Niru Ashra: 🌲🙏🌲🙏🌲🙏🌲
!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 133 !!
“अब कन्हैया मिलेंगें” – कुरुक्षेत्र जानें की तैयारी
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सौ बरस बाद, वृन्दावन नें हँसी ख़ुशी के वातावरण में साँस ली थी ।
नही तो – रोना, सिसकना, आह भरना ….
…..यही तो देखा है इस वृन्दावन नें ।
कहते हैं…….पनारे बहते रहे हर घर से ….सौ बरस तक…….पानी के नही ….आँसुओं के……उफ़ ! क्या रहा होगा वो विरहकाल ।
ग्वाल सखाओं का काम तो एक ही था ………मथुरा की सीमा में जाकर खड़े रहना ……और उधर से कोई भी आये ……उससे अपनें कन्हैया के बारे में पूछना ……….कैसे बाबरे हो गए थे ये ग्वाले …………मथुरा से द्वारिका चले गए उनके कन्हैया …….फिर भी मथुरा की सीमा में ही खड़े रहना ……और देखते रहना कि आज आएगा …या कल ।
अरे ! मनसुख, मधुमंगल, तोक, भद्र, सुनो तो ! सुनो !
श्रीदामा भैया दौड़ते हुए अपनें सखाओं के पास आरहे थे ।
श्रीदामा का उत्साह और उमंग दूर से ही दिखाई दे रहा था ………
उनके माथे की पगड़ी में जो सिर पेंच लगा था वो अति उत्साह से दौड़नें के कारण……टेढ़ा हो गया था ………
अरे ! इन बरसानें के युवराज को आज बड़ा उत्साह चढ़ रहा है ।
मनसुख नें कहा ।
पर इनके मुखमण्डल में इतनी प्रसन्नता ? क्यों ?
सब मन ही मन सोच रहे थे ।
श्रीदामा दौड़े हुए आये ……………….
सखाओं नें बड़े प्रेम से उन्हें बिठाया……कहो ! कुछ कहनें आये हो ?
मनसुख नें पूछा ।
पर श्रीदामा ! तुम इतनें प्रसन्न क्यों हो ? क्या हुआ लाला कन्हैया का विरह कहीं तुम्हारे माथे में तो नही चढ़ गया !
मनसुख कुछ भी बोलता है ।
सुनो ! हम सब कुरुक्षेत्र जा रहे हैं ……..श्रीदामा नें सहजता में कहा ।
जाओ ! हमें क्या ? पर हम तो यहीं रहेंगें ….इसी वृन्दावन में ।
मनसुख सिर झुकाकर बोला ।
श्रीदामा नें मनसुख के पीठ पर हाथ मारी …..अरे दारिके ! सुन तो …..वहाँ सूर्यग्रहण है ………….इसलिये हम सब जा रहे हैं ।
तो ? मनसुख नें श्रीदामा से पूछा ।
तो ? सूर्यग्रहण है तो ? यार ! हमें क्या लेना देना सूर्यग्रहण से …..हमारे जीवन में ग्रहण तो उसी दिन लग गया………..जब हमारे कन्हैया नें हमें छोड़ दिया ……मनसुख बोला ।
पर तुम्हे क्या पता ! सूर्यग्रहण में स्नान, कुरुक्षेत्र में स्नान करनें से बहुत पुण्य मिलता है……..श्रीदामा हँसते हुए बोल रहे थे ।
देख भाई ! हमारा दिमाग खराब करो मत …….तुम जाओ ……..खूब पुण्य करो ……..खूब ग्रहण स्नान करो ……..घूमो फिरो ……..पर हमें क्षमा करो ……..देखो ! तुम तो हो बरसानें के युवराज ……पर हम तो कुछ भी नही हैं……..ठीक है जाओ कुरुक्षेत्र ।
ये बात भी मनसुख ही बोला था ।
क्रमशः ….
