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December 4, 2024 7:56 am

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दादरा नगर हवेली एवं दमन-दीव क्षेत्र भारतीय जनता पार्टी के प्रदेश प्रभारी श्री दुष्यन्त भाई पटेल एवं प्रदेश अध्यक्ष श्री दीपेश टंडेल जी के नेतृत्व में संगठन पर्व संगठन कार्यक्रम दादरा नगर हवेली के कार्य पाठशाला का आयोजन किया गया.

!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 132 !!(3), !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!& श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 132 !!(3), !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!& श्रीमद्भगवद्गीता : Niru Ashra

Niru Ashra: 🌹🌹🌹🌹🌹🌹

!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 132 !!

सौ वर्ष बाद….
भाग 3

🙏🙏🙏🙏🙏

क्या सच ! महर्षि ! क्या सच में हमारा कन्हैया कुरुक्षेत्र आरहा है ?

हाँ हाँ हाँ ……नन्दराय……ये सच है …….मैं तो प्रसन्न हूँ ……महर्षि नें कहा ………मैं भी आज बहुत प्रसन्न हूँ…..मैं जाऊँगा ……….हम जायेंगे …….सब जायेंगे कुरुक्षेत्र …….नन्द बाबा आनन्दित हो उठे थे ।

प्रणाम किया चरणों में महर्षि के और भीतर जानें लगे यशोदा मैया के पास …..फिर लौट आये …….महर्षि के चरणों में गिर गए नन्दराय ……..मुझे क्षमा करें…….आप मुझे क्षमा करें ……इस समय मैं सब मर्यादा भूल रहा हूँ ……आप मेरे गुरुदेव हैं ……….मैं आपकी किस प्रकार आदर सेवा करूँ ……मैं सब भूल गया हूँ ……नन्दराय चरणों में गिर रहे हैं बारबार ।

मुस्कुराते हुए उठे महर्षि……अभी मैं जा रहा हूँ…..बाकी तैयारी कैसे करनी है वो आप देख लें नन्दराय ! मैं कल होगा तो फिर आऊँगा आपके पास…इतना कहकर महर्षि अपनी कुटिया की ओर चल दिए थे।

यशोदा ! सुनो ना ! मैं कुछ कह रहा हूँ तुमसे !

नन्द बाबा यशोदा मैया के पास में आकर कान में बोल रहे थे ।

पर मैया यशोदा अब कान से बिल्कुल ही नही सुनती हैं …….पास में जाकर चिल्लाकर बोलना पड़ता है……आँखों से भी लोगों को कम ही पहचान पाती हैं ।

कुरुक्षेत्र जा रहे हैं हम लोग……..क्यों की सूर्यग्रहण पड़ रहा है ……बहुत बड़ा पुण्य होता है…….इसलिये चलो ……..बोलो ! यशोदा ! महर्षि आये थे वो बड़ी महिमा सुना कर गए हैं कुरुक्षेत्र की ।

इस बात को कई बार दोहराना पड़ा था नन्द बाबा को …..चिल्लाकर बोलना पड़ा था तब जाकर सुना यशोदा मैया नें ।

नही ……….सीधे हाथ हिला दिया ……….

मुझे नही चाहिये पुण्य वुन्य ……..मुझे स्वर्ग भी नही चाहिये ……..इसलिये मैं तो अब कहीं जानें वाली नही हूँ ……न किसी तीर्थ में ….न किसी पुरी में । यशोदा मैया नें साफ़ साफ मना कर दिया ।

अरी यशोदा ! अश्वमेध यज्ञ से भी ज्यादा का फल मिलता है …….इस सूर्यग्रहण में स्नान करनें से …..कुरुक्षेत्र में स्नान करनें से ।

मैने कहा ना ……..मुझे कहीं नही जाना ……..मेरा स्वास्थ भी ठीक नही है ……….मुझे आप क्षमा करो ……….यशोदा मैया नें फिर मना किया ।

“कन्हैया आरहा है कुरुक्षेत्र में”…….नन्द बाबा नें इतना ही कहा ।

और आश्चर्य ! इस बात को दोहराना भी नही पड़ा …….मैया नें एक ही बार में सुन भी लिया ।

क्या कहा ? फिर कहना ? उठकर खड़ी हो गयीं मैया ।

आश्चर्य था ……….कि शरीर में इतनी ताकत कैसे आगयी ?

क्या सच में कन्हाई आरहा है ?

