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November 21, 2024 5:12 pm

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!! श्रीराधाचरितामृतम्” 151 !!-(3),श्रीमद्भगवद्गीता & !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !! : Niru Ashra

!! श्रीराधाचरितामृतम्” 151 !!-(3),श्रीमद्भगवद्गीता & !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !! : Niru Ashra

Niru Ashra: 🙏🙏🌹🙏🙏

!! श्रीराधाचरितामृतम्” 151 !!

लीला संवरण
भाग 3

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अर्जुन की गांडीव टूट गयी ……..ये आश्चर्य था………….भगवान शंकर से युद्ध करनें वाला अर्जुन ……भीलों से पराजित हो रहा था !

अब हमारे रथ पर कब्जा हो गया भीलों का ……..अब हमारे रथ को यही लोग चला रहे थे………..

सब डर गए थे……..पर मैं ? मैं क्यों डरूँ ?

मैं सब समझ गयी थी……..भीलों का मुखिया ………मैं हँसी ।

प्यारे ! ये क्या लीला है ? मैने कन्धे में हाथ रखा ।

वो मुड़े……..श्याम सुन्दर……….श्याम सुन्दर ही भील बनकर आये थे ……..नही नही, भीलों के सरदार ।

इसके बाद तो कुछ समय ही लगा होगा……..हम वृन्दावन में थे ।

हाँ हाँ ………मुझे याद आरहा है………सागर किनारे के बाद ही अर्जुन आगया था…….हे ललिते ! मुझे कुछ कुछ स्मरण है ।

पर ललिते ! श्याम सुन्दर कहाँ हैं ? मैने इधर उधर देखा ।

स्वामिनी जू ! यहीं कहीं होंगें…………पीताम्बरी की सुगन्ध उस कुञ्ज से आरही है…………

मैं दौड़ी थी……….हाँ सच में ही उधर से सुगन्ध आरही थी ।

श्याम सुन्दर बैठे हैं……………..

आहा ! आज बिहार होगा ………..हाँ …………..नित्य निकुञ्ज का बिहार होगा ।

मैने श्याम सुन्दर को अपनें हृदय से लगा लिया था ।


हे वज्रनाभ ! ये लीला दिव्य है…………श्रीराधा रानी का एक बार भी कोई नाम लेलेता है …….तो श्याम सुन्दर उसके हो जाते हैं ।

उस दिन मैने दर्शन किये ………….दो दिव्य रथ निकुञ्ज से उतर आये थे……..उसी रथ में अपनी प्रिया श्रीराधारानी को विराजमान कर ………श्याम सुन्दर अष्ट सखियों से साथ ……….और दूसरे रथ में मैया यशोदा कीर्तिरानी बाबा बृषभान जी बाबा नन्द जी ……अन्य सखा अपनें कन्हैया के साथ बैठकर गोलोक के लिए चले गए थे ।

उस समय का मैं साक्षी था………..मैने दर्शन किये थे वज्रनाभ !

मुझे भी चलनें के लिये कहा था …….पर सखी भाव मेरे अंदर नही है………..इसलिये मैं जाता तो गोलोक तक ही ……….उससे श्रेष्ठ ये था कि मैं यहीं वृन्दावन में ही रहूँ………..और यहीं का आनन्द लूँ ।

पता नही आज क्या हो गया महर्षि को ……..भावातिरेक में देह भान भूल गए ……और श्रीराधा …….कहकर मूर्छित ही हो गए थे ।

क्रमशः ….
शेष चरित्र कल-

🦚 राधे राधे🦚
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 7 : भगवद्ज्ञान
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श्लोक 7 . 19
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बहूनां जन्मनामन्ते ज्ञानवान्मां प्रपद्यते |
वासुदेवः सर्वमिति स महात्मा सुदुर्लभः || १९ ||

