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November 23, 2024 3:02 pm

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!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 146 !!(1),महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (123),श्रीमद्भगवद्गीता & !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !! : Niru Ashra

!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 146 !!(1),महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (123),श्रीमद्भगवद्गीता & !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !! : Niru Ashra

Niru Ashra: 🦚🌻🦚🌻🦚🌻🦚

!! “श्रीराधाचरितामृतम्” 146 !!

वृन्दावनेश्वरी – श्रीराधा
भाग 1

🍁🙏🍁🙏🍁🙏🍁
मैं आगयी अपनें वृन्दावन ………..बरसाना तो मेरी प्रतीक्षा ही कर रहा था ………आहा ! कितना आनन्द आया ……….मेरी मैया कीर्ति …..मेरे प्यारे बाबा भानु ………और समस्त मेरे बरसानें के लोग …….कितना अच्छा लगा इन सबसे मिलकर ।

ललिता कहती है ………स्वामिनी ! आप कुछ अस्वस्थ हो रही हो !

तभी तो सपनें देखती हो …..खुली आँखों से स्वप्न देखना स्वस्थता के लक्षण तो हैं नहीं …………….

ठीक कहती है ललिता……….मैं सपनें ज्यादा देखनें लगी हूँ ………

कुरुक्षेत्र गयी……सपना ही तो था ………नही तो मैं राधा, भला वृन्दावन छोड़कर कहीं ओर जा सकती हूँ ? नही …….मैं इस श्रीधाम को कैसे त्याग सकती हूँ …….एक क्षण को भी नही छोड़ सकती …फिर कुरुक्षेत्र की बात तो…….सपना ही था ।

हाँ हाँ …….गयी होगी ……मेरी छायाँ गयी होगी……..राधा कैसे जा सकती है कुरुक्षेत्र………कुरुक्षेत्र ही क्या वृन्दावन को छोड़कर राधा कहीं नही जा सकती ……………..

मुझे इस अवतार के लिये श्याम सुन्दर नें कहा था……..और कहा था आपको चलना ही पड़ेगा मेरे साथ मर्त्य लोक में ………

मैने साफ मना कर दिया ………कहा ………आप जाओ ……..मेरा इस वृन्दावन ( गोवर्धन, बरसाना ) यमुना जी इन को छोड़कर मैं कहीं नही जा सकती …….प्यारे ! आप जाओ …..अवतार की .लीला करके आजाना……..पर अपनी बात पर श्याम सुन्दर अड़ गए थे …….

तो फिर ठीक है …….वृन्दावन ( गोवर्धन, बरसाना) ये सब भी पृथ्वी में जायेंगें………गोलोक , गोकुल के रूप में जाएगा…….और निकुञ्ज, वृन्दावन………पर इस प्रेम रस के सब अधिकारी नही हैं ….इसलिये मैं वैकुण्ठ को भी पृथ्वी में उतार रहा हूँ …….राधे ! द्वारिका के रूप में वैकुण्ठ रहेगा ।

वृन्दावन यमुना…….मेरे लिए, मेरे “प्राण” नें इन्हें पृथ्वी पर उतारा ……..तब मैं आयी थीं यहाँ ।

सच कहती हैं मेरी सखियाँ………मुझे सपनें आरहे हैं इन दिनों …….

कुरुक्षेत्र में मैं मिली द्वारिकाधीश से………द्वारिकाधीश !

कैसा सपना था ? द्वारिकाधीश की रानियाँ……..रुक्मणी !

सुन्दर सुशील है रुक्मणी…….अपना श्यामसुन्दर तो अपना ही सम्भाल कर ले यही बहुत है……पर सपना अच्छा था ।

क्रमशः ….
शेष चरित्र कल-

🌷 राधे राधे🌷
Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (123)


(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )

गोपियों में दास्य का हेतु-2

हम रहना तो चाहती हैं अकेली लेकिन तुम्हारी इन्हीं दोनों बाँहों के बीच में सुरक्षित होकर। श्रीकृष्ण ने कहा- अरी गोपियो! मनोरथ भी ऐसा करना चाहिए, जो पूरा हो सके। मैं ठहरा ब्रह्म, कैसे छुएँगे, किसी को? तुमको मालूम है हमने प्रकृति का भी आलिंगन नहीं किया? माया आयी और भाग गयी- माया परैत्य अधि मुखेत विलज्जमाना ब्रह्म के सामने माया कहीं टिकती है? माया माने जहाँ थोड़ा भी छल होय, कपट होय, वह कैसे टिकेगा ब्रह्म के सामने? माया भाग गयी प्रकृति भाग गयी, अविद्या भाग गयी, कोई तो मेरे सामने नहीं टिकता। मैं निष्कलंक ब्रह्म, जब माया-प्रकृति का स्पर्श नहीं करता हूँ तो तुम गँवार ग्वालिनियों का कैसे स्पर्श करूँगा? तुम क्यों यह दुर्लभ मनोरथ करती हो कि तुम हमारे युगल भुजदण्ड का, हमारे वक्षः-स्थल का स्पर्श प्राप्त करोगी? भागो यहाँ से। यह ज्यादा लल्लो-चप्पो भी कभी-कभी दुःख देता है। बोले-देखो, इस समय जो बात कहनी हो उसे युक्तिपूर्वक कहो।