हँसते हुये यशोदामैया को गले से लगाया नन्दबाबा नें …….ख़ुशी के आँसू अविरल बह रहे थे …………..

मैं जाऊँगी ! सुनो ! मैं जाउंगी कुरुक्षेत्र ……….

वो आएगा वहाँ ? मैं उसे देखूंगी ………..मैं उसे अपनें हृदय से लगाकर खूब चूमूंगी ………..उसके गाल में हल्की सी चपत भी मारूँगी…….इतनें वर्षों तक उसे अपनी मैया की याद न आयी ?

मैया फिर रोनें लगीं ……..नन्दबाबा नें आज शान्त किया ………वो मिलेगा हमें ……….हाँ ……वो मिलेगा ।

आहा ! नन्दनन्दन की इस मैया को देखकर मुझे तो साष्टांग प्रणाम करनें की इच्छा होती है ……….अद्भुत वात्सल्य है इस मैया का ।

हे वज्रनाभ ! रात्रि हो गयी थी ………..वैसे भी ये मैया सोई नही सौ वर्षों से …………तो आज कैसे सो जाती …….और आज तो रात भर बातें करती रहेगी ……..”मैं उसके लिए कपड़े भी ले जाऊँगी …….मैं उसके लिए गेंद ले जाऊँगी …..खिलौना……हाँ …खिलौना भी ।

नन्द बाबा समझाते हैं ………….हँसते हुए समझाते हैं ……….

द्वारिकाधीश को तू गेंद देगी ? द्वारिकाधीश तेरे गेंद से खेलेगा ?

यशोदा दुःखी हो जातीं ………..माँ के लिये तो बेटा ही रहेगा ना ?

नन्द बाबा से देखा नही जाता ………….फिर कहते ….अच्छा ! अच्छा ! रख ले गेंद ……दे देना द्वारिकाधीश को ।

मैया यशोदा गेंद को हाथ में लेकर देखती रहतीं ………..फिर कहतीं …..बड़ा होगया है ? मैया के हाथ से गेंद नही लेगा ?

अब वो खेलता नही है क्या ?

फिर कहतीं ……हाँ …..समुद्र में कहाँ खेलेगा ……डर होगा वहाँ तो …यहाँ की तरह थोड़े ही है ………यमुना में गेंद चली गयी तो कूद गया …..आपको याद है ? कैसे कूदा था ? गेंद के लिए ….कालीदह में ।

अब खुल कर हँसी यशोदामैया ………..सौ वर्षों बाद आज इस नन्दभवन में हँसी गूँजी है……………….

ख़ुशी के आँसू महर्षि शाण्डिल्य के भी बह रहे हैं ।

शेष चरित्र कल –

🙇‍♂️ राधे राधे🙇‍♂️
] Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!

( सिद्धान्त सुख – 2 )

गतांक से आगे –

जय जय वृन्दावन रजधानी ।
जहाँ विराजत मोहन राजा , श्रीराधा सी रानी ।।
सदा सनातन इक रस जोरी , महिमा निगम न जानी ।
श्रीहरिप्रिया हितू निज दासी , रहति सदा अगवानी ।।

“बिना सम्बन्ध के प्रेम नही होता”…..

यमुना के पुलिन में बैठीं हैं हमारी सखी श्रीहरिप्रिया । मैं भी उनके निकट हूँ । उनके अंग से कमल की सुगन्ध आरही है …अत्यंत गोरी हैं हरिप्रिया , किन्तु उनका गोरापन लालिमा लिए हुए है ..नेत्र बड़े हैं …उसमें अंजन लगाया है वो भी मोटा अंजन …बहुत सुंदर लग रहा है ।

मैंने उनको देखा वो अवनी पर कुछ चित्र बना रहीं थीं ….ये क्या है ? मैंने मन में ही प्रश्न किया था ….तो उन्होंने ये उत्तर दिया ।

“बिना सम्बन्ध के प्रेम नही होता”

मैं पूछ कुछ रहा था उत्तर कुछ और ही मिला ।

“नही ,प्रश्न के अनुसार ही उत्तर दिया है”
बड़ी करुणामयी दृष्टि से मुझे देखते हुए हरिप्रिया बोलीं ।

मुझे लगा अपराध हो गया …मुझे सुननी चाहिए थी पूरी बात । मेरे मन में क्या चल रहा है वो इनसे छिपा नही था। इसलिए वो बस हंसीं और अपनी बात ही आगे करने लगीं ।

