Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!
( “सिद्धान्त सुख”- 4 )
गतांक से आगे –
!! दोहा !!
जय वृन्दावन नित्य जय , नित्य कुँज सुखसार ।
जय श्रीराधा पिय जहाँ , विहरत नित्य विहार ।।
!! पद !!
जय वृन्दावन नित्य विहार , श्रीराधा पिय परम उदार ।
जय सहचरी आदि रंग देव्य , श्यामा श्याम हिं जिनके सेव्य ।।
जय नव नित्य कुँज सुखसार , जय यमुना कंकन आकार ।
श्रीहरिप्रिया सकल सुखसार , सर्व वेद को सारोद्धार ।।
“जय वृन्दावन”…..
हरिप्रिया सखी कहती हैं । और मुझे भी कहने के लिए प्रेरित करती हैं ।
धाम और धामी अभेद हैं ….धामी जिस धाम में विराज रहे हैं , वहाँ दोनों में कोई भेद ही नही है ।
धाम है श्रीवृन्दावन और उसके धामी हैं युगल किशोर ….तत्वतः दोनों एक ही हैं ….हरिप्रिया मुस्कुराते हुए कहती हैं ….जहाँ तुम्हारे आराध्य हैं उस स्थान के प्रति भी उतनी ही श्रद्धा तुम्हें रखनी चाहिए जितनी आराध्य के प्रति है । तुम्हें धाम मिल गया तो समझो धामी भी मिल ही गया । घर मिल गया तो मालिक कहाँ दूर है ?
हरिप्रिया सखी यहाँ निकुँज के मूल चार तत्वों का वर्णन करती हैं …..मंगलाचरण में ही इस पद की गूढ़ता को हमारी सखी जू ने समझाया है । इसे समझना अति आवश्यक है ।
जैसे – चार पुरुषार्थ हैं , चार व्यूह हैं ….ऐसे ही यहाँ एक “रस तत्व” से दो , फिर तीन , फिर चार …..ऐसे लीला विहार के लिए “एक रस” चार रूपों में यहाँ विहरता दिखाई देता है ।
तत्व एक ही है “रस”, उसी का विलास यहाँ है ….हरिप्रिया सखी जू मुझे समझा रही हैं ।
विलास के लिए स्थान चाहिए …..तो वो स्थान “रस”स्वयं ही बना …श्रीवृन्दावन ।
विहार करते हुए सुख भी मिले …..तो “रस” स्वयं ही यमुना के रूप में बहने लगा ।
सेवा , कैंकर्य आदि के लिए “रस” ने ही सखियों का आकार धारण किया ।
और वही “रस” अब कृष्ण बना और फिर श्रीराधा बनकर विहार करने लगा ।
इतनी सुन्दरता से हरिप्रिया ने निकुँज के रहस्य का उजागर करना आरम्भ कर दिया था….कि मैं गदगद होकर बस उनको ही सुन रहा था ।
कुछ देर सखी जी मौन रहीं ….फिर मेरी ओर देखती हुयी बोलीं ….”रैनी बिना रंग चढ़ेगा ही नहीं” ….मैं समझा नही । मैंने भी कह दिया ।
जिस पात्र में रंगेज वस्त्र रंगता है …..उस पात्र को कहते हैं रैनी …..और रैनी के बिना वस्त्र को रंगा नही जा सकता …..है ना ? ऐसे ही रस-रंग का पात्र ये श्रीवृन्दावन है …..अपने चित्त रूपी वस्त्र को इसमें डालो ….प्रेम के रंग में तुम्हारा चित्त रंग जाएगा । नही तो कोई और उपाय है नही ।
हरिप्रिया जी आगे कहती हैं ….इसलिए प्रेम मार्ग में प्रियतम के गली का बड़ा महत्व है …उसकी गली में जब तक भटकोगे नही ….कैसे तुम प्रेम रंग में रंगोगे ।
ये बात अब समझ में आयी थी कि-इसलिए ही भक्ति की साधना में धाम का इतना महत्व है ।
ठीक है ….अब बोलो ….”जय वृन्दावन”।
मैंने भी बड़े उत्साह से बोला – “जय जय वृन्दावन”।
नित्य नूतन , एक रस में अवस्थित , …..”श्रीवृन्दावन की जय हो”।
स्वयं उठकर हरिप्रिया सखी अपने दोनों हाथों को उठाकर बोल रहीं थीं ।
“इनके नित्य विहार की जय हो”……नित्य विहार जो इस नित्य निकुँज के प्राण हैं ।
ये नित्य विहार इसी श्रीवृन्दावन में निरन्तर चलता रहता है ….सूर्य की आयु खतम हो जाती है चन्द्रमा की आयु पूरी हो जाती है …इन्द्र आदि अपनी आयु का पूरा भोग कर लेते हैं , ब्रह्मा तक अपनी आयु पूरी करके महाविष्णु में विलीन हो गए होते हैं …..किन्तु यहाँ अभी नित्य विहार चल ही रहा होता है ।
हरिप्रिया कहती हैं – सब मिट जाते हैं, किन्तु ये “नित्य विहार” कभी नही मिटता ।
इस श्रीवृन्दावन में , जहाँ नित्य विहार हो रहा है ….किसका नित्य विहार हो रहा है ?
