Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (091)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
गोपियों का समर्पण-पक्ष
श्रुति ने कहा- ‘न स पुनरावर्तते’ परमेश्वर के पास आकर फिर कभी कोई लौटता नहीं। खुद कृष्ण ने गवाही दी है; तुम तो अब कृष्ण हुए व्रज में, नये-नये कृष्ण पैदा हुए; परन्तु जो पुराने कृष्ण थे, इसके पहले के द्वापर में जो पैदा हुए थे, वे तो अपने मित्र अर्जुन से कहकर गये कि ‘यद् गत्वा न निवर्तन्ते तद्धाम परमं मम’ मेरे धाम में आने पर फिर लौटना नहीं होता। अब ये द्वापर में नये कृष्ण कहाँ से आये? कोई कलियुगी कृष्ण तो नहीं? तुम द्वापरी कृष्ण हो, तो हम तुम्हारे पाँव में आकर लौटेंगी कैसे!
भक्ताः- भक्ति जिसमें हो उसको भक्त बोलते हैं; और उसका यह कर्म में बहुवचन है भक्ताः। अरे, हमारे तुम्हारे लिए खूब पक गयी हैं, पाक बन गयी हैं, खूब भक्ता माने भात बन गयी हैं- ‘भजस्व दुरवग्रह मा त्यजास्मान्’ अपने लोगों के प्रति इतनी जिद्द नहीं करनी चाहिए। दुरवग्रह शब्द व्याकरण की रीति से बड़ा विलक्षणं बनता है। अवग्रह माने है- प्रतिबंध। जैसे वर्षा होने वाली हो और बीच में बड़ी तेज हवा आवे और बादल को उड़ाकर तितर-बितर करके कहीं का कहीं कर दे, तो हवा को बोलेंगे अवग्रह, दृष्टि में रूकावट पड़ गयी है। ग्रह-ज्योतिष की दृष्टि से-
शुक्रास्तसमये वृष्टिः कुजोदिते ह्यवर्षणम् ।
जब शुक्रास्त होता है, तब वर्षा होती है, और जब बृहस्पति उदय होता है तब वर्षा होती है। अब बीच में महाराज यदि अंगारक मंगल आ जाय, तो वृष्टि का प्रतिबंध हो जाता है। तो उस मंगल को बोलेंगे- अवग्रह। तो गोपियाँ कहती हैं कि महाराज, यहाँ तो रसवर्षा होने वाली थी, आज हमारा रोम-रोम नृत्य करता, आज वृन्दावन वंशी-ध्वनि से भर जाता, आज तुम्हारे नूपुर की रुनझुन से, हमारी करधनी और कंकण की ध्वनि से आकाश मुखरित हो जाता, भीग जाती है आज सारी सृष्टि, इस रास-रस की वर्षा में; यह मंगल ग्रह प्रतिबंध कहाँ से आ गया? लेकिन सचमुच अपने लोगों के प्रति इतना हठीला, जड़ावग्रह, जड़ाग्रही नहीं होना चाहिए। सचमुच, तुम जिद्दी हो। देखो, यह बात ब्रह्मा नहीं कह सकते श्रीकृष्ण से कि तुम हठी हो, स्वच्छन्द हो, स्वतंत्र हो। शंकर जी हाथ जोड़ें, ब्रह्माजी हाथ जोड़ें, इन्द्र नाथ जोड़े पर ये गाँव की ग्वालिन कहती हैं कि ओ हठीले। छोड़ दो अपना हठ। इसमें स्वविग्रह का दूसरा अर्थ भी है- अपने स्वजन के प्रति हँसी? अरे बाबा, पराये के प्रति हँसी होय तो होय। अपने के प्रति कोई हँसी होती है।+