अब महाराज, गोपी तो ढीठ है, वे श्रीकृष्ण की डाँट में थोड़े ही आती हैं। एक गोपी ने अंगुली उठायी और श्रीकृष्ण की छाती पर रख दी। बोली- जरा वनमाला हटाइये तो! अरे! महाशय, आपकी माला के नीचे पीली-पीली रेखा क्या है? यह कोई चोरी का माल तो नहीं है? अरे, मालूम होता है कि किसी की बेटी, किसी की बहू, कहीं से चुराकर लाये हो, और उसे वनमाला के नीचे छाती पर छिपाकर रखे हो! बोले- यह तो नारायण की पत्नी लक्ष्मी हैं। बोली-लक्ष्मी है तो समुद्र की बेटी ही तो। जब तुम स्त्री का स्पर्श नहीं करते, माया को नहीं छूते, श्रुति को नहीं छूते, तो यह जो स्वर्णिम रेखा है तुम्हारे वक्षःस्थल पर, उस लक्ष्मी को यहाँ क्यों छिपाया?
वक्षःश्रियैकरमणं च। क्या उभरी हुई, विशाल छाती है। इस वक्षःस्थल पर मोती की माला कैसी सुशोभित हो रही है, जैसे नीले आकाश में दो आकाश-गंगा प्रवाहित हो रही हों! यह तुम्हारा विशाल वक्षःस्थल और उसमें विद्युत रेखा के समान यह पीतिमा, यह स्वर्णरेखा के रूप में लक्ष्मी को लाकर छुपाये हो। और बनते हो अस्पर्श-योगी।+

श्रीकृष्ण के पास कोई जवाब नहीं। बोले- अरी सौभाग्यवती गोपियो, तुमको जो करना हो सो करो बाबा, इन नारायण की पत्नी लक्ष्मी को भाग्यवानो, क्यों दोष लगा रही हो? उस सतीशिरोमणि, उस सौभाग्यवती, उस नारायणी, भगवती को तुम क्यों दोष लगा रही हो? यह हमारी स्वाभाविक प्रीति-रेखा है वक्षःस्थल पर, और उस पर भी तुम प्रेमावेश में अंधी होकर हमको तो दोष लगाती ही हो, उनको भी दोष लगाती हो?

गोपियों ने कहा- श्रीकृष्ण, हमारा अभिप्राय लक्ष्मी पर दोष लगाने का नहीं है, हमारा अभिप्राय तो तुम्हारे सौन्दर्य पर दोष लगाने का है। लक्ष्मी बेचारी तो सतीशिरोमणि है, सतीसाध्वी है, उससे बढ़िया और पृथ्वी में कौन स्त्री होगी, वह तो आदर्श है, लेकिन यह तुम्हारा जो सौन्दर्य है, यह जो तुम्हारा माधुर्य है, सौरभ है, यह जो तुम्हारा सौररस्य है, सौकुमार्य है, सौरूप्य है, सौस्वर्य है, सौहार्द है, इसको हम दोष लगाती हैं। यह महाराज, दृष्टि में किसी को छोड़ने वाला नहीं; लक्ष्मी तो लक्ष्मी हम तो कहती हैं कि कौन ऐसी सतीसाध्वी, सृष्टि में है, हम चुनौती देती हैं, जो श्रीकृष्ण को देखकर मुग्ध न हो जाय।