श्रीराधा का , केवल श्रीराधा का ? नही नही उनके पिय का भी …यानि दोनों का ।
विशेषता क्या है इन दोनों की ? ये मेरा प्रश्न था ।
दोनों ही परम उदार हैं ….रस देने में श्रीराधा उदार हैं ….प्रेम प्रदान करने में श्रीराधा के समान और कौन उदार होगा ? और रस पीने में श्याम सुन्दर उदार हैं ….वो पिलाती हैं और ये पीते हैं …..अरे ! जगत में जो प्रेम की बूँदे तुम को मिलती हैं ना ….वो इन्हीं परम उदार युगलवर के नित्य विहार प्रेम सिन्धु का एक बिन्दु ही तो है । हरिप्रिया हंसती हैं …बिन्दु को ही तुम सब कुछ मान बैठे हो ….सिन्धु को क्या पचा पाओगे ?
मैं कुछ नही बोला …सच ही कहा था सखी जी ने कि …बेचारे हैं इस संसार के लोग …जो बिन्दु को ही सब कुछ मान बैठे हैं ….यहाँ आओ , देखो ….कैसे रस का सागर लहरा रहा है ।
बोलो …परम उदार प्रिया लाल जू की ….जय हो । मैं भी जय जयकार करने लगा था ।
सहचरी-सखियाँ हैं यहाँ ….इनके बिना विहार आदि कुछ भी सम्भव नही है । हरिप्रिया यहाँ ठसक से बोलती हैं ….रस साधक को तो सखियों की अनुमति चाहिए ही ….तभी इस रस देश में उन्हें प्रवेश मिलेगा …किन्तु युगल सरकार को भी हमारी आवश्यकता पड़ती है ….हमारे बिना उनका रास विलास सम्भव नही है । सखियाँ कितनी हैं ? ये मेरा प्रश्न था …इसके उत्तर में हरिप्रिया अभी यहाँ संख्या नही बतातीं ….वो इतना ही कहती हैं श्रीरंगदेवि आदि सखियाँ हैं …जिनके श्यामा श्याम ही सेव्य हैं…..ऐसी “सखियों की”….मैं उत्साह से बोला …”जय हो”।
हरिप्रिया तभी मुझे यमुना जी के दर्शन कराती हैं ….निर्मल , अत्यंत पवित्र , उस शीतल जल को स्पर्श के लिए कहती हैं …मैं स्पर्श करता हूँ ….आचमन करता हूँ , अपने नेत्रों से लगाता हूँ ।
ये यमुना सखी हैं ….सुख विलास देने के लिए ये यहाँ हैं । कंकण के आकार की हैं ….यानि श्रीवृन्दावन को घेरकर ये रखी हुई हैं । ऐसी युगल वर को सुख देने वाली यमुना जू की ….जय जय जय हो । मुझे अब आनन्द आरहा था ।
एक बात समझो , दुनिया में जितना सुख दिखाई देता है ना , उस सुख का श्रोत यहीं है ।
दुनिया में जितना प्रेम दिखाई देता है ना , उसका मूल भी यहीं है ।
हरिप्रिया कहती हैं ….दुनिया में जितना ज्ञान दिखाई देता है ना …उस ज्ञान का सार वेद है , उसका भी सार ये रस रूप श्रीवृन्दावन , यमुना , सखी और युगल सरकार । ये सब वेद के भी सार हैं …किन्तु वेद इस रस का वर्णन नही कर सकता , उसकी पहुँच ही नही है …..इसलिए इस रस को वेद आदि में मत खोजो …खोजना है तो किसी रसिक के हृदय रूपी श्रीवृन्दावन में खोजो …वहाँ तुम्हें विहार करते हुए ये रस रूप युगल दिखाई दे जायेंगे । हरिप्रिया इतना ही बोलीं ।
शेष अब कल –
Niru Ashra: !! निकुँजोपासना के सिद्धान्त !!
( “सिद्धान्त सुख” – 5 )
गतांक से आगे –
!! दोहा !!