हम तो तुम्हारा भजन करती हैं; तुम्हारी हम सेविका हैं, दासी हैं; तुम्हारी भक्त हैं। कृष्ण बोले- अच्छा, बोलो गोपी- ‘प्रियं किं करवाणि वः’ क्या करें तुमसे? तो बोलीं- भजस्व, हमारी भक्ति करो, जैसे हमने तुम्हारी भक्ति की है, वैसे तुम हमरी भक्ति करो। हमने तुम्हारी सेवा की तुम हमारी सेवा करो, हम तुम्हारा भजन करती हैं तुम हमारा भजन करो, कृष्ण ने कहा- तुम हमारी बराबरी करने पर उतारू क्यों हो? बोलीं- इसमें बै बात। बराबरी की बात नहीं, हम तो सिर्फ दस्तावेज को जो तुमने पहले लिख दिया था दुहरा रही। ‘यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्’ उस दस्तावेज के मुताबिक हम तुम्हारा भजन करती हैं तुम हमारा करो; हम कृष्ण-कृष्ण बोलती हैं, तुम गोपी-गोपी बोलो; हम तुम्हारे लिए नाचती हैं तुम हमारे लिए नाचो; हम तुम्हारे लिए व्याकुल, तुम हमारे लिए व्याकुल।
भजस्व दुरवग्रह मा त्यजास्मान् अरे, मत छोड़ो बाबा, इसमें बाद में तुमको दुःख होगा। तुम्हारी भलाई के लिए कह रही हैं। अरे, हम तो गोपी हैं, मर जायेंगी, पर करोड़-करोड़ ये गोपी लौटकर व्रज में जाने वाली नहीं है, तुम्हीं इनकी हत्या का पाप लेकर व्रज में लौटो तो लौटो। और जाकर खुश होना, पर अब ये गोपी तो लौटाने वाली है नहीं। हम तो तुम्हारी भलाई के लिए कहती हैं कि तुम्हारी बदनामी हो जाएगी, कि कृष्ण के लिए इतनी गोपियाँ मर गयीं। हाँ, तुमको ग्लानि होगी, कि हाय-हाय हमने अपने प्रेमियों के साथ अच्छा बर्ताव नहीं किया। इसलिए हाय-हाय हमने अपने प्रेमियों के साथ अच्छा बर्ताव नहीं किया। इसलिए मात्यजास्मान हमें छोड़ो मत, हमारा त्याग मत करो, हमारी मान लो। बोले- इसमें दृष्टान्त क्या है? तो इसमें दृष्टांत बताती हैं-
‘देवो यथाऽऽदिपुरुषो भजते मुमुक्षून्’ जैसे आदिपुरुष भगवान नारायण हैं- उनके समान तो गर्गाचार्य तुमको बता गये और उनसे बड़ा तुमको पौर्णमासी पुरोहितानी बताती हैं। तो जैसे कोई जब संसार का त्याग करके नारायण भगवान की शरण में जाता है और नारायण उसका त्याग नहीं करते हैं, उसको अपनी शरण में ले लेते हैं, हमेशा के लिए हाथ पकड़ लेते हैं, वैसे ही श्रीकृष्ण। हम भी संसार त्यागकर आपकी शरण में आयी है, हम तुम्हारी भक्ता हैं, तुम हमको स्वीकार करो।++
‘देवो यथाऽऽदिपुरुषो भजते मुमुक्षून्’ देव तो खिलाड़ी हैं, वे अनेक रूप धारण करके विहार करते हैं, तुम भी हमारे साथ विहार करो। इसमें आकार का श्लेष करके भजते मुमुक्षून् ऐसा अर्थ भी कोई-कोई निकालते हैं। वे कहते हैं कि मोक्ष चाहने वालों की सेवा नारायण नहीं करते हैं। क्यों? बोले-संसाररूपी जेल के दरवाजे पर नारायण भगवान् बादशाह खड़े हो गये; जेल में से कैदी निकलने लगे; बोले- क्या चाहते हो?