स्कन्दपुराण आदि में वर्णन आता है, उपनिषद् में भी वर्णन आता है कि बड़े-बड़े ऋषि-महर्षि, निरन्तर समाधि लगाने वाले, निराकार-निर्विकार में स्थित, उन्होंने जब रामचंद्र के सौन्दर्य को देखा तो बोले- भक्तो ऐक्ष्य सुविग्रह्यम् ये होते वर और हम होती दुलहिन। रामचंद्र से कहा तो जानकीजीं नाराज हुई; बोलीं- देखो, ये बूढ़े-बूढ़े, जिनके मुँह में दाँत नहीं नहीं और दाढ़ी सफेद और झुर्रियाँ पड़ी हुईं, ये कहते हैं कि ये दुलहिन बनना चाहते हैं और रामचंद्र को दूल्हा बनाना चाहते हैं। तो रामचंद्र ने इशारे से उनको शान्त किया; बोले- अच्छा, हाँ-हाँ, जब हम कृष्णावतार चलेंगे तब आना। बोले- महात्माओं को तो यह दशा हुई, नारद नारदी हो गये, अर्जुन अर्जुनी हो गये, शंकर शंकरी हो गये। नारायण।++

गोपियाँ बोलती हैं-

का स्त्रयंग ने कलपदायतमूर्च्छितेन सम्मोहिताऽऽर्यचरितान्न चलेत्त्रिलोक्याम् । त्रैलोक्यसौभगमिदं च निरीक्ष्य रूपं यद् गोद्विजद्रुममृगाः पुलकान्यबिभ्रन् ।।

अरे बाबा, वह स्त्री कौन है जो तुमसे सम्मोहित न होवे। उसका नाम स्त्रीलिंगमात्र होना चाहिए जैसे कि श्रुति, ऋचा, नाड़ी, नादी, देवी-सभी तो तुम पर मोहित हैं। फिर हम तो साक्षात् स्त्री ही हैं। स्त्रीराधा पुरुषैककृष्णः विजिज्ञेयो व्रजमध्यगाः ब्रज में तो एक पुरुष है श्रीकृष्ण, बाकी सब स्त्री हैं। ये दाढ़ी-मूँछ कपटभर हैं, यह केवल नाटक है। नाटक में जैसे स्त्री पुरुष बन जाय तो जल्दी पहचान में नहीं आती, तो यह भी अभीसार की एक प्रक्रिया है; मिलने के लिए जाने को वेश बदलना जैसे एक प्रक्रिया है, उसी प्रकार यही स्त्रियाँ ही अभिसार का रूप लेकर के पुरुष बनी हुई हैं। समग्र सृष्टि के जीव उसी एक परमेश्वर से मिलने के लिए अनेक वेश बदलकर मिलने जा रहे हैं।

कहहु सखी असको तनधारी। जो न मोह यह रूप निहारी ।।

उसी को देखने के लिए सब व्याकुल हैं और मिलने के लिए तरह-तरह का वेश बनाकर, कैसे उसको हँसावें, कैसे उसको रिझावें, उसी की तरफ जा रहे हैं-

का स्त्र्यंग ते। अंग, अंग माने प्यारे कतलपदायतवेणुगीत सम्मोहिताऽऽर्यचरितात्र चलेत्त्रिलोक्याम् ।।

‘त्रैलोक्यसौभागमिदं रूपं’ त्रैलोक्य में जितनी सुन्दरता है- गुलाब में सुन्दरता कहाँ से आयी? कमल में सौन्दर्य कहाँ से आया? बेला- चमेली में सुगन्ध कहाँ से आयी? चंद्रमा में आह्लाद कहाँ से आया? वायु में शीतलता कहाँ से आयी? त्रिलोकी में जितनी सुन्दरता है यह सब भगवान् की झरी-परी सुन्दरता है, यह उसका एक बिन्दु है। ‘त्रैलोक्यसौभगं-यस्मात्’ – त्रिलोकी में जहाँ से सुन्दरता आयी है, वह प्रकट हुआ व्रज में, वह वृन्दावन-बिहारी, वह राधारमण, व गोपीजनवल्लभ, वह बाँके-बिहारी होकर के आया। अब कौन है दुनिया में ऐसा जो उसको देखकर के अपने बनठन में फँसा रह जाय?

क्रमशः …….

प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 7 : भगवद्ज्ञान
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श्लोक 7 . 2
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ज्ञानं तेSहं सविज्ञानमिदं वक्ष्याम्यशेषतः |
यज्ज्ञात्वा नेह भूयोSन्यज्ज्ञातव्यमवशिष्यते || २ ||

ज्ञानम् – प्रत्यक्ष ज्ञान; ते – तुमसे; अहम् – मैं; स – सहित; विज्ञानम् –
दिव्यज्ञान; इदम् – यह; वक्ष्यामि – कहूँगा; अशेषतः – पूर्णरूप से; यत् –
जिसे; ज्ञात्वा – जानकर; न – नहीं; इह – इस संसार में; भूयः – आगे;
अन्यत् – अन्य कुछ; ज्ञातव्यम् – जानने योग्य; अवशिष्यते – शेष रहता है |