शेष चरित्र कल –
🌼 राधे
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (090)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
गोपियों का समर्पण-पक्ष
जब तुम इन प्राणों को पीड़ा पहुँचाते हो, तो अपनी ही वस्तु को पीड़ा पहुँचाते हो- मैवं विभोऽर्हति भवान् गदितुं नृशंसं- भवान् बड़े आदर का शब्द है। गोपियाँ कहती हैं- कृष्ण, आपने हमारा महाभाग्यवती गोपियों कहकर स्वागत गोपियाँ कहती हैं- कृष्ण, आपने हमारा महाभाग्यवती गोपियों कहकर स्वागत किया था न। स्वागतं वो महाभागा- पधारिये, बड़ी खुशी हुई कहा था, क्या वह ‘स्वागतम्’ हमें लौटाने के लिए था? पधारिये, बड़ी खुशी हुई कहा था, क्या वह ‘स्वागतम्’ हमें लौटाने के लिए था? भवान्- अब आप बताइये स्वागत क्या यही है? ‘नृशंसं गदितुंअर्हति’ आपकी ऐसी क्रूर वाणी आपके योग्य नहीं है। ऐसी प्रेमभरी बातें, इतना कोमल शरीर, ऐसी कोमल आँखें, ऐसी अनुग्रह भरी भौहें, और ऐसी कठोर वाणी की लौट जाओ। यह महाराज, जब मनुष्य का शरीर बनाया गया तो भगवान् को आशंका पहले से थी कि मनुष्य कड़वा जरूर बोलेंगे, इसलिए उन्होंने जीभ को ऐसा नरम-नरम, कोमल रसीली बनाया, कि अगर तुम किसी से बात करो तो नरम-नरम बात करो। कोमल मुँह से कठोर बात मत निकालो, गुलाबजामुन निकालो।
एक बहुत वृद्ध सन्त थे जब मरने लगे तो लोगों ने उनसे कहा कि अपना अनुभव बता जाओ, कुछ शिक्षा दे जाओ। सन्त ने पूछा कि तुमको मेरे मुँह से दाँत दिखते हैं? पूछने वाले ने कहा- नहीं। संत ने कहा- मेरे मुँह में जीभ दिखती है? उसने कहा- हाँ, दिखती है। संत बोले- जो कठोर होता है वह टूट जाता है, और जो कोमल होता है वह बना रहता है। जीभ कोमल है तो बनी रहती है और दाँत कठोर होता है, वह टूट जाता है। यही मेरे जीवन का अनुभव है ‘पड़ाइन! शुभ-शुभ बोलो, मीठा बोलो’- हमारे गाँव में कहते हैं।
गोपियाँ कहती हैं- तुम इतने मीठे, तुम्हारी वाणी इतनी कड़वी क्यों है? देखने में इतने सुन्दर, गोरोचन का तिलक और सिर पर मयूरपंख, उसका भी इतना आदर करते हो, घुँघची के दाने को गले में पहनते हो और बाँसुरी को अधरामृत पिलाते हो, और हमसे इतना कड़वा बोलते हो, आखिर क्यों? भवान्- भवान् माने चंद्रमा भी होता है-‘भान्ति आकाशे इति भ’ जो आकाश में चमकते हैं उनको बोलते हैं ‘भ’ और ‘भ’ नक्षत्राणि सन्ति अस्य इति भवान् चंद्रमा। चंद्रमा से तो अमृत बरसना है, और तुम चंद्रमा होकर विष बरसाते हो? देखो, अपने स्वरूप के विपरीत कोई काम नहीं करना चाहिए नारायण।+
‘भवान भ भयदा यमदूता सन्ति अस्य अस्तीति भवान?’ अरे, ऐसी क्रूर वाणी तो पापियों को यमलोक में सुनाई जाती है, हम कोई पापिनी नहीं है, हम तो पाप-पुण्य दोनों को छोड़कर तुम्हारे पास आयी है- ‘मैवं विभोऽर्हति भवान गदितुं नृशंसं’ बाबा! आपको ऐसा नृशंस बोलना उचित नहीं है। प्रेम में दो होते हैं। एक प्यार और एक अस्वीकार है। दुनिया को छोड़ना और प्रभु को पकड़ना। ‘सन्त्यज्य सर्वविषयांस्तव पादमूलम्’ श्री शुकदेवजी महाराज ने कहा था कि गोपियों ने श्रीकृष्ण की प्राप्ति के लिए संपूर्ण कामनाओं का परित्याग कर दिया है- ‘विनिवर्तितसर्वकामाः’ शुकदेवी ने यह गवाही दी थी कि गोपियाँ हृदय से सांसारिक विषय को नहीं चाहती है। लेकिन ये स्वयं ऐसी बात कह रही हैं कि हम केवल निष्काम कहलाने योग्य नहीं हैं। क्यों? ये कहती हैं कि हम निष्काम भी हैं और त्यागी भी हैं।