बोले- महाराज छुट्टी चाहते हैं, जेल में से निकल जाना चाहते हें। तो कहा- जाओ, खुला है दरवाजा, जिसको-जिसको हमारा दर्शन हो जाय सो निकलते जाओ, जेलखाने से छुट्टी। नारायण, उनको वैकुण्ठ में थोड़े ही रखते हैं जो मोक्ष चाहते हैं, माने जो जेलखाने से छूटना चाहते हैं। मुक्ति माने छुटकारा। जो लोग संसार के कैदखाने में कैद किए गये हैं वे नारायण का भजन करें, तो नारायण उनका भजन नहीं करते, कहते हैं जाओ छुट्टी, जाओ मुक्त हो गये, तुम ब्रह्म हो गये, निर्गुण, निर्विकार, एकरस, निर्धर्मक हो गये। खड़े होकर नारायण फाटक पर बोलते हैं *तत्त्वमसि, तत्त्वमसि। जितने-जितने कैदी निकलते हैं सबको बोलते हैं नारायण *तत्त्वमसि, तत्त्वमसि* तू ब्रह्म है, जाओ मुक्त हो गये।
अब एक ने कहा, महाराज, जेलखाने से तो मैं निकल आया, लेकिन हमको मोक्ष वोक्ष तो चाहिए नहीं। हम तो चाहते हैं महाराज कि आपके साथ-साथ महल में चलें, और आपका पाँव धोयें अपने हाथ से, और आपके कपड़े धोवें, और अपने हाथ से आपकी रोटी बनावें, आपके बाल सँवार दें, आपको चंदन लगा दें, आपको पंखा झलें, आपके मुँह में पान की बीड़ी हम अपने हाथ से डालें। बोलें- ख़िलाफ़ हैं। फिर क्या करें? अब नारायण भगवान् पड़े चक्कर में। ‘ता ते जे हरि भगति सयाने। मुकुति निरादरि भगति लोभाने ।।’ नारायण बोले- अच्छा भाई, तो फिर चलो हमारे साथ वैकुण्ठ में। वृन्दावन में हमारे कोकिल साँई थे, वे कहते थे कि एक दिन भाव में माली की लड़की बनकर, डलिया म फूलमाला लेकर, पहुँच गया भगवान् के दरबार में। तो महाराज रामचंद्र बहुत नाराज हुए कि यहाँ माली की लड़की बिना आज्ञा के कैसे घुस आयी हैं?
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 6 : ध्यानयोग
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श्लोक 6 . 4
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यदा हि नेन्द्रियार्थेषु न कर्मस्वनुषज्जते |
सर्वसङ्कल्पसन्न्यासी योगारूढस्तदोच्यते || ४ ||
यदा – जब; हि – निश्चय ही; न – नहीं; इन्द्रिय-अर्थेषु – इन्द्रियतृप्ति में; न – कभी नहीं; कर्मसु – सकाम कर्म में; अनुषज्जते – निरत रहता है; सर्व-सङ्कल्प – समस्त भौतिक इच्छाओं का; संन्यासी – त्याग करने वाला; योग-आरूढः – योग में स्थित; तदा – उस समय; उच्यते – कहलाता है |
भावार्थ
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जब कोई पुरुष समस्त भौतिक इच्छाओं का त्यागा करके न तो इन्द्रियतृप्ति के लिए कार्य करता है और न सकामकर्मों में प्रवृत्त होता है तो वह योगारूढ कहलाता है |
तात्पर्य
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जब मनुष्य भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में पूरी तरह लगा रहता है तो वह अपने आप में प्रसन्न रहता है और इस तरह वह इन्द्रियतृप्ति या सकामकर्म में प्रवृत्त नहीं होता | अन्यथा इन्द्रियतृप्ति में लगना ही पड़ता है, क्योंकि कर्म किए बिना कोई रह नहीं सकता | बिना कृष्णभावनामृत के मनुष्य सदैव स्वार्थ में तत्पर रहता है | किन्तु कृष्णभावनाभावित व्यक्ति कृष्ण की प्रसन्नता के लिए ही सब कुछ करता n भौतिक इच्छाओं से बचे रहने का वह यंत्रवत् प्रयास करे, तभी वह योग की सीढ़ी से ऊपर पहुँच सकता है |