सूक्ष्म कलरव जन्य पर , वेद तन्त्र को मन्त्र ।
श्री वृन्दावन हरिप्रिया , नित्य विहार स्वतन्त्र ।।
॥ पद ॥
वेद तंत्र को मंत्र मनोहर, श्रीवृन्दावन नित्य बिहार ।
सूछम कलरव जन्य ब्रह्म पर, परमधाम को परमाधार ॥
निरवधि नित्य अखंडल जोरी, गोरी स्यामल सहज उदार ।
आदि अनादि एक रस अद्भुत, मुक्ति परें पर सुख दातार ॥
अनंत अनीह अनावृत अव्यय, अखिल अंड आधीस अपार ।
अंघ्रि अब्ज आभूषन रव करि, केतन केत लेत अवतार ॥
अचल अचिंत अगम गुन आलय, अक्षर तें अक्षर अधिकार ।
श्रीहरिप्रिया विराजत हैं जहँ, कृपा साध्य प्रापति सुखसार ॥
मुझे दर्शन करा दिया था हरिप्रिया सखी जी ने “योगपीठ का” या मैं शब्द का प्रयोग करता हूँ …”यन्त्र”। वो यन्त्र मुझे दिखा दिया था ….जो “क्लीं” के आकार का था । यही काम बीज है ….ये बात मुझे स्पष्ट हो गयी थी …काम प्रेम का ही रूप है ….काम शब्द प्रेम के लिए ही इन “प्रेम देशों” में प्रयोग होता आया है । जैसे – भागवत में शुकदेव जी ने “गोप्य कामाद्” का प्रयोग किया था …जिसमें बताया था कि गोपियों ने श्रीकृष्ण को पाया तो “काम” से ही पाया …रसिकों ! काम यानि प्रेम …ये अर्थ यहाँ किया जाना चाहिए ।
प्राचीन भारत वर्ष में विग्रह पूजा की अपेक्षा यन्त्र पूजा का अधिक महत्व था …यन्त्र विशेष प्रभावशाली है ….आज भी कई प्राचीन मन्दिर हैं जिनमें यन्त्र की पूजा विशेष होती है । हमारे यहाँ का वैश्य समुदाय आज भी दीपावली में लक्ष्मी पूजा यन्त्र की होती है ।
यन्त्र में बीज लिखे जाते हैं ….जो मन्त्र का सार होता है ।
हर मन्त्र का अपना यन्त्र होता है …और मन्त्र ऊपर स्थित यन्त्ररूप इष्ट लोक को आकर्षित करता है ।
जैसे – राम मन्त्र होगा तो उसका अपना यन्त्र भी होगा जो साकेत लोक को आकर्षित करेगा ..इसलिए वो साधक साकेत ही जाएगा ..चाहे उसका देह श्रीवृन्दावन में ही क्यों न छूटे ।
अब इस बात पर ध्यान दें रस उपासक ….”क्लीं”….ये गोपाल मन्त्र का बीज है …यन्त्र यही है , यही निकुँज का आधार है …हृदय में प्रेम का बीज भरना कान के माध्यम से , किसी रसोपासक गुरु के द्वारा । फिर साधक द्वारा उस गोपाल मन्त्र का जाप । इससे अंतकरण शुद्ध होगा , पावन होगा । निकुँज धाम तुम्हारे प्रयास से या मन्त्र जाप से मिल जाएगा ये आप सोच रहे हैं तो इस सोच को निकाल दीजिए ….क्यों की मुझे हरिप्रिया सखी जी ने स्पष्ट कहा है ….”कृपा साध्य प्रापति सुख सार” । निकुँज तो कृपा से ही मिलेगा …किन्तु मन्त्र जाप आदि से हम उस निकुँज के लिए तैयार हो जाएँगे …बाकी युगल की जब कृपा हो । इसलिए निकुँज उपासकों के लिए गोपाल मन्त्र का क्लीं काम बीज बहुत प्रभावशाली है …इसका प्रयोग साधक करता रहे …किसी अच्छे जानकार से इस सम्बन्ध में जानकारी लेकर ।
नित्य विहार में स्वामिनी जू की नूपुर बजी , सूक्ष्म कलरव हुआ था….सब कुछ शान्त था उस समय ….बस प्रिया जी की नूपुर बज रही थी ….वो ध्वनि बहुत सूक्ष्म थी ….किन्तु फैलती जा रही थी ….उस नूपुर की ध्वनि ने श्याम सुन्दर को भी मोहित कर डाला था । तभी हमने अनुभव किया ….हरिप्रिया सखी मुझे काम बीज का आज रहस्य समझा रही थीं ….मैं उनकी एक एक बात बड़े ही ध्यान से सुन रहा था । वो नूपुर का कलरव विश्व ब्रह्माण्ड में फैल गया ….वो काम बीज था ….और उसमें से अब शब्द ब्रह्म की उत्पत्ति हुई थी ।
शब्द ब्रह्म ?
