Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!
( “सिद्धान्त सुख” – 8 )
गतांक से आगे –
ऐसो निज धाम जा मधि निति भूमि। अमित दल कमल आकार रहि झूमि ॥
मध्य मंजुल बनी अष्टदल पाँति । उपरि प्रिय सखिनि की कुंज सरसाँति ॥
तेजमय कर्निका अति सुदेसा। ताके चहुँ ओर सरवर सुबेसा ॥
मान अरु मधुर सरवर सरूपा। रूप सरवर सहित अति अनूपा ॥
तिनकि चहुँ ओर रचना अपारा। नगनि करि घाट निर्मित सुढारा ॥
सुभग सुठि सिढिनि को अति प्रकासा । जगमगहिं जोति उठि रह्यौ उजासा ॥
चहूँ सरवरन के मध्य सोहें। महल अठद्वार छबि को बिमोहें ॥
द्वार-द्वारनि धुजा अति सुढाला । बडडे मुक्तानि बंदन सुमाला ॥
कनक सुकपाट सुभ घाट सोहें। निकर निकुधांनि के जरित जोहें ॥
जगर जगमगति अति जोति जिनकी । अमित दुति धरन सम होति तिनकी ॥
फटिकमनि भीति अति स्वच्छ जामें । भासें प्रतिबिंब सब ठौर तामें ॥
*निकुँज के दर्शन हरिप्रिया सखी जी के माध्यम से मुझे हो रहे थे ….वो दिव्य श्रीवन , वो दिव्य निकुँज …..मैं क्या वर्णन करूँ उसका । जो भी लिख-बता रहा हूँ वो सब हरिप्रिया जी की कृपा से ही हो पा रहा है ।
ये देखो – कंगन आकार की यमुना जी , यमुना जी के मध्य में निकुँज की अक्षय भूमि है …वो भूमि कमल दल की आकृति लिए हुए है , झूम रही है । मैंने देखा कि …असंख्य कमल दल खिले हैं ….और जब हवा चलती है तो वो पूरी भूमि झूम उठती है …और सुगन्ध की वयार ! ये दर्शनीय था । मुझे अब आगे आगे हरिप्रिया जी बता रही थीं ।
हे रसिकों ! आप भावना कीजिए …कमल दल के समान निकुँज की भूमि है ….उसके चारों ओर यमुना बह रही हैं …..कमल दल समान हैं तो मध्य में कमल की कर्णिका होती है ….यहाँ भी कर्णिका की आकृति है ….उस कर्णिका के चारों ओर ….अष्ट दल की पंक्ति हैं ….ओह ! इन अष्ट दलों पर अष्ट कुँजें हैं ….जो अष्ट सखियों के हैं …बड़े ही रंग और रस से भरे हैं …..दिव्य शोभा है इन सबकी यहाँ ।
हरिप्रिया सखी आगे आगे चल रही हैं और मैं उनके पीछे …..वो मुझे अष्ट सखियों के कुँज निकट ले गयीं और बोलीं – ये देखो ! ये कुँज है ….मैंने पूछा ..ये किसका कुँज है ? तो सजल नेत्र से भाव में भर गयीं और बोलीं …हमारी युथेश्वरी श्रीश्रीरंगदेवि जू का । ये कहकर हरिप्रिया ने अपना सिर भी उस कुँज के आगे झुकाया था , मैंने साष्टांग किया । वो भीतर गयीं …तो मैं भी गया । कुँज के भीतर महल है ….अद्भुत ये था कि श्रीरंगदेवि जू का जो महल था उसके अष्ट द्वार थे …यानि आठ दरवाज़े थे ..उत्तर दिशा की ओर श्रीरंगदेवि जू का बाग भी था …इस बाग में अनेक पुष्प खिले थे ।