सम्बन्ध शून्य साधक एक स्वतन्त्र मज़दूर के समान होता है …जिसे मालिक मात्र पारिश्रमिक देकर बिदा करता है ….किन्तु जहाँ सम्बन्ध होता है ….घर का नौकर ही हो …उसकी पूरी जिम्मेदारी मालिक अपने ऊपर लेता है ….इसलिए सम्बन्ध बहुत आवश्यक है । हरिप्रिया सखी ने मुझे ये बात बड़ी स्पष्टता से समझाई थी ।

ये आपने क्या बनाया है ? मेरा ध्यान अवनी पर गया, हरिप्रिया सखी जू ने कुछ यन्त्र सा बनाया था …उसे ही मैं देख रहा था ….ये क्या है ?

इसे यन्त्र भी कह सकती हो या योगपीठ भी ।

फिर उन्होंने कहना आरम्भ किया ….ये यमुना जी हैं जो निकुँज के चारों ओर कंकन के आकार की हैं …..इसके भीतर चार सरोवर हैं ….जो चारों दिशाओं में हैं …….अष्ट सखियों का महल इन्हीं के भीतर परकोटे में हैं । हरिप्रिया कहती हैं …निकुँज के राजा रानी श्रीराधा और श्याम सुन्दर ही हैं ।

ये निकुँज क्या है ? मेरा प्रश्न यही था ।

दिव्य श्रीवृन्दावन । उत्तर मिला ।

मैं कुछ और पूछता कि उससे पहले ही हरिप्रिया सखी ने कहा ….अवतार काल में यहीं से निकुँज की एक प्रतिछाँया पृथ्वी पर जाती है ….वही श्रीवृन्दावन है । यमुना जी भी यहीं हैं ? जो वहाँ पृथ्वी पर हैं ? हाँ , यही हैं । दो दो श्रीवृन्दावन ? मेरी बात सुनकर हरिप्रिया सखी बहुत हंसीं …..जड़ नही है पगली ! ये निकुँज जिसे श्रीवृन्दावन ही कहो ….ये चैतन्य है । दो रूप क्या कितने भी रूप धारण कर लें ये श्रीवन । हरिप्रिया आत्मीयता से मुझे समझा रहीं थीं ।

ये युगलवर निकुँज में ही रहते हैं ……इसलिए ध्यान करो निकुँजस्थ युगल सरकार का ।

निकुँज यानि श्रीवृन्दावन …श्रीवृन्दावन से सम्बन्ध बनाओ …..हरिप्रिया का यही कहना है । सम्बन्ध से ही तो प्रेम होगा ….नही तो प्रेम कैसे होगा । देखो , निकुँज श्रीवृन्दावन से ही जाकर बृज में युगलवर अवतार लेते हैं ……इसलिए मूल श्रीवृन्दावन ही है ….इससे जुड़ो …इससे सम्बन्ध बनाओ ।

हरिप्रिया ये कहते हुए अवनी में बनाये उस योगपीठ को मिटा देती हैं …..अब समझ गए ये निकुँज यह दिव्य लोक है ….प्रेम लोक और सबसे ऊपर । मैं अचंभित होकर सुनता रहा ।

कुछ देर तक हरिप्रिया मौन रहीं …..मैं भी उनके मौन को सुन रहा था ।

साधक का लय निकुँज लीला में ही होता है ….हमारी गुरु हमें यही सिखाती हैं …..साधक नित्य निकुँज में ही भावना के माध्यम से अपने को ले जाये …अहंकार को छोड़ दे …सहज सखी भाव धारण करे …..श्रीवृन्दावन का नाम ले ….फिर श्रीवन के वृक्षों की भावना के माध्यम से दर्शन करें….लताओं को हृदय से लगावें ….ये सब सखियाँ हैं …यहाँ सब सखियाँ हैं ….हरिप्रिया मुझे बता रहीं थीं ……क्या ? मैं चौंका तो उन्होंने मुझे कहा ….अभी मैंने तुमसे क्या कहा …ये निकुँज जड़ नही है चैतन्य है ……मैंने सिर झुका लिया ….सखी जू मुझे इतना दिव्य रस पिला रहीं थीं और मैं प्रमाद में डूबा उनकी बातों को समझ नही रहा था ।