भावार्थ
🪻🪻
अब मैं तुमसे पूर्णरूप से व्यावहारिक तथा दिव्यज्ञान कहूँगा | इसे जान लेने पर तुम्हें जानने के लिए और कुछ भी शेष नहीं रहेगा |

तात्पर्य
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पूर्णज्ञान में प्रत्यक्ष जगत्, इसके पीछे काम करने वाला आत्मा तथा इन दोनों के उद्गम सम्मिलित हैं | यह दिव्यज्ञान है | भगवान् उपर्युक्त ज्ञानपद्धति बताना चाहते हैं, क्योंकि अर्जुन उनका विश्र्वस्त भक्त तथा मित्र है | चतुर्थ अध्याय के प्रारम्भ में इसकी व्याख्या भगवान् कृष्ण ने की और उसी की पुष्टि यहाँ पर हो रही है | भगवद्भक्त द्वारा पूर्णज्ञान का लाभ भगवान् से प्रारम्भ होने वाली गुरु-परम्परा से ही किया जा सकता है | अतः मनुष्य को इतना बुद्धिमान तो होना ही चाहिए कि वह समस्त ज्ञान के अद्गम को जान सके, जो समस्त कारणों के करण है और समस्त योगों में ध्यान का एकमात्र लक्ष्य है | जब समस्त कारणों के कारण का पता चल जाता है, तो सभी ज्ञेय वस्तुएँ ज्ञात हो जाती हैं और कुछ भी अज्ञेय नहीं रह जाता | वेदों का (मुण्डक उपनिषद् १.३) कहना है – कस्मिन् भगवो विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति |

Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!

( “सिद्धान्त सुख” – 42 )


गतांक से आगे –

जोरी जीवनि जीय की, श्रीहरिप्रिया जिनकें सदा।
नित्यधाम निवास निश्चल, सकल फल मन बंछदा ॥
आनँदकंद किसोर मूरति, गौर स्याम स्वयंप्रभा।
कोटि रवि ससि लाजहीं लखि, चरन-नख मनि मंजुभा ॥
कहत हैं जिहिं विदुष व्यापक, ब्रह्म हैं जग में जोई।
चरन-नख आभास करि कवि, साँच कल्पत हैं सोई ॥
निर्विकार विसेषणादि, स्वरूप सुंदर सोहनें ।
अखिल ओक अधीस अधिपति, वपुष विश्वविमोहनें ॥
धाम नामरु काम कृति वृति, अमल अंग अनामयं ।
दिव्यचिदघन चारु चरित, उदार सुद्ध सुधामयं ॥
है नहीं सो नहीं है सो, बदत हैं बिधि बेद में।
कही है करि सही एपरि, भ्रमत हैं भव भेद में॥
हितू सहचरि निज कृपा करि, जासु तन चितवैं जबैं।
नित्यविभव बिलास को सुख, सहज पावैं सो तवैं ॥
जै जै श्रीहरिप्रिया जोरी, गोरी स्यामल गुनभरी।
स्वयं सिद्धि प्रसिद्ध लीला, ललित मिश्री की डरी ॥१५ ॥

*आहा ! ये दिव्य सुषमा , ये दिव्य माधुर्यपूर्ण सौन्दर्य , ये अनादि अविचल जोरी …कौन कह सकता है इनके विषय में , इनके सौन्दर्य और माधुर्य के विषय में …मैं दर्शन करके जड़वत हो गयी थी ….मुझे तो हरिप्रिया जी ने ही सम्भाला और कहा …”यहाँ ये सब निषेध है …अपने को सम्भालो …अपने अनुराग को इस तरह बहने मत दो …गाढ़ करो …फिर उसका रस लेते रहो”।

ये अद्भुत बात हरिप्रिया जी ने मुझे बताई थी ….मैंने अपने को सम्भाला ….फिर अपलक निहारना युगल सरकार को …अत्यन्त कोमल सुकुमार लाल जी हैं , और इनसे भी ज़्यादा हमारी प्रिया जी , अद्भुत गौर वरण , लालिमा लिया हुआ गौर वरण, अपने प्रियतम को निहार रहीं हैं ….किन्तु बीच बीच में अपनी सखियों पर भी स्नेह दृष्टिपात कर रहीं हैं ….सखियों की ओर जब प्रिया जी देखती हैं तब …अनन्त सखियाँ ..”जय हो”….का उदघोष करने लग जाती हैं । सखियों के प्रति कितनी स्नेह पूर्ण हैं ये प्रिया जी …मैंने ये अनुभव किया । प्रिया जी दृष्टिपात करती हैं सखियों की ओर …और लाल जी को भी दिखाती हैं …..अब लाल जी और प्रिया जी होकर सखियों को देख रहे हैं …..इनके देखने से ही मानों अमृत बरस रहा है निकुँज में ।