“श्रीरंगदेवि जू यहीं से पुष्प चुनकर युगल सरकार की सेवा में ले जाती हैं”…..हरिप्रिया सखी ने बताया और आगे बढ़ीं ..मैं उनके पीछे पीछे चला । बाग में ही वो मुझे ले गयीं थीं …क्यों की बाग के मध्य में एक मणिमण्डप था …जो अत्यन्त सुन्दर मणियों से निर्मित था ….दूर से मैंने देखा तो ये छोटा ही लग रहा था किन्तु जैसे ही पास में आया …ये तो बहुत विशाल है ….मणियों के ही फर्श थे वहाँ …..अनेक खम्भे थे …वो सब भी मणियों से बने थे ….इतना ही नही …उस मणिमण्डप के बारह द्वार थे …वो द्वार चन्दन वृक्ष के थे ….उसमें से सुगन्ध भी निकल रही थी …अद्भुत पच्चीकारी की गयी थी द्वारों में । और प्रत्येक द्वार के बीच बीच में झरोखे बने थे …और उस बाग के चारों ओर कुछ छोटे छोटे महल भी थे ….करीब चार महल थे । ये चारों महल मुझे बताया श्रीरंगदेवि जी के ही हैं । चार महल ? मैंने आश्चर्य किया तो हरिप्रिया बोलीं ….एक महल में सखी जी शयन करती हैं …तो दूसरे में युगल सरकार की सेवा सामग्री हैं …तीसरे में वो सजती हैं ….और चौथा महल युगल सरकार के लिए । युगल सरकार के लिए ? मैंने जब ये प्रश्न किया तो हरिप्रिया बोलीं ….अपनी सखियों के पास भी युगल सरकार आते हैं …उस समय के लिए ये महल है । मैं अब कुछ बोल नही रहा था …मैं बस चकित था और प्रेम पूर्ण था ।
अब हरिप्रिया जी बाग से बाहर निकलीं थीं …मैं भी उनके पीछे ……
बाहर आयीं तो उन्होंने कहा ….ये मार्ग देख रहे हो ! मैंने वो मार्ग देखा …माणिक्य से सज्जित मार्ग हैं ….बीच बीच में अन्य रत्नों का भी प्रयोग किया गया है ….और मार्ग के दोनों ओर बड़े बड़े चाँदी के गमले रखे हैं …उसमें पौधें हैं …जो घने हैं ……मार्ग के आगे चलो तो चौराहा आता हैं …उसमें फूलों के और विशाल गमले । और बहुत संख्या में रखे हुए हैं । मार्ग के दूसरी ओर आठ महल और बने हैं …मैंने पूछा ये आठ महल किसके हैं ? तो हरिप्रिया जी ने उत्तर दिया …श्रीरंगदेवि जी की आठ सखियाँ हैं ये उनके महल हैं ….यहाँ श्रीरंगदेवि जी का ही परिकर रहता है …ये भी मुझे बताया था ।
अब मैंने देखा दूसरी ओर एक मार्ग जा रहा है …और दूर एक और कुँज है उस कुँज के भीतर ऐसा ही महल है ……हाँ , वो श्रीसुदेवी जू का महल है , ये अष्ट सखियों में दूसरी सखी हैं ।
जी , मैंने हरिप्रिया के आगे सिर झुकाया और दूर के उस दिव्य कुँज को देखने लगा था ।
इसी प्रकार ….श्रीललिता जू , श्रीविशाखा जू आदि आदि सखियों का कुँज भी इसी पंक्ति के आगे आता है ….मुझे तर्जनी से संकेत करके बताया था । मैंने सिर झुकाकर उस ओर प्रणाम किया ।
ये गोल मार्ग देख रहे हो ? मैंने कहा हाँ …तो हरिप्रिया बोलीं …अब देखते जाओ …इस गोल मार्ग के आगे ….चार सरोवर हैं …चलो , कहकर हरिप्रिया सखी आगे आगे चल दीं ।