हम स्वरूप से विषय का परित्याग करके आयी हैं। माने हम संन्यासिनी हैं। ‘सन्त्यज्य सर्वविषयान्’ हम सारे विषयों का सम्यक त्याग करके आपके पादमूल को प्राप्त हुई हैं। ‘तव पादमूलम भक्ताः’ गोपियों के प्रेम का दो अंक हुआ। त्याग हुआ और संत्याग हुआ- त्याग नहीं है, सम्यक् त्याग। क्या सम्यक् त्याग है कि विषयों का स्वरूप से ही त्याग है, भला! जो भोजन करते-करते छोड़कर आवे, पति को परसते-परसते आवे, कपड़ा पहनते पहनते आवे, अञ्जन लगाते-लगाते आवे, उसके चित्त में भगवत्प्राप्ति के लिए कितनी त्वरा है, जरा सोचो तो। वह तो ऐसा है कि मोटर की इन्तजार न करे, ट्रक पर दौड़कर बैठ जाय, ऐसी त्वरा है। यह त्वरा, त्वरक, ट्रक बन जाती है। त्वरा से जो सामग्री को पहुँचा दे उसका नाम त्वरक है। तो सन्त्यज्य का अर्थ है कि स्वरूप से विषयों का त्याग करके जो किसी को छोड़ेगा कि नहीं वह किसी को पकड़ेगा भी क्या?
जिसमें त्याग का सामर्थ्य नहीं है, उसकी निष्ठा में दृढ़ता नहीं आ सकती; निष्ठा दृढ़ होने के लिए त्याग की जरूरत पड़ती है। जो हमको पकड़ेगा वह सबको छोड़ने के लिए तैयार होगा, तब उसको पकड़ेगा। शुकदेव जी ने कहा था कि गोपी के हृदय में कामना नहीं है। और गोपी कहती है कि हमने विषय का परित्याग कर दिया। निष्कामता की बात तो शुकदेवजी ने कही, और त्याग की बात गोपियों ने कही। तो गोपियाँ निष्काम भी हैं और त्यागी भी हैं, संन्यासिनी हैं, श्रीकृष्ण के लिए संन्यासिनी हैं।++
‘सर्वविषयान् सन्त्यज्य’- विश्वनाथ चक्रवर्ती ने कह कि देखो, इसका अर्थ हुआ कि श्रीकृष्ण विषय नहीं है। विषय उसको बोलते हैं कि बाध्य है, जिसके प्रेम करने पर बंधन हो, उसे विषय बोलते हैं; जिससे प्रेम करने पर दुनिया छूट जाय वह विषय कहाँ हुआ? वह तो मोचकर हुआ, छुड़ाने वाला हुआ। श्रीकृष्ण से प्रेम करना माने संसार के सारे बन्धन से छूटना, माने मोक्ष हो जाना! जैसे अनर्थ की निवृत्ति और परमानन्द की प्राप्ति को मोक्ष बोलते हैं, वैसे कृष्ण-प्रेम में अनर्थ जो विषय हैं उनका त्याग हुआ, और परमानन्द जो श्रीकृष्ण हैं उनकी प्राप्ति हुई। तब पादमूलम् भक्ताः, पादाम्बुजम् भक्ताः, पादपदमम् भक्ताः, पादकमलम् भक्ताः- ऐसे नहीं बोलती हैं। क्या बोलती हैं कि पादमूलम् भक्ताः।
गोपियों ने कहा कि इस समय इनके किसी अंग को कमल कहना शोभा नहीं देता। अरे, जो इतनी कठोरता करे उसको कमल क्या बोलें? मुखकमल, नेत्रकमल, पादकमल, हस्तकमल बोलते हैं ना। कमल तो तब होवे, जब कोमलता हो; काम त करे पत्थर का और कहें उसको कमल। तो बोलीं- बाबा, भले तुम्हारा चरणकमल न हो, माना कि चरण मूल ही है। ‘पादमूलम्’ हम तुम्हारे तलवे के नीचे कुचल जाने को आयी हैं। हम तुम्हारे चरणकमल को अपने हृदय में रखकर हृदय को ठंडा करने के लिए नहीं आयी हैं। हमको नहीं चाहिए हृदय की शीतलता कि अपने कोमल चरणारविन्द हमारे हृदय पर रख दो, कि हम ठंडी हो जायँ, नहीं चाहिए हमको।