मेरे मन ने स्पष्ट जानना चाहा तो हरिप्रिया जी ने मुझे ….”ओमकार” कहा । उस नूपुर के कलरव से ओमकार प्रकट हुआ ….जो वेद के प्राकट्य का हेतु बना । और वेद से ही तो सब मन्त्र और तन्त्र की उत्पत्ति हुई है …हरिप्रिया जी ने मेरी ओर देखा ।
किन्तु कामबीज वेद से प्रकट नही है …इसलिए मन्त्र और तन्त्र से परे है ये कामबीज यानि प्रेम ।
मैं इस विषय की रसमयता के रहस्य को समझ रहा था ।
हरिप्रिया सखी मेरी ओर देखकर मुसकुराईं …फिर सहज भाव से बोलीं …तुम समझ रही हो ना ? मैंने सिर झुकाकर बस …हाँ कहा ।
श्रीराधा के नूपुर से काम बीज प्रकट हुआ ….उससे ओमकार की उत्पत्ति हुई …..ओमकार से वेद प्रकट हुए …वेद से मन्त्र तन्त्र प्रकट हुए ….किन्तु इन सबसे परम स्वतन्त्र इनके ऊपर शासन किसी का नही है ….वो हैं …श्री …यानि सखियाँ और वृन्दावन , हरिप्रिया यानि युगल सरकार और उनका नित्य विहार । ये चार तत्व हैं जो स्वतन्त्र हैं ….और अनादि हैं ।
हरिप्रिया जी के द्वारा इस तरह रसतत्व का निरूपण सुनकर मैं आनंदित हो उठा था ।
उस काम बीज का आधार क्या है ? ये प्रश्न मेरा था ।
क्यों की जैसा बीज हो उसके लिए खेत भी वैसा ही चाहिए …..बीज तो अच्छा है किन्तु खेल अच्छी न हो तो वो बीज पनप नही सकता ।
श्रीवृन्दावन ……हरिप्रिया सखी जी ने कहा ।
श्रीवृन्दावन यही काम बीज की आधार स्थली है …..एक प्रकार से रस की खेती है यानि प्रेम की खेती है श्रीवृन्दावन । अद्भुत बात कही थी हरिप्रिया जी ने ।
ये परम धाम है , परात्पर परमाधार है ये श्रीवृन्दावन ।
इसका प्रलयकाल में भी नाश नही होता इसलिए श्रीवृन्दावन निरवधि है ….यानि इसकी कोई अवधि नही है कि ये कब से है , कब तक है । नित्य अखण्डित है ….यानि शाश्वत है …सनातन है ….और एक बात ध्यान देना …श्रीवृन्दावन विस्मय जनक है ….कभी कभी ये तुमको वो दिखा देगा जिसकी तुमने कल्पना भी नही की होगी …..हरिप्रिया कह रही थीं ।
क्या विस्मय जनक ? मैंने बीच में पूछ लिया ।
तुम्हें झलक मिल जाएगी …..सघन गौर श्याम जोरी की …..झलक , हरिप्रिया इतना ही बोलीं ….फिर कुछ देर में उन्होंने कहा – जब एक झलक तुम्हें श्रीवृन्दावन दिखा देगा तब तुम औरों के , किसी काम के नही रहोगे । बाबरे से हो जाओगे ….राधा राधा राधा ….चिल्लाते फिरोगे ….उस अवस्था में मुक्तियाँ आएँगीं ( भागवत में चार मुक्ति की चर्चा मिलती है ) किन्तु मुक्ति तो तुच्छ लगेगी तुम्हें , और तुम चाहोगे कि सेवा मिले …सेवा का सुख मिले । हरिप्रिया कहती हैं …मैं क्या कहूँ तुम्हें …सेवा का जो सुख है उसके आगे मुक्ति भी फीकी लगती है ।
वो काम बीज ? मैंने उसके विषय में और जानना चाहा तो हरिप्रिया बोलीं ….वो काम बीज ही तो प्रेम बीज है …..जो समस्त लोकों की रचना करने वाला है …सामान्य लोक ही नही भगवदलोक भी ….और सबके अधिपति मूल रूप से युगल सरकार ही हैं ….युगल ही समस्त ब्रह्मांडों के नायक नायिका हैं …..ये बात समझना अत्यंत आवश्यक है ।
हे सखी ! तुम समझ रही हो इसलिए मैं तुम्हें बता रही हूँ …..अनन्त ऐश्वर्य के राजा होकर भी ये युगल सरकार माधुर्य से भरे रहते हैं …ऐश्वर्य इनके माधुर्य को कम नही कर सका है ..ऐसे रस के ईश्वर , रसेश्वर युगलवर ही इस निकुँज के बिहारी और बिहारिन है ….इन्हीं से समस्त को प्रेम का प्रसाद मिलता है इसलिए इन युगलवर की जय हो , जय हो , जय जय हो ।
हरिप्रिया इतना कहकर मौन हो जाती हैं ….मैं भी रसावेश में डूब गया था ।
शेष अब कल –
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