चार सरोवर थे …उन चारों में बारी बारी से बैठकर आचमन किया हमने ….फिर हरिप्रिया जी ने बताया …इनके नाम – “मान सरोवर”, “मधुर सरोवर” , “स्वरूप सरोवर” और “रूप सरोवर”।
ये है मान सरोवर । किन्तु इसकी महिमा क्या है ? मैंने पूछा तो उत्तर मिला ।
“इसका मान युगल सरकार आत्मवत करते हैं …इसलिए इसका नाम “मानसरोवर” है”।
मैंने देखा वो सरोवर बहुत सुन्दर था …नाना कमल खिले थे …हंस खेल रहे थे …सीढ़ियाँ मणि माणिक्य से रचे थे…इसलिए शोभा अद्भुत थी ।
ये है मधुर सरोवर …..अब हम ये दूसरे सरोवर में आगये थे ….मधुर रस निकुँज में यहीं से फैलता है ….मधुर रस से प्यारी और प्यारे जो भरे होते हैं …वो इसी सरोवर की देन है ।
ये है स्वरूप सरोवर …..हम तीसरे सरोवर में आगये थे । घन दामिनी की जो लीला निकुँज ने देखी है उसे हम भुला नही पाये हैं । उन दिनों वर्षा ऋतु आगयी थी …काले बादल छाए थे ..बिजली चमक रही थी….किन्तु उस समय इसी सरोवर में अपने स्वरूप का प्रताप युगलवर ने दिखाया था ….काले बादल छा जाते तो श्रीजी छुपी होतीं और जब प्रकट होतीं तब ऐसा लगता कि दामिनी चमकी …..हम सब सखियों ने वो लीला देखी थी ….हरिप्रिया सखी ने मुझे इतना ही बताया ….इसलिए इसका नाम है “स्वरूप सरोवर”….ये भी कहा ।
अब ये है रूप सरोवर …..इतना कहकर मुझे वहाँ बैठने के लिए कहा ….हरिप्रिया की हर आज्ञा मेरे लिए पालन करने योग्य है …इसलिये मैं वहाँ बैठा । इसमें हमारे युगल वर ही विहार करते हैं …इसमें विहार करने से ….”सुरतसुख” का आवेश होने लगता है ……रूप खिल जाता है …फिर युगलवर यहाँ से सीधे अपनी रति केलि में चले जाते हैं ….और वहाँ एक हो जाते हैं ।
ये कहकर हरिप्रिया सखी जी ने उस रूप सरोवर का जल अपने सिर में डाला ….मैंने भी वही किया और प्रणाम भी किया था । वैसे यहाँ प्रणाम की अपेक्षा प्रेम आवश्यक लगा मुझे तो ।
शेष अ
Niru Ashra: 🍁🙏🍁🙏🍁
!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 134 !!
“कीर्ति मैया और श्रीवृषभान” – कुरुक्षेत्र जानें की तैयारी
भाग 3
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अरे ! काहे का वन वैभव ? कीर्तिरानी कुछ कहनें जा रही थीं ।
पर वृषभान जी नें उन्हें रोक दिया ।
समझो कीर्ति ! सब चले जाएंगे तो कौन देखेगा इस वृन्दावन को ?
हम वनवासी हैं मूल रूप से …….हम “नागरी सभ्यता” वाले लोग नही हैं …..वन वासी हैं हम …….इसलिये मात्र अपना स्वार्थ देखना ये हमारे लिये उचित नही होगा ……श्याम सुन्दर को निहारनें की इच्छा किसे नही होगी ? पर इस वृन्दावन के बारे में तो कुछ सोचो !
यहाँ के वन्य जीव, यहाँ के लता पत्र ……यहाँ के सरोवर ….अन्य कृषि कार्य ……..ये कौन देखेगा कीर्ति ?
