्त होती रहूँ । हरिप्रिया इतना कहकर नेत्र बन्दकर मुस्कुरा रही थी …अति रस पीने के कारण इसकी दशा विलक्षण हो उठी थी कि तभी …..लाल जू ने प्रिया जू के मुख चन्द्र को चूम लिया …ये हरिप्रिया ने देख लिया …प्रिया जू शरमा गयीं …मुस्कुराकर नीचे देखने लगीं …तभी लाल जू ने प्रिया जू का चिबुक पकड़ कर थोड़ा ऊपर उठाया । बस फिर क्या था …त्राटक ही लग गया प्रिया के मुख चन्द्र में लाल जू का ।

ये देख ली हरिप्रिया ने , बस , वैसे ही ये पगलाई थीं उस पर भर मटकी मधु और पी ली ।

अरी सखियों ! देखो तो ये क्या हो रहा है ….प्रियतम श्याम सुन्दर प्रिया जू को इकटक निहार रहे हैं ….और निहार ही नही रहे हैं ….वो उनके रूप सौंदर्य का गान भी कर रहे हैं …..हरिप्रिया मुस्कुरा रही है ….वो बहुत कुछ बोलना चाहती है पर बोले कैसे , शब्दों में वो बोला नही जाएगा ।

निहार रहे हैं ऐसे जैसे …कामदेव अपनी रति को निहार रहा हो ….अब क्या उपमा दें तो ।

अरे देखो ….मण्डप के सामने सरोवर है ना ….उस सरोवर में कमलिनी खिली हुयी थी …..प्रिया जू के पद नख की नवीन लालिमा देख कर वो कमलिनी तो लज्जित होकर जल में वापस छुप गयी । हरिप्रिया सबको दिखाती हैं ….और स्वामिनी सौन्दर्य के गर्व से फूल जाती हैं ।

अरी सखियों ! अपने लाल जू को देखो ….कैसे नयनों को चलाकर अपनी प्यारी को संकेत करके और पास बुला रहे हैं …..प्यारे के नयन कितने सुन्दर हैं ना ? अद्भुत हैं । ऐसे लग रहे हैं जैसे चम्पा के फूल ही यहाँ आकर रम गए हों । रम तो ये गये हैं …..एक सखी ने हंसते हुए कहा ….ये तो रमे ही हैं ….हरिप्रिया ये कहते हुए खूब हंसी । फिर बोली ….रसिक हैं …तभी तो एक क्षण भी बिछुड़ते नही हैं …..देखो ! नृत्य की मुद्रा है ….नृत्य करते हुए दो कदम आगे पीछे होते हैं किन्तु क्षण में ही फिर अपनी प्यारी से सिर जोड़ लेते हैं …फिर अपने नयनों से उनके नयन चूम लेते हैं…महालालची हैं ये रस के । हरिप्रिया कहती हैं और प्रेम मद से मत्त होकर बैठ जाती हैं ।

फिर जब युगल को निहारने के लिए अपने नयनों को उठाती हैं ….तो ….देखो सखियों ! ये रस तो रस का ही विस्तार कर रहा है …..देखो तो …प्रिया जू के हृदय से अपने हृदय मिलाकर और उनके चरणों से अपने चरण का स्पर्श कराकर कितने प्रमुदित हो रहे हैं …ओह ! ये तो अद्भुत है ।

अब तो ब्याहुला का समय हो रहा है ….किन्तु इन्हें कुछ भान ही नही है ….एक सखी ने कुछ देर में कहा । हरिप्रिया बोलीं ….इन्हें कुछ भान नही इस समय इन्हें तो बस अपनी प्यारी जू का ही भान है …अपना भी भान नही है ….प्रियतम को इस तरह रस में डूबे देख अब तो प्यारी जू भी मत्त हो गयीं ….और तुरन्त आगे बढ़कर अपने प्यारे के गले में गलबैयाँ दिये विहार करने लगीं …..ये बिहार हंस हंसिनी के जोड़े की तरह था ….वैसा ही प्रतीत हो रहा था । उसी समय प्रिया जू लाल को चूम लेती हैं …फिर मुस्कुरा देती हैं ….प्रिया जू की ये रस मत्तता देखकर लाल जू चकित हो जाते हैं …वो आनन्द के कारण कुछ सोच भी नही पाते …बस अब अपनी प्यारी को देख रहे हैं ।

हरिप्रिया सखी से अब नही रहा जाता ….वो जैसे तैसे उठ जाती हैं …और नृत्य करना आरम्भ कर देती हैं …..वो नृत्य में बलैयाँ ले रहीं हैं इन दोनों रसिक-रसिकनी की । अब क्या कहें ….रस में डूब चुका है आज तो यहाँ का सब कुछ ।

क्रमशः ….

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