तभी मैंने देखा एकाएक एक कुँज मेरे सामने से घिसक कर दूर जाकर खड़ा हो गया था ।

युगलवर साँझ में वन विहार करने आयेंगे तो आज उस तरफ आकर बैठेंगे …ये बात इन सखियों को ….मैंने सखी जू को बीच में टोकते हुए कहा ….सखी कहाँ हैं ? हरिप्रिया जी ने मुझे अपनी बड़ी बड़ी आँखें दिखाईं ….मानों वह कह रही हों ….अभी मैंने बताया तो कि यहाँ सब सखियाँ हैं …ये लताओं से आच्छादित कुँज सब सखियाँ ही हैं । मैं कुछ और कहता ….उससे पहले ही सखी जी ने कहा ….ऋतु भी यहाँ सखियाँ हैं …बसन्त तो पुरुष है ना …किन्तु उसे भी निकुँज में आना होता है तो सखी भाव से ही आता है …यानि यहाँ एक ही भाव है…सखी भाव ….क्यों की अहंकार गलना आवश्यक है ….पुरुष में अहंकार है ।

अद्भुत निकुँज के विषय में मुझे बताया था ….और सखी जू ने ये भी स्पष्ट कर दिया कि निकुँज यही श्रीवृन्दावन ही है ……हमारी कृति श्रीवृन्दावन नही है ….जो सहज चैतन्य है ….सहज युगल वर की इच्छा से जो निर्मित है ….वह श्रीवृन्दावन है यानि निकुँज ।

मैं आनन्दमय हो उठा था ।


।। महारस रासबिहारी लाल , वारी जाऊँ जय जय जय जनपाल ।।

हरिप्रिया जी फिर इस पद को गुनगुनाने लगीं थीं ।

ये रसिक शेखर श्यामसुन्दर तो सभी अवतारों के भी प्रेरक हैं ….किन्तु श्याम सुन्दर की भी प्रेरिका श्रीराधारानी हैं । हरिप्रिया रस में डूब कर ये बात बोलीं थीं ।

देखो !

हरिप्रिया सखी अब मेरे निकट आयीं और बड़ी उत्सुकता पूर्वक मुझे सुनाने लगीं ।

उस दिन …ब्याहुला उत्सव मना चुकी थीं हम सब सखियाँ …सुहाग सेज पर इन दोनों रसिकेश्वर को विराजमान कर दिया था …हम कुँज से बाहर चली गयीं थीं ….तब श्याम सुन्दर पर्यंक से नीचे उतरे …..प्रिया जी बोलीं ….आप दूर क्यों जा रहे हैं ? लाल जी ने उत्तर दिया …प्यारी ! तुम्हें निहारने । यहाँ से भी निहार सकते हो ? श्याम सुन्दर बोले …दूरी के बिना पूर्ण सौन्दर्य को निहारा नही जा सकता । तो श्याम सुन्दर दूर चले गये और वहीं से अपनी किशोरी जू को निहारने लगे थे…निहारते निहारते ये सब कुछ भूल गये ….देह सुध भी भूल गये …अब प्रिया जी के पास कैसे जाना है ये भी भूल गए …रस के आवर्त में ये ऐसे फंसे कि अब कुछ सूझ ही नही रहा ।

तभी प्रिया जी समझ गयीं कि अति रसमत्तता के कारण इनसे अब आया नही जा रहा …तब प्रिया जी कहती हैं …….

सूधे सूधे चले आवो ।
इत उत पग न डिगैं डगमग ह्वैं, ज्यों सबहीं सुख पावौ ।।

हरिप्रिया कहती हैं …..श्रीराधारानी ने प्रेरणा दी …कि धीरे धीरे और सीधे मेरे पास आओ ।

तभी हरिप्रिया के नेत्रों से अश्रु बहने लग जाते हैं …..भाव के अश्रु हैं …वो कहती हैं …इतना ही नही ….ये तो हम सब सखियों की भी प्रेरिका हैं …..

होली का समय था ….श्याम सुन्दर से प्रिया जी होली खेल रहीं थीं ….हमारे मन में भी आया कि …हम भी होली खेलतीं , और प्रिया जी की ओर से खेलतीं ….लाल जू को लाल ही लाल बना देतीं ….तब करुणामयी हमारी स्वामिनी जू ने हमसे कहा ……आओ ….

“या मतवारे मीत सौं मिलि चाँचरि खेलो री”

हरिप्रिया कहती हैं इतनी करुणामयी हैं कि बोलीं ….