भैया नन्दराय जी तो इतनें सरल हैं …..कल मुझ से कह रहे थे …….वृषभान जी ! आप चले जाइए कुरुक्षेत्र ………मैं वृन्दावन में रहूंगा ……..मैं सम्भाल लूँगा ।
मेरे आँसू भी बह रहे थे, और हँसी भी आरही थी ।
कितनें भोले और सरल हैं .नन्दराय जी ………मैं क्या भैया नन्दराय को रोक कर स्वयं जाऊँ कुरुक्षेत्र ?
नही ……..मैने उन्हें कहा ……….आप और भाभी जाइए ……भैया नन्द जी ! आप मिल लेना नन्दनन्दन को ……….और मेरी ओर से आशीर्वाद भी दे देना …………अपनें वरद हस्त को श्याम सुन्दर के मस्तक में रखते हुए ….मेरी ओर से कहना…….तुम जीयो …….खूब यश तुम्हारा फैले ……तुम सबके प्रिय बने रहो …………
कीर्ति ! ये कहते हुए मेरे नेत्रों से झरझर आँसू बहनें लगे थे ।
फिर तो मुझ से वहाँ रुका भी नही गया ……..मैं हाथ जोड़ता हुआ निकल गया नन्द भवन से ।
कीर्ति ! हम वृन्दावन में ही रहेंगें ……..ये सब प्रसन्न हो कर आयेंगें वापस कुरुक्षेत्र से ……तो हम इनके मुख से सुनेगें श्याम सुन्दर के बारे में …..इनके मुख की प्रसन्नता ही हमें श्याम के निकट ले जायेगी …..ये लोग प्रसन्न होंगें…..बस हमें मिल गयी प्रसन्नता ………….
कीर्ति ! दुःखी मत हो ……..दुःख से कोई समाधान नही निकलता ।
देखो ! सब खुश हैं……….सब तैयारी में लगे हैं – कुरुक्षेत्र में श्याम से मिलेंगें……सौ वर्ष बाद मिलेंगें……..देखो ! अपनें ही पुत्र श्रीदामा को देखो …….कितना प्रसन्न है …….अपनें सखा से मिलनें के लिये …..क्या क्या इकट्ठा नही कर रहा ये …….यही स्थिति सब की है ।
कीर्तिरानी नें अपनें पति वृषभान जी की ओर देखा……..सिर “हाँ” में हिलाया ………पर नेत्रों से अश्रु प्रवाह चल पड़े थे ……..
वृषभान जी नें हृदय से लगा लिया था, अपनी अर्धांगिनी कीर्तिरानी को ।
हे वज्रनाभ ! कैसा प्रेम है ना ? सब निःस्वार्थ प्रेम में जीते हैं यहाँ ।
अब पूरा वृन्दावन ही कुरुक्षेत्र चलनें की तैयारी में जुटा था ।
बस, नही जा रहे थे …..तो ये दोनों – कीर्तिरानी और बृषभान जी ……श्रीराधारानी के माता पिता ।
शेष चरित्र कल –
🌲 राधे राधे🌲
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 6 : ध्यानयोग
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श्लोक 6 . 9-10
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सुहृन्मित्रार्युदासीनमध्यस्थद्वेष्यबन्धुषु |
साधुष्वपि च पापेषु समबुद्धिर्विशिष्यते || ९ ||
योगी युञ्जीत सततमात्मनं रहसि स्थितः |
एकाकी यतचित्तात्मा निराशीरपरिग्रहः || १० ||
सु-हृत् – स्वभाव से; मित्र – स्नेहपूर्ण हितेच्छु; अरि – शत्रु; उदासीन – शत्रुओं में तटस्थ; मध्य-स्थ – शत्रुओं में पंच; द्वेष – ईर्ष्यालु; बन्धुषु – सम्बन्धियों या शुभेच्छुकों; साधुषु – साधुओं में; अपि – भी; च – तथा; पापेषु – पापियों में; सम-बुद्धिः – सामान बुद्धि वाला; विशिष्यते – आगे बढ़ा हुआ होता है |