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 6 : ध्यानयोग
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श्लोक 6 . 5
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उद्धरेदात्मनात्मानं नात्मानमवसादयेत् |
आत्मैव ह्यात्मनो बन्धुरात्मैव रिपुरात्मनः || ५ ||
उद्धरेत् – उद्धार करे; आत्मना – मन से; आत्मानम् – बद्धजीव को; न – कभी नहीं; आत्मानम् – बद्धजीव को; अवसदायेत् – पतन होने दे; आत्मा – मन; एव – निश्चय ही; हि – निस्सन्देह; आत्मनः – बद्धजीव का; बन्धुः – मित्र; आत्मा – मन; एव – निश्चय ही; रिपुः – शत्रु; आत्मनः – बद्धजीव का |
भावार्थ
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मनुष्य को चाहिए कि अपने मन की सहायता से अपना उद्धार करे और अपने को नीचे ण गिरने दे | यह मन बद्धजीव का मित्र भी है और शत्रु भी |
तात्पर्य
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प्रसंग के अनुसार आत्मा शब्द का अर्थ शरीर, मन तथा आत्मा होता है | योगपद्धति में मन तथा आत्मा का विशेष महत्त्व है | चूँकि मन ही योगपद्धति का केन्द्रबिन्दु है, अतः इस प्रसंग में आत्मा का तात्पर्य मन होता है | योगपद्धति का उद्देश्य मन को रोकना तथा इन्द्रियविषयों के प्रति आसक्ति से उसे हटाना है | यहाँ पर इस बात पर बल दिया गया है कि मन को इस प्रकार प्रशिक्षित किया जाय कि वह बद्धजीव को अज्ञान के दलदल से निकाल सके | इस जगत् में मनुष्य मन तथा इन्द्रियों के द्वारा प्रभावित होता है | वास्तव में शुद्ध आत्मा इस संसार में इसीलिए फँसा है | अतः मन को इस प्रकार प्रशिक्षित करना चाहिए कि वह प्रकृति की तड़क-भड़क से आकृष्ट ण हो और इस तरह बद्धजीव की रक्षा की जा सके | मनुष्य को इन्द्रियविषयों से आकृष्ट होकर अपने को पतित नहीं करना चाहिए | जो जितना ही इन्द्रियविषयों के प्रति आकृष्ट होता है वह उतना ही इस संसार में फँसता है | अपने को विरत करने का सर्वोत्कृष्ट साधन यही है कि मन को सदैव कृष्णभावनामृत में निरत रखा जाय | हि शब्द इस बता पर बल देने के लिए प्रयुक्त है अर्थात् इसे अवश्य करना चाहिए | अमृतबिन्दु उपनिषद् में (२) कहा भी गया है –
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्ष्योः |
बन्धाय विषयासंगो मुक्त्यै निर्विषयं मनः ||
“मन ही मनुष्य के बन्धन और मोक्ष का भी कारण है | इन्द्रियविषयों में लीन मन बन्धन का कारण है और विषयों से विरक्त मन मोक्ष का कारण है |” अतः जो मन निरन्तर कृष्णभावनामृत में लगा रहता है, वही परं मुक्ति का कारण है |
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (092)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
गोपियों का समर्पण-पक्ष