“कोऊ रहो न अकेली अकेली , हेलि सुनो सब हेलो री”

कोई अकेली मत रहो …सब आओ और इन मतवारे मीत से सब होली खेलो ।

आहा ! ये हैं हमारी स्वामिनी ! जिनमें मात्र करुणा है ..और ये हैं हमारे श्याम सुन्दर जो रसिक हैं …और ये सखियाँ हैं जो इनकी इच्छा शक्ति हैं और ये श्रीवृन्दावन हैं …जो रस का स्थान है ।

इसलिए मैं तो कहती हूँ …श्रीवृन्दावन से सम्बन्ध जोड़ो …अपने ध्यान-चिन्तन में इन्हीं को हृदय में बसाओ । फिर देखो …”श्यामा श्याम पद पावे सोई” । इतना कहकर हरिप्रिया श्रीवन की शोभा निरखने लगीं थीं । मैं भी उन्हीं का अनुगत था इसलिए मैं भी श्रीवन को देख देख कर सुख का अनुभव करने लगा ।

शेष अब कल –
] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 6 : ध्यानयोग
💐💐💐💐💐
श्लोक 6 . 2
💐💐💐💐💐

यं सन्न्यासमिति प्राहुर्योगं तं विद्धि पाण्डव |
न ह्यसन्न्यस्तसङ्कल्पो योगी भवति कश्र्चन || २ ||

यम् –जिसको; संन्यासम् – संन्यास; इति – इस प्रकार; प्राहुः – कहते हैं; योगम् – परब्रह्म के साथ युक्त होना; तम् – उसे; विद्धि – जानो; पाण्डव – हे पाण्डुपुत्र; न – कभी नहीं; हि – निश्चय हि; असंन्यस्त – बिना त्यागे; सङ्कल्पः – आत्मतृप्ति की इच्छा; योगी – योगी; भवति – होता है; कश्र्चन – कोई |

भावार्थ
💐💐💐
हे पाण्डुपुत्र! जिसे संन्यास कहते हैं उसे ही तुम योग अर्थात् परब्रह्म से युक्त होना जानो क्योंकि इन्द्रियतृप्ति के लिए इच्छा को त्यागे बिना कोई कभी योगी नहीं हो सकता |

तात्पर्य
💐💐💐
वास्तविक संन्यास-योग या भक्ति का अर्थ है कि जीवात्मा अपनी स्वाभाविक स्थिति को जाने और तदानुसार कर्म करे | जीवात्मा का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व नहीं होता | वह परमेश्र्वर की तटस्था शक्ति है | जब वह माया के वशीभूत होता है तो वह बद्ध हो जाता है, किन्तु जब वह कृष्णभावनाभावित रहता है अर्थात् आध्यात्मिक शक्ति में सजग रहता है तो वह अपनी सहज स्थिति में होता है | इस प्रकार जब मनुष्य पूर्णज्ञान में होता है तो वह समस्त इन्द्रियतृप्ति को त्याग देता है अर्थात् समस्त इन्द्रियतृप्ति के कार्यकलापों का परित्याग कर देता है | इसका अभ्यास योगी करते हैं जो इन्द्रियों को भौतिक आसक्ति से रोकते हैं | किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति को तो ऐसी किसी भी वस्तु में अपनी इन्द्रिय लगाने का अवसर ही नहीं मिलता जो कृष्ण के निमित्त न हो | फलतः कृष्णभावनाभावित व्यक्ति संन्यासी तथा योगी साथ-साथ होता है | ज्ञान तथा इन्द्रियनिग्रह योग के ये दोनों प्रयोजन कृष्णभावनामृत द्वारा स्वतः पूरे हो जाते हैं | यदि मनुष्य स्वार्थ का त्याग नहीं कर पाता तो ज्ञान तथा योग व्यर्थ रहते हैं | जीवात्मा का मुख्य ध्येय तो समस्त प्रकार की आत्मतृप्ति को त्यागकर परमेश्र्वर की तुष्टि करने के लिए तैयार रहना है | कृष्णभावनाभावित व्यक्ति में किसी प्रकार की आत्मतृप्ति की इच्छा नहीं रहती | वह सदैव परमेश्र्वर की प्रसन्नता में लगा रहता है, अतः जिसे परमेश्र्वर के विषय में कुछ भी पता नहीं होता वही स्वार्थ पूर्ति में लगा रहता है क्योंकि कोई कभी निष्क्रिय नहीं रह सकता | कृष्णभावनामृत का अभ्यास करने से सारे कार्य सुचारू रूप से सम्पन्न हो जाते हैं |

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