बहूनाम् – अनेक; जन्मनाम् – जन्म तथा मृत्यु के चक्र के; अन्ते – अन्त में; ज्ञान-वान् – ज्ञानी; माम् – मेरी; प्रपद्यते – शरण ग्रहण करता है; वासुदेवः – भगवान् कृष्ण; सर्वम् – सब कुछ; इति – इस प्रकार; सः – ऐसा; महा-आत्मा – महात्मा; सु-दुर्लभः – अत्यन्त दुर्लभ है |

भावार्थ
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अनेक जन्म-जन्मान्तर के बाद जिसे सचमुच ज्ञान होता है, वह मुझको समस्त कारणों का कारण जानकर मेरी शरण में आता है | ऐसा महात्मा अत्यन्त दुर्लभ होता है |

तात्पर्य
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भक्ति या दिव्य अनुष्ठानों को करता हुआ जीव अनेक जन्मों के पश्चात् इस दिव्यज्ञान को प्राप्त कर सकता है कि आत्म-साक्षात्कार का चरम लक्ष्य श्रीभगवान् हैं | आत्म-साक्षात्कार के प्रारम्भ में जब मनुष्य भौतिकता का परित्याग करने का प्रयत्न करता है तब निर्विशेषवाद की ओर उसका झुकाव हो सकता है, किन्तु आगे बढ़ने पर वह यह समझ पता है कि आध्यात्मिक जीवन में भी कार्य हैं और इन्हीं से भक्ति का विधान होता है | इसकी अनुभूति होने पर वह भगवान् के प्रति आसक्त हो जाता है और उनकी शरण ग्रहण कर लेता है | इस अवसर पर वह समझ सकता है कि श्रीकृष्ण की कृपा ही सर्वस्व है, वे ही सब कारणों के कारण हैं और यह जगत् उनसे स्वतन्त्र नहीं है | वह इस भौतिक जगत् को अध्यात्मिक विविधताओं का विकृत प्रतिबिम्ब मानता है और अनुभव करता है कि प्रत्येक वस्तु का परमेश्र्वर कृष्ण से सम्बन्ध है | इस प्रकार वह प्रत्येक वस्तु को वासुदेव श्रीकृष्ण से सम्बन्धित समझता है | इस प्रकार की वासुदेवमयी व्यापक दृष्टि होने पर भगवान् कृष्ण को परंलक्ष्य मानकर शरणागति प्राप्त होती है | ऐसे शरणागत महात्मा दुर्लभ हैं |

इस श्लोक की सुन्दर व्याख्या श्र्वेताश्र्वतर उपनिषद् में (३.१४-१५) मिलती है –

सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् |
स भूमिं विश्र्वतो वृत्यात्यातिष्ठद् दशांगुलम् ||
पुरुष एवेदं सर्वं यद्भूतं यच्च भव्यम् |
उतामृतत्वस्येशानो यदन्नेनातिरोहति ||

छान्दोग्य उपनिषद् (५.१.१५) में कहा गया है – न वै वाचो न चक्षूंषि न श्रोत्राणि न मनांसीत्याचक्षते प्राण इति एवाचक्षते ह्येवैतानि सर्वाणि भवन्ति – जीव के शरीर की बोलने की शक्ति, देखने की शक्ति, सुनने की शक्ति, सोचने की शक्ति ही प्रधान नहीं है |समस्त कार्यों का केन्द्रबिन्दु तो वह जीवन (प्राण) है | इसी प्रकार भगवान् वासुदेव या भगवान् श्रीकृष्ण ही समस्त पदार्थों में मूल सत्ता हैं | इस देह में बोलने, देखने, सुनने तथा सोचने आदि की शक्तियाँ हैं, किन्तु यदि बे भगवान् से सम्बन्धित न हों तो सभी व्यर्थ हैं | वासुदेव सर्वव्यापी हैं और प्रत्येक वस्तु वासुदेव है | अतः भक्त पूर्ण ज्ञान में रहकर शरण ग्रहण करता है (तुल्नार्थ भगवद्गीता ७.१७ तथा ११.४०) |
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Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!