योगी – योगी; युञ्जित – कृष्णचेतना में केन्द्रित करे; सततम् – निरन्तर; आत्मानम् – स्वयं को (मन, शरीर तथा आत्मा से); रहसि – एकान्त स्थान में; स्थितः – स्थित होकर; एकाकी – अकेले; यात-चित्त-आत्मा – मन में सदैव सचेत; निराशीः – किसी अन्य वस्तु से आकृष्ट हुए बिना; अपरिग्रहः – स्वामित्व की भावना से रहित, संग्रहभाव से मुक्त |
भावार्थ
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जब मनुष्य निष्कपट हितैषियों, प्रिय मित्रों, तटस्थों, मध्यस्थों, ईर्ष्यालुओं, शत्रुओं तथा मित्रों, पुण्यात्माओं एवं पापियों को समान भाव से देखता है, तो वह और भी उन्नत माना जाता है |
योगी को चाहिए कि वह सदैव अपने शरीर, मन तथा आत्मा को परमेश्र्वर में लगाए, एकान्त स्थान में रहे और बड़ी सावधानी के साथ अपने मन को वश में करे | उसे समस्त आकांक्षाओं तथा संग्रहभाव से मुक्त होना चाहिए |
तात्पर्य
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कृष्ण की अनुभूति ब्रह्म, परमात्मा तथा श्रीभगवान् के विभिन्न रूपों में होती है | संक्षेप में, कृष्णभावनामृत का अर्थ है – भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में निरन्तर प्रवृत्त रहना | किन्तु जो लोग निराकार ब्रह्म अथवा अन्तर्यामी परमात्मा के प्रति आसक्त होते हैं, वे भी आंशिक रूप से कृष्णभावनाभावित हैं क्योंकि निराकार ब्रह्म कृष्ण की आध्यात्मिक किरण है और परमात्मा कृष्ण का सर्वव्यापी आंशिक विस्तार होता है | इस प्रकार निर्विशेषवादी तथा ध्यानयोगी भी अपरोक्ष रूप से कृष्णभावनाभावित होते हैं | प्रत्यक्ष कृष्णभावनाभावित व्यक्ति सर्वोच्च योगी होता है क्योंकि ऐसा भक्त जानता है कि ब्रह्म तथा परमात्मा क्या हैं | उसका परमसत्य विषयक ज्ञान पूर्ण होता है, जबकि निर्विशेषवादी तथा ध्यानयोगी अपूर्ण रूप में कृष्णभावनाभावित होते हैं |
इतने पर भी इन सबों को अपने-अपने कार्यों में निरन्तर लगे रहने का आदेश दिया जाता है, जिससे वे देर-सवेर परं सिद्धि प्राप्त कर सकें | योगी का पहला कर्तव्य है कि वह कृष्ण पर अपना ध्यान सदैव एकाग्र रखे | उसे सदैव कृष्ण का चिन्तन करना चाहिए और एक क्षण के लिए भी उन्हें नहीं भुलाना चाहिए | परमेश्र्वर में मन की एकाग्रता ही समाधि कहलाती है | मन को एकाग्र करने के लिए सदैव एकान्तवास करना चाहिए और बाहरी उपद्रवों से बचना चाहिए | योगी को चाहिए कि वह अनुकूल परिस्थियों को ग्रहण करे और प्रतिकूल परिस्थितियों को त्याग दे, जिससे उसकी अनुभूति पर कोई प्रभाव न पड़े | पूर्ण संकल्प कर लेने पर उसे उन व्यर्थ की वस्तुओं के पीछे नहीं पड़ना चाहिए जो परिग्रह भाव में उसे फँसा लें |