मैं डर गयी, डर गयी तो उन्होंने पकड़कर एक चपत लगा दी। जानकी जी ने दूर से देखा और दौड़कर आयीं, और हमारा हाथ पकड़ लिया। बोलीं- यह लड़की तो हमको बहुत प्यारी लगती है, रोज हमारे लिए माला ले आती है, फूल बनाती है। यह भाव की दृष्टि है। भाव दूसरी वस्तु है और तत्त्व और तत्त्वज्ञान दूसरी चीज है, वहाँ तो अध्यस्त और अधिष्ठान का विचार है। तत्त्व वस्तु जो है वह निराकार, निर्विकार, एकरस है। भक्ति व्यक्ति की शक्ति है, और ब्रह्म अव्यक्त का स्वरूप है। जीवन में जो आनन्द का स्वरूप है, उसी को ब्रह्मनिष्ठा बोलते हैं। वह वृत्ति है।
गोपियों ने कहा- अरे, हम भी अमुमुक्षु हैं, हमको मोक्ष नहीं चाहिए, हमको ब्रह्मज्ञान नहीं चाहिए। हमको अर्थ नहीं चाहि, धर्म नहीं चाहिए, काम नहीं चाहिए, मोक्ष नहीं चाहिए; हमको तो चाहिए यह कि हम तुम्हारे पाँव के नीचे कुचल जायँ। हम तुम्हारे पाँव के नीचे पड़कर मर जाना चाहती हैं। अब आओ कृष्ण, धर्मशास्त्र की बात करें तुमसे-
यत्पत्यपत्यसुहृदामनुवृत्तिरंग स्त्रीणां स्वधर्म इति धर्मविदा त्वयोक्तम् ।
अस्त्वेवमेतदुपदेशपदे त्वयीशे प्रेष्ठो भवांस्तनुभृतां किल बन्धुरात्मा ।।
तुम यह कहते हो कि स्त्री का अपना स्वधर्म है और ‘स्वधर्मे निधनं श्रेयः परमधर्मो भयावहः’ अपने धर्म में मरना अच्छा है कि और दूसरे के धर्म में स्थित होना, उसका पालन करना, उतना ही भयंकर है। तो स्त्री का धर्म क्या है? स्त्री का धर्म है क पति, अपत्य (पुत्र) और सुहृद्, इनके अनुकूल होकर स्त्री रहे। हे अंग। हे कृष्ण प्यारे! यह स्त्री का स्वधर्म है। बात ठीक है। ‘इति धर्मविदा त्वयोक्तम्’ तुम्हारे धर्म के ज्ञान पर हमको कोई संदेह नहीं है, तुम धर्मशास्त्री हो, मनुजी ने जैसा कहा वैसा ही तुमने कहा; जैसा सनातन धर्म है वही तुमने कहा। स्त्रीधर्म यही है कि पति, पुत्र, सुहृद्, सबके अनुकूल रहकर अपने पतिव्रत धर्म का ठीक-ठीक पालन करें। लेकिन बाबा! हमने इस बात को मना कहाँ किया? हमारे पति, हमारे अपत्य, हमारे सुहृद्, एक तुम ही हो।+
गोपियों का समर्पण-पक्ष चार प्रकार से इस वाक्य का अर्थ श्रीधरस्वामी ने लिखा है। बढ़िया गंभीर प्रश्न है, यह! आपको पहले गंभीर सुनावेंगे। गोपी कहती हैं कि पति की सेवा इसलिए है, पुत्र की सुहृद् की सेवा इसलिए कि अपने धर्म का पालन करने से अंतःकरण शुद्ध होवे और शुद्ध अंतःकरण में परमात्मा की प्रीति उदय हो, परमात्मा का ज्ञान उदय हो, परमात्मा का साक्षात्कार हो। धर्म स्वतंत्र प्रमाण नहीं है, सत्य वस्तु के साक्षात्कार में धर्म प्रमाण नहीं है। एक अंधा था। उसने दान किया कि इससे हमको जगन्नाथ जी का दर्शन होना चाहिए। दान तो हुआ हाथ से परंतु दान के फलस्वरूप जगन्नाथ जी का दर्शन नहीं होगा, दान के फलस्वरूप उसको आँख मिलेगी; और आँख से वह जगन्नाथ जी का दर्शन करे। जगन्नाथ जी तो पहले मौजूद हैं, वे त पहले से बैठे हैं, उनको देखने के लिए चाहिए आंख। कर्म से वस्तु नहीं दिखती, ज्ञान से वस्तु दिखती है। तो धर्म-कर्म क्यों? कि जिससे आँख मिले, और आँख से शुद्ध परमात्मा का दर्शन हो, माने ज्ञान प्राप्त होवे। विविदशा वाक्य जो है ना-
तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मण विविदशन्ति यज्ञेन, दानेन, तपसा, अनाशकेन।