अरे, ये पादमूल से ही हमको दबा दो, हम तो तुम्हारे पाँव के नीचे पड़कर खाक होने के लिए आयी हैं। हम अपने अहं की पूजा के लिए नहीं आयी हैं; तुम्हारे पादमूल की पूजा के लिए आयी हैं। अब देखो ये कहती हैं- सन्त्यज्य सर्वविषयांस्तव भक्ताः तव पादमूलम् भक्ताः; तव वयं सब कुछ छोड़कर हम तुम्हारी भक्त हो गयीं, और सब कुछ छोड़कर तुम्हारे तलवे के नीचा आ गयीं। अच्छा, भला बताओ संसार में कहीं ऐसा भी उदाहरण मिलता है कि भगवान् के पास आवे, और फिर लौटकर चला जाय?
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
] Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!
( “सिद्धान्त सुख”- 3 )
गतांक से आगे –
जय जय श्रीहितु सहचरी , भरी प्रेम रस रंग ।
प्यारी प्रीतम के सदा , रहत जु अनुदिन संग । 1 ।
तिनकी कृपा मनाय के , वरनौं परम सुधाम ।
महावाणी सिद्धान्त सुख , निज घर श्यामा श्याम । 2 ।
*इस प्रेम देश निकुँज का सिद्धान्त क्या है ? यहाँ तक पहुँचने के लिए क्या किया जाए ?
मेरी कुछ समझ में नही आरहा , जीव दुखी है ….क्या जीवन में दुःख ही दुःख है ? जीव अभावग्रस्त है …क्या जीवन अभाव का ही दूसरा नाम है ? द्वेष जीव को खोखला बना रहा है …क्या जीवन द्वेष से भरे चित्त का नाम है ? मैंने ये सारे प्रश्न एक साथ कर दिये थे अपनी पूज्या सखी जू श्रीहरिप्रिया के सामने । उन्होंने मेरी ओर देखा था ….बड़े करुणापूरित दृष्टि से देखा ….फिर वो बोलीं …..जीवन प्रेम है । जीवन उत्सव है । जीवन उत्साह है । फिर ? नासमझी के कारण , मोहान्ध के कारण , महत्वाकांक्षा के कारण , मनुष्य ने जीवन की दुर्गति स्वयं ही कर रखी है …इसमें किसका दोष ? स्वयं का ही ना ? हरिप्रिया मेरी ओर देखती हैं ।
मैं अब कुछ नही बोल रहा , बस उनको देख रहा हूँ और चाह रहा हूँ कि वहीं बोलें , मैं सुनूँ ।
“क्लीं”……….बोलो । हरिप्रिया जू ने मुझे ये बीज बोलने के लिए कहा ।
मैं बोला ।
मानों ये मन्त्र का बीज बोलते ही …मेरे मन में अद्भुत भाव जागने लगे थे ।
“ये काम बीज है”…….हरिप्रिया ने मेरी ओर देखकर कहा ।
हाँ , काम बीज …यानि प्रेम का बीज …..अतिआसक्ति को प्रेम कहते हैं और अतिआसक्ति को ही काम भी कहते हैं …..यहाँ प्रेम और काम में कोई भेद नही है ……हरिप्रिया जी मुझे ये रहस्य समझा रहीं थीं …..यहाँ काम का लक्ष्य प्रियाप्रियतम ही हैं ….इसलिए काम भी यहाँ प्रेम बन जाता है ।
निकुँज में प्रवेश के लिए सर्वप्रथम इस काम बीज का हृदय में प्रवेश अत्यन्त आवश्यक है ……ये बीज जाएगा हृदय में फिर वो बढ़ेगा …इस तरह उस काम-प्रेमकी लहलही लताएँ जब पूरे अंतकरण को घेर लेगी तब आप निकुँज के अधिकारी बनते हैं । अद्भुत ढंग से समझाया था हरिप्रिया जू ने मुझे ।
अरे ! सखी जू उठ क्यों गयीं ? क्या मुझ से कोई अपराध बन गया ?