ये सारी सिद्धियाँ तथा सावधानियाँ तभी पूर्णरूपेण कार्यान्वित हो सकती हैं जब मनुष्य प्रत्यक्षतः कृष्णभावनाभावित हो क्योंकि साक्षात् कृष्णभावनामृत का अर्थ है – आत्मोसर्ग जिसमें संग्रहभाव (परिग्रह) के लिए लेशमात्र स्थान नहीं होता | श्रील रूपगोस्वामी कृष्णभावनामृत का लक्षण इस प्रकार देते हैं –
अनासक्तय विषयान् यथार्हमुपयुञ्जतः |
निर्बन्धः कृष्णसम्बन्धे युक्तं वैराग्यमुच्यते ||
प्रापञ्चिकतया बुद्धया हरिसम्बन्धिवस्तुनः |
मुमुक्षुभिः परित्यागो वैराग्यं फल्गु कथ्यते ||
“जब मनुष्य किसी वस्तु के प्रति आसक्त ण रहते हुए कृष्ण से सम्बन्धित हर वस्तु को स्वीकार कर लेता है, तभी वह परिग्रहत्व से ऊपर स्थित रहता है | दूसरी ओर, जो व्यक्ति कृष्ण से सम्बन्धित वस्तु को बिना जाने त्याग देता है उसका वैराग्य पूर्ण नहीं होता |” (भक्तिरसामृत सिन्धु २.२५५ – २५६) |
कृष्णभावनाभावित व्यक्ति भलीभाँति जानता रहता है कि प्रत्येक वस्तु श्रीकृष्ण की है, फलस्वरूप वह सभी प्रकार के परिग्रहभाव से मुक्त रहता है | इस प्रकार वह अपने लिए किसी वस्तु की लालसा नहीं करता | वह जानता है कि किस प्रकार कृष्णभावनामृत के अनुरूप वस्तुओं को स्वीकार किया जाता है और कृष्णभावनामृत के प्रतिकूल वस्तुओं का परित्याग कर दिया जाता है |वह सदैव भौतिक वस्तुओं से दूर रहता है, क्योंकि वह दिव्य होता है और कृष्णभावनामृत से रहित व्यक्तियों से किसी प्रकार का सरोकार न रखने के करण सदा अकेला रहता है | अतः कृष्णभावनामृत में रहने वाला व्यक्ति पूर्णयोगी होता है |
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (094)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
श्रीकृष्ण में रति ही बुद्धिमानी है
कुर्वन्ति हि त्वयि रतिं…..चिरादरविन्दनेत्र
कुर्वन्ति हि त्वयि रतिं कुशलाः स्व आत्मन् नित्यप्रिये पतिसुतादिभिरार्तिदैः किम्।
तत्रः प्रसीद परमेश्वर मा स्म छिन्द्या आशां भृतां त्वयि चिरादरविन्दनेत्र ।।[1]
गोपियाँ कहती हैं श्रीकृष्ण से कि तुम्हारे धर्म के निरूपण में कोई त्रुटि नहीं। एक स्त्री का धर्म है पति, पुत्र, सुहृद् की सेवा, उनको संतुष्ट रखना, पर उससे भी बड़ा धर्म है, परमेश्वर से प्रेम। एक धर्म है, एक परमधर्म है। ताप से बचने के लिए, पाप से बचने के लिए, सामाजिक उच्छृंखलता से बचने के लिए, वासना प्रेरित इन्द्रियों के भोग से बचने के लिए, धर्म की आवश्यकता है। नहीं तो ये वासनायें इंद्रियों के माध्यम से ले जाकर गड्ढे में गिरा दें। पापकर्म आकर नरक में ले जाय। सब कुछ मन के अनुसार नहीं किया जा सकता। मन जिस चीज को कहे कि यह खा लो तो क्या खा लोगे? मन कहें कि यह कर डालो तो क्या कर डालोगे? मन कहेगा कि इससे बोल दो तो क्या बोल दोगे? एक नियंत्रण की आवश्यकता सबके जीवन में होती है।