सारे व्रत, सारे दान, सारे तप, सारे यज्ञ इसके लिए हैं कि हमारा हृदय शुद्ध होवे और हृदय शुद्धि का फल है भगवान् ने अनुराग होना। तो गोपियों ने कहा कि अब हमारा भगवान् से अनुराग हो गया। इसलिए जब धर्मानुष्ठान का जो फल है भगवदनुराग वही प्राप्त हो गया तो अब हम अनुराग धर्म का ही पालन करेंगे, पुनः धर्मानुष्ठान में नहीं जायेंगी। ईश्वर की भक्ति परमधर्म है। याज्ञवल्क्य की स्मृति में एक श्लोक आता है।
अयं तु परमो धर्मो यज्ञयोगेनात्मदर्शनम्
एक धर्म है और एक परमधर्म है। दान, व्रत, तपस्या ये सब धर्म हैं; और अपने दिल में बैठा हुआ जो दिलवर है उसके प्रति जो अनुराग है वह परमधर्म है। ईश्वर ही दिलवर है। धर्म का फल है परमधर्म। जब हमको परमधर्म मिल गया तो पुनः हमको धर्म करने के क्यों कहते हो? ++
श्रीधरस्वामी ने एक दूसरा अभिप्राय और बताया। वह बोलते हैं कि धर्म का पालन करने के लिए धर्म ज्ञान होना चाहिए। धर्म का ज्ञान होता है आचार्य से और आचार्य धर्म का उपदेश करता है तब जब उसकी सेवा करो। बिना सेवा किये ही कोई आचार्य धर्मोपदेश करता हो तो लाउडस्पीकर सड़कर पर घूमे कि तुम्हारा यह धर्म है, तुम्हारा यह धर्म है, तुम्हारा यह धर्म है। जो सेवा नहीं करेगा, उसके हृदय में धर्म-भाना बैठेगी नहीं। गुरु की सेवा करके तब धर्म प्राप्त किया जाता है, फिर धर्म के द्वारा ईश्वर की आराधना की जाती है। गोपी कहती हैं कि ठीक है, श्रीकृष्ण। तुमने आज हमको धर्मोपदेश दिया, तो आओ गुरुजी, पहले तुम्हारी सेवा हमलोग कर लें। उसके बाद हम धर्मपालन करेंगी, क्योंकि बिना गुरु-सेवा के हमारी धर्म-निष्ठा सच्ची नहीं होगी। और एक बात यह है कि धर्म होता है ईश्वर की सेवा के लिए; तो जहाँ ईश्वर और गुरु दोनों एक हो गये वहाँ धर्म और सेवा एक में मिल गये। तो हमारे तुम ईश्वर भी हो, और गुरु भी हो, और हमारा धर्मपालन और तुम्हारी सेवा दोनों एक साथ मिल गये।
संस्कृत भाषा में सेवा की अपेक्षा भक्ति शब्द ज्यादा अंतरंग है। यह शब्द की बात बताता हूँ। सेव् और भज्- दोनों धातु सेवा के अर्थ में है। परंतु सेव् धातु आत्मनेपदी है जबकि भज् धातु उपभयपदी है। सेव् से सेवते होता है, सेवति नहीं होता है। जबकि भज् धातु से आत्मनेपदी में भजते बनाता है और परस्मैपदी में भजति बनता है। इसका अर्थ है कि सेवा करने में सेवा जो है वह सेवा का सुख सेवक की ओर ले आता है। जो सेवा करेगा, मेवा पावेगा, सेवा करने वाला सुखी होता है। गुरु की सेवा करके शिष्य सेवा का फल मेवा प्राप्त करेगा। लेकिन ईश्वर की जो भक्ति है, ईश्वर की जो आराधना है, उसमें जब तक भक्ति पहली कक्षा की रहती है, तब तक तो उसका फल अपनी ओर (भक्त की ओर) आता है, जैसे कि हमको यह चाहिए, हमको धर्म चाहिए, काम चाहिए, मोक्ष चाहिए, जो चाहिए सो मिले। परंतु जब भक्ति प्रेम हो जाती है तो उसका फल भक्ति करने वाले की ओर नहीं आता, प्रियतम की ओर चला जाता है। इसीलिए भज् धातु जो है, वह प्रारंभिक दशा में ‘भजते’ (आत्मनेपदी) और पराकाष्ठा में ‘भजति’ (परस्मैपदी) है।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
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