हरिप्रिया जू उठ गयीं थीं …..मैं डर गया अपराध से । मैं उनके पीछे पीछे गया ….तो उन्होंने मुझे एक लोक दिखाया …..ये लोक ….जहाँ श्याम सुन्दर हैं ….गोपियाँ हैं ….सखा भी दिखाई दे रहे हैं ….मनसुख आदि सब सखा भी हैं ।
दिव्य लोक है ये भी , है ना ? मैंने उस लोक को देखकर सखी जू को कहा ।
“गोलोक है ये”…..यहाँ भी कामबीज तो है …किन्तु वो काम बीज यहाँ पूर्ण खिल नही पाया है ।
क्यों ? मैंने प्रश्न किया ।
इसलिए कि इस गोलोक में काम बीज की उत्पत्ति श्याम सुन्दर के वंशी से हुई है …..श्याम सुन्दर ने बाँसुरी बजाई …उसमें “क्लीं” का संधान किया और काम बीज प्रकट हो गया । हाँ तो ? मैं बीच में ही बोल उठा । तुम नही समझोगे …”काम-प्रेम” के क्षेत्र में नायिका प्रधान होती है …तब प्रेम पूर्ण खिलता है …और अगर नायक प्रधान हुआ तो शुद्ध प्रेम या नित्य विहार कहाँ प्रकट हो पाता है ? प्रकट हो तो भी वो बात नही आ पाती ।
मैं समझ गया था ….
प्रेम नायिका की प्रधानता से ही उन्मुक्त खेलता है …गोलोक में कृष्ण की प्रधानता है ।
निकुँज में काम बीज कैसे प्रकट हुआ ?
अब हरिप्रिया कुँज की ओर चल रही थीं …..मैं उनके पीछे ।
“यहाँ तो प्रिया जू के नूपुर के कलरव से काम बीज प्रकट होता है” …और तुम्हें पता है …काम बीज से ही समस्त सृष्टि की उत्पत्ति होती है …..क्यों की सबके मूल में काम ही तो है ।
वो अद्भुत रास था …वो अद्भुत रास विलास था ….ये कहते हुए हरिप्रिया के नेत्र बन्द हो गये, और वो रास प्रकट हो गया ….अनन्त चन्द्र का प्रकाश …चाँदनी छिटक रही है …लताओं के पत्र प्रकाशित हो रहे हैं …दिव्य रास मण्डल वहाँ प्रकट था ।
वो स्वामिनी ….श्रीराधिका जू ….ललिता सखी से कहती हैं …तुम सब मण्डलाकार खड़ी हो जाओ …हम दोनों मध्य में नृत्य करेंगे । अद्भुत ! श्याम सुन्दर वरमाला धारण किए ..मोर मुकुट प्रिया जी की ओर झुका हुआ है ….और प्रिया जी अद्भुत भाव भंगिमा से खड़ी हैं ….और तभी रास चल पड़ा । दिव्य गन्ध प्रसारित हो उठा था वहाँ । तभी नूपुर की ध्वनि …..वो फैलने लगी …हाँ ….वो ध्वनि सूक्ष्म से सूक्ष्म थी …..पर स्पष्ट थी । उसी ध्वनि से काम बीज फैल रहा था ….चारों ओर …और सबका हृदय प्रेम से पूरित हो रहा था । अनन्त सखियाँ नृत्य में डूब गयीं थीं और मध्य में प्रिया प्रियतम । क्लीं , क्लीं, क्लीं । मेरा हृदय भी प्रेम से भर गया ।
तुम्हें शायद उस रास विलास की झलक मिली है ?