यही तो सखियों का आहार है …इसी प्रेम जोरी को निहार कर ही तो सखियाँ जीवित हैं ….यह जोरी श्रीवृन्दावन में शाश्वत विराजमान है । हरिप्रिया जी ने मुझे कहा ।

आहा सखी जी ! इनके नखचन्द्र की छटा तो देखिए ….सूर्य चन्द्र भी लज्जित हो रहे हैं मानों ….ऐसी दिव्य आभा । मेरी बात सुनकर हरिप्रिया जी हंसीं ….फिर बोलीं …विद्वान लोग इसी नख चन्द्र जोती को ही तो परब्रह्म कहते हैं …क्यों की यहाँ तक उनकी पहुँच नही है ….उन्हें ये चिद ज्योति दिखाई देती है ….और कुछ देख नही पाते इसलिए इसी को “ब्रह्म ज्योति” कहते हैं ….ये बात हरिप्रिया जी हंसते हुए कह रहीं थीं ।

मैं गम्भीर होकर अब पूछ रही थी….संसार में जीव भटक रहा है …उसे शाश्वत सुख कैसे मिलेगा ? “इन्हीं से मिलेगा”…..हरिप्रिया जी तुरन्त बोलीं …..”इनको छोड़कर जहां भी मन लगाओगे सिर्फ भटकोगे” ….कुछ देर हरिप्रिया जी मुस्कुराती रहीं …फिर बोलीं ….भटकन तो ब्रह्मा की भी है ….सामान्य जीव की क्या बात , स्वयं विधाता ब्रह्मा भटक रहे हैं …..

ब्रह्मा भटक रहे हैं ? हरिप्रिया जी मेरी आँखों में आँखें डालकर बोलीं ….ब्रह्मा का पुण्य खतम होगा तब ? मैं चुप हो गया …हाँ , हम ही तो अनन्त योनियों में भटकते हैं …फिर क्या फर्क पड़ता है वो योनि मनुष्य की हो या पशु की या देवता की या उससे उच्च पद इन्द्र या ब्रह्मा की ही । भटकन तो सबकी है ही ना ?

इन तक पहुँचना आवश्यक है । हरिप्रिया जी ने युगल सरकार को दिखाया ।

किन्तु कैसे पहुँचे सामान्य मनुष्य ?

प्रेम से , हृदय को अत्यन्त कोमल बनाकर , चित्त सरस बनें । हरिप्रिया जी ने कहा ।

फिर क्या करें ? मैंने पूछा तो हरिप्रिया जी बोलीं …फिर युगल की कृपा के भरोसे रहें ….उनकी कृपा बरस रही है …उसी कृपा का अनुभव करते रहें …क्यों की साधन से ये नही मिला करते ।

तभी ….महल से फिर जयजयकार उठा …..मैंने तो अनुभव कर लिया है की ये “निकुँज रस” मिश्री की डली है …..अजी जिधर से भी पाओ …मीठा ही मीठा है ।

युगल सरकार के सामने अब अष्ट सखियाँ ….सुवर्ण की थाल में व्यंजन सजाकर ला रही हैं …..श्रीइन्दुलेखा जी जल झारी लाईं …पहले युगलसरकार के दोनों हाथों को धुलाया ….फिर थाल सामने सजा दी ….अनेक व्यंजन हैं ….और ऋतु अनुसार फल भी हैं …पेय पदार्थ भी हैं ….

श्रीरंगदेवि जी मुस्कुराकर कहती हैं ….हे रस भरी जोरी ! आप अब भोग लगायें ।

प्रियतम मुस्कुराते हैं …अपनी प्रिया जी की ओर देखते हैं ….फिर एक कौर उठाते हैं अपनी प्रिया को खिलाते हैं ….फिर स्वयं खाते हैं ..प्रिया जी हाथ पकड़ लेती हैं ..तो प्रियतम कहते हैं ..”आपने चखा तब स्वाद आया”…..ये सुनकर अनन्त सखियाँ करतल ध्वनि करती हैं और हंसती हैं ……सखियों को हँसता देख प्रिया जी और लाल जी अत्यन्तप्रसन्न हैं ….अब फिर अपनी प्रिया को प्रियतम खिलाने लगते हैं । मैं आनन्दमग्न , कुछ कहने की स्थिति में ही नही हूँ ।

शेष अब कल –

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