एक ऐसी जगह है, सबके जीवन में, जहाँ अपने संग्रह को, अपने भोग को, अपने कर्म को, अपने भावों को रोकना पड़ता है, अगर किसी के जीवन में ऐसी जगह नहीं है तो वह पशु से भी गया-बीता है। इसी को धर्म कहते हैं। जीवन में धर्म का होना आवश्यक है। अब परमधर्म यह है कि जो आप जहाँ बैठे हैं वहाँ से आप को उठाकर जहाँ पहुँचना चाहते हैं वहाँ पहुँचा देता है। दोषों से बचाने वाला है धर्म और आपको अपने इष्टदेव तक पहुँचा देने वाला है परमधर्म है। जैसे आपके घर की दीवार गिरने वाली हो तो उसकी मरम्मत करना, यह दूसरा कार्य है, और इसको बढ़िया रंग-रोगन से यह दूसरा कार्य है। दोष का अपनयन दूसरी चीज है, और अपने ईष्टदेव को मिला देना यह दूसरी चीज है। अगर गोपियाँ अपने घर का काम करती हैं, पति, पुत्र आदि की सेवा करती हैं तो उन्हें नरक नहीं होता, पाप नहीं लगता; पर पाप ना लगना, नरक न जाना दूसरी बात है और ईश्वर को प्राप्त करना दूसरी बात है। तो यह जो गोपियों के हृदय में भक्ति है, प्रीति है, वह ईश्वर को प्राप्त कराने वाली है।+
आप देखो, एक आदमी सन्ध्यावन्दन रोज करता है। एक दिन जुआ खेलने लग गया, तो सन्ध्यावन्दन छूट गया और एक दिन समाधि लग गयी तो सन्ध्या-वन्दन छूट गया। सन्ध्या-वन्दन तो दोनों दशा में छूटा, पर दोनों में फर्क क्या हुआ? जिस दिन जुआ के कारण संध्यावन्दन छूटा उस दिन तो उसका पतन हुआ और जिस दिन समाधि लगने से सन्ध्यावन्दन छूटा उस दिन वह छूटना उसकी उन्नति का हेतु हुआ। इसी प्रकार गृहस्थधर्म वैसे तो पाप से बचाता है, नरक से बचाता है, मन और इंद्रियों को संयम सिखाता है, वासना को मिटाने से मुक्त करता है। परंतु यदि भगवान् की भक्ति के कारण गृहस्थधर्म छूटता है तो वह उसकी उन्नति का हेतु है।
बोले- गृहस्थधर्म जिन देव, ऋषि, पितृ आदि के ऋण से मुक्त करता है उसका क्या होगा? तो जो भगवान् के रास्ते में चलता है वह किसी का ऋणी नहीं होता।
देवर्षि भूताप्तनृणां पितृणां न किंकरो नायमृणी च राजन् ।
सर्वात्मना यः शरणं शरण्यं गतो मुकुन्दं परिहृत्य कर्तम् ।।[1]
मनुष्य के ऊपर देवता का, ऋषि का भूत-प्राणियों का, सबका ऋण रहता है। सूर्य की किरणों की रोशनी में आप देखते हैं कि परंतु बदले में सूर्य को क्या देते हैं? यह रोज ऋण चढ़ता है। पृथ्वी पर पाँव रखते हैं, शौच-लघुशंका को जाते हैं, सोते हैं लेकिन पृथ्वी को कुछ नहीं देते तो उसका भी ऋण है। यह देवऋण है। ऋषियों के बनाये हुए ज्ञान से लाभ उठाते हैं और उनको देते कुछ नहीं हैं तो यह ऋषि-ऋण हुआ। दौड़कर चलते हैं या खेत को जोतते-बोते हैं तो रोज हजारों कीड़े मारते हैं उनका ऋण चढ़ता है। यह भूतऋण है। अपने