मेरी दशा देखकर मुस्कुराते हुए हरिप्रिया जी ने पूछा था ।
हाँ , मैं इससे ज़्यादा कुछ बोल न सका ।
तभी …सामने मैंने देखा …एक सुन्दर सखी , अत्यन्त सुन्दर ….मुस्कुराती हुईं आरही हैं ।
वो मत्त थीं ….उनके हृदय में कमल पुष्प की माला थी जो चलते हुए जब हिलती तो उसमें से सुगन्ध ….और उनके हृदय की भी शोभा बढ़ा रही थी ।
किन्तु उनको देखते ही हरिप्रिया उठकर खड़ी हो गयीं ….और साष्टांग प्रणाम किया उन्हें ।
वो मुस्कुराती हुयी अपनी माला हरिप्रिया के कण्ठ में डालती हुयी चली गयीं ।
ये कौन हैं ?
मैंने पूछा, तो सखी जू ने उत्तर दिया ….मेरी गुरुदेव ….हितु सखी जू ।
ओह ! तो मैंने भी उन्हें प्रणाम किया ।
इन्हीं ने मुझे , मेरे कान में काम बीज यानि क्लीं बीज डाली थी ….उसी के कारण….हरिप्रिया बोलीं ….तो ये आवश्यक है निकुँज-उपासना में …क्लीं बीज का हृदय में पहुँचना ? हाँ , ये हृदय में नही जाएगा तो निकुँज में प्रवेश ही नही पाओगे । हरिप्रिया स्पष्ट बता रहीं थीं । कौन देगा ये बीज ? गुरु , हरिप्रिया ने उत्तर दिया । फिर इसके बाद हरिप्रिया सखी ने अपने कमल माला की सुगन्ध ली …युगल सरकार की प्रसादी ..उस पर सखी गुरु की ओर प्रसादी ….तब हरिप्रिया ने भाव में भरकर अपने गुरु सखी की वंदना की ।
“जय जय श्रीहितु सहचरी , भरी प्रेम रसरंग ।
प्यारी प्रीतम से सदा रहत जू अनुदिन संग ।1 !
आहा ! मेरी गुरु हितु सहचरी , उनको मेरा प्रणाम है ….जो प्रेम रस से भरी हैं और प्रेम रंग से भी रंगी हुई हैं …और ये प्यारी और प्रीतम के साथ सदा ही रहती हैं, उनकी सेवा करती हैं ।
ये कहकर हाथ जोड़ उस दिशा में प्रणाम किया जिस दिशा में उनकी गुरु सखी गयीं थीं ।
यहाँ हरिप्रिया सखी जू मौन हो जाती हैं ।
तब …..सिद्धांत क्या है निकुँज का ? सामान्य जीव पहले क्या करे जिससे निकुँज में उसका प्रवेश हो ? मेरे प्रश्न को सुनकर हरिप्रिया जू बोलीं ….प्रथम, गुरु उनको बनावे जो विशुद्ध प्रेम के रहस्य को जानने वाला हो …..और उस विशुद्ध काम यानि प्रेम को तुम्हारे हृदय में पहुँचा दे ….कान के माध्यम से । ये पहला कार्य है ….कुछ सोच कर हरिप्रिया बोलीं ….वैसे साधना से यहाँ तक कोई पहुँचता नही है ….कृपा से ही यहाँ तक आया जाता है ….किन्तु कृपा को रखने का पात्र तो तुम्हें ही साफ स्वच्छ करके रखना होगा ना ? इसलिए ।
( हे साधकों ! ये क्लीं बीज …गोपाल मन्त्र है )
तुमने पूछा है …कि निकुँज का सिद्धांत क्या है ? और कैसे इसमें प्रवेश मिलेगा ?
तो सुनो ……ये कहते हुए हरिप्रिया सखी जी ने अपने नेत्रों को बन्द किए ….और अपनी गुरु सखी जू के चरणों का ध्यान करते हुए ……
“तिनकी कृपा मनाय के , वरनौं परम सुधाम ।
महावाणी सिद्धांत सुख , निज घर श्यामा श्याम” । 2 ।
मेरे ऊपर करुणा करके हरिप्रिया सखी जी ने “सिद्धांत सुख” का वर्णन आरम्भ किया ।
और स्पष्ट कहा ….जो इन सिद्धान्तों पर चलेगा उसके पास श्यामाश्याम होंगे ।
ये सुनते ही मुझे अतिआनन्द के कारण रोमांच होने लगा था ।
शेष अब कल –
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 6 : ध्यानयोग
श्लोक 6 . 3
आरूरूक्षोर्मुनेर्योगं कर्म कारणमुच्यते |
योगारुढस्य तस्यैव शमः कारणमुच्यते || ३ ||
आरुरुक्षोः – जिसने अभी योग प्रारम्भ किया है; मुनेः – मुनि की; योगम् – अष्टांगयोग पद्धति; कर्म – कर्म; कारणम् – साधन; उच्यते – कहलाता है; योग – अष्टांगयोग; आरुढस्य – प्राप्त होने वाले का; तस्य – उसका; एव – निश्चय हि; शमः – सम्पूर्ण भौतिक कार्यकलापों का त्याग; कारणाम् – कारण; उच्यते – कहा जाता है |
भावार्थ
अष्टांगयोग के नवसाधक के लिए कर्म साधन कहलाता है और योगसिद्ध पुरुष के लिए समस्त भौतिक कार्यकलापों का परित्याग ही साधन कहा जाता है |
तात्पर्य
परमेश्र्वर से युक्त होने की विधि योग कहलाती है | इसकी तुलना उस सीढ़ी से की जा सकती है जिससे सर्वोच्च आध्यात्मिक सिद्धि प्राप्त की जाती है | यह सीढ़ी जीव की अधम अवस्था से प्रारम्भ होकर अध्यात्मिक जीवन के पूर्ण आत्म-साक्षात्कार तक जाती है | विभिन्न चढ़ावों के अनुसार इस सीढ़ी के विभिन्न भाग भिन्न-भिन्न नामों से जाने जाते हैं | किन्तु कुल मिलाकर यह पूरी सीढ़ी योग कहलाती है और इसे तीन भागों में विभाजित किया जा सकता है – ज्ञानयोग, ध्यानयोग और भक्तियोग | सीढ़ी के प्रारम्भिक भाग को योगारुरुक्षु अवस्था और अन्तिम भाग को योगारूढ कहा जाता है |
जहाँ तक अष्टांगयोग का सम्बन्ध है, विभिन्न यम-नियमों तथा आसनों (जो प्रायः शारीरिक मुद्राएँ ही हैं) के द्वारा ध्यान में प्रविष्ट होने के लिए आरम्भिक प्रयासों को सकाम कर्म माना जाता है | ऐसे कर्मों से पूर्ण मानसिक सन्तुलन प्राप्त होता है जिससे इन्द्रियाँ वश में होती हैं | जब मनुष्य पूर्ण ध्यान में सिद्धहस्त हो जाता है तो विचलित करने वाले समस्त मानसिक कार्य बन्द हुए माने जाते हैं |
किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति प्रारम्भ से ही ध्यानावस्थित रहता है क्योंकि वह निरन्तर कृष्ण का चिन्तन करता है | इस प्रकार कृष्ण की सेवा में सतत व्यस्त रहने के करण उसके सारे भौतिक कार्यकलाप बन्द हुए माने जाते हैं |
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877