बड़े-बूढ़े, माता-पिता का ऋण है कि माता ने हमको पेट में धारण किया, अपनी छाती का दूध पिलाया, अंगुली पकड़कर चलना सिखाया। यदि बच्चा समझे कि माँ-बाप का हमारे ऊपर कोई ऋण नहीं है तो वह बेवकूफ है ना। यह पितृ-ऋण है। अपने गुरुजनों का कर्ज हुआ कि जिसने पढ़ाया। तो इन सब ऋणों को चुकाना एक समझदार मनुष्य का कर्त्तव्य है। भले उनका बिल न आवे, लेकिन जो समझता है कि हमारे ऊपर कर्ज है उसको तो चुकाना चाहिए। तो इन्हीं को चुकाने के लिए गृहस्थधर्म है लेकिन अगर यह मनुष्य सर्वात्मना भगवान् की शरण में चला जाये, तो फिर वह न किसी का कर्जदार है और न किसी का गुलाम है।++
वह सबकी गुलामी से बच गया और सबके कर्ज से बच गया। क्योंकि वह तो राजा के पास शरण में पहुँच गया। उसका अपना खास आदमी हो गया। पहले राजा लोग ऐसा करते थे कि कोई शरण में आ जाय तो उसकी ओर से राजा लोग शरणागत को भय देने वाले से लड़ जाते थे। आपने सुना होगा अर्जुन ने एक को मारने की प्रतिज्ञा कर दी थी, और सुभद्रा ने उसको बचाने की प्रतिज्ञा कर दी थी, और फिर तो श्रीकृष्ण अर्जुन की ओर से लड़े परंतु सुभद्रा ने कहा कि कृष्ण से युद्ध करके भी शरणागत की रक्षा करेंगे। सुभद्रा शरणागत की रक्षा करने के लिए श्रीकृष्ण से लड़ गयी। तो पहले शरणागत-वात्सल्य को बड़ा भारी गुण मानते थे।
ये गोपियाँ धर्म छोड़कर अधर्म में नही गयी हैं, धर्म छोड़कर परम-धर्म में गयी हैं। वे पति को छोड़कर किसी पराये आदमी के पास नहीं गयी हैं, परमेश्वर के पास गयी हैं, यह बात ध्यान में रखनी चाहिए। इसलिए गोपियों पर कलंक तो लगाया ही नहीं जा सकता। बोलीं- अब हमको धर्म का उपदेश करना, माने नीचे की बात का उपदेश करना ठीक नहीं है। मैं पहले-पहल दिन स्कूल में पढ़ने के लिए गया तो हमारे अध्यापक ने एक लकड़ी पर खड़िया से लिखा क, ख, ग, घ। बोले- इसको लिखकर ले आओ। उन्होंने तो क, ख, ग, घ लिखा था, लेकिन मैंने वे अक्षर तो लिखे ही और भी लिखे। य, र, ल, व, ह तक लिखकर ले गया उनके पास। बोले- अच्छा मालूम हो गया कि तुमने आगे पढ़ा है।
अच्छा और बताओ तुमने कहाँ तक पढ़ा है? तब मैंने उनको बताया कि हमको श्लोक पढ़ना भी आता है, हमें चौपाई पढ़ना भी आता है। बोले- ठीक है, अब उसके आगे पढ़ायेंगे। यदि वे कहते कि क, ख, ग, घ, च, छ, ज, झ फिर लिखो तो हमारे पढ़े हुए को ही तो पढ़ाते, पिसे हुए को पीसना पड़ता है, चबाये हुए को चबाना पड़ता, ‘रिवीजन’ होता। तो यदि गोपियों को यह कहा जाय कि तुम घर जाकर वही धर्म पालन करो, तो उनके लिए तो यह पिष्टपषण ही होता। वे तो इस धर्म से ऊपर उठ चुकी हैं। इसलिए उन्होंने कहा-अरे धर्मशास्त्री जी, आपने धर्म के अनुसार बिल्कुल ठीक कहा।
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877