( “सिद्धान्त सुख” – 58 )


गतांक से आगे –

॥ पद ॥

जो कोउ प्रभु कें आश्रय आवैं। सो अन्याश्रय सब छिटकावैं ॥
बिधि-निषेध कें जे जे धर्म । तिनिकों त्यागि रहें निष्कर्म ॥
झूठ क्रोध निंदा तजि देंहीं। बिन प्रसाद मुख और न लेंहीं ॥
सब जीवनि पर करुना राखें। कबहुँ कठोर बचन नहिं भाखें ।॥
मन माधुर्य-रस माहिं समोवैं। घरी पहर पल वृथा न खोवैं ॥
सतगुरु के मारग पगु धारैं। श्रीहरि सतगुरु बिचि भेद न पारौं ।॥
ए द्वादस लच्छिन अवगाहैं। जे जन परा परम-पद चाहैं॥
जाके दस पैड़ी अति दृढि हैं। बिन अधिकार कौन तहाँ चढि हैं ।।
पहिलें रसिक जनन को सेवैं। दूजी दया हिये थरि लेवें ॥
तीजी धर्म सुनिष्ठा गुनि हैं। चौथी कथा अतृप्त है सुनि हैं।
पंचमि पद पंकज अनुरागैं । षष्टी रूप अधिकता पारौं ।॥
सप्तमि प्रेम हिये विरधावैं। अष्टमि रूप ध्यान गुन गावैं ॥
नवमी दृढ़ता निश्चैं गहिबैं। दसमी रसकी सरिता बहिवैं ॥
या अनुक्रम करि जे अनुसरहीं। सनै-सनै जगतें निरबरहीं ।॥
परमधाम परिकर मधि बसहीं। श्रीहरिप्रिया हितू सँग लसहीं ॥ ३१ ॥

हे रसिकों ! ये कल का ही पद है …कल मैंने – “विधि निषेध के जे जे धर्म , तिनको त्यागि रहे निष्कर्म” यहाँ तक की चर्चा की थी । अब इससे आगे की पंक्ति – “झूठ क्रोध निंदा तजि देंहीं” इस सिद्धान्त का दर्शन आज आप सब करेंगे –


विधि यानि पालनीय कार्य…और निषेध यानि …न करना । हे सखी जू ! आपने मुझे विधि तो बताई अब निषेध भी बता दो ….किन्तु एक बात समझ में नही आयी …आपने अभी कहा कि विधि और निषेध का पूर्ण त्याग करो ….फिर आप ही विधि निषेध समझाने लगीं ।

मेरी बात पर हरिप्रिया जी मुस्कुराईं …फिर बोलीं ….विधि निषेध तो इस प्रेम मार्ग में भी आवश्यक है लेकिन शास्त्रादि के विधि निषेध नही …..क्यों की उनका उद्देश्य धर्म अर्थ काम या अंतिम मोक्ष ही है ….उनके विधि निषेध मोक्ष तक पहुँचाने वाले हैं ….किन्तु ये “निकुँजोपासना” तो मोक्ष से भी बहुत ऊँची वस्तु है ….शास्त्रों ने इस मार्ग का कहीं उल्लेख नही किया , न वेद ने किया है …हाँ , भक्ति के कुछ पुराणादि हैं किन्तु वो भी भक्ति की चर्चा तक ही सीमित हैं …आर्त, अर्थार्थी , जिज्ञासु और ज्ञानी भक्त की ही चर्चा की है इन शास्त्रों ने भी….किन्तु “निकुँजोपासना” तो विशुद्ध प्रेम की बात है ….”तत्सुख में सुखी होना” ये वो मार्ग है । अपने लिए कुछ नही “सब कुछ उसके लिए”..”सब कुछ उसका” । अब ऐसे प्रेम मार्ग के विधि निषेध शास्त्र क्या बतावेंगे । इसलिए जो त्याग करने की बात कही थी वो शास्त्रादि के विधि निषेध थे ….ये जो मैं बता रही हूँ वो इसी प्रेम मार्ग के हैं …ये तो आवश्यक हैं हीं । इतना कहकर हरिप्रिया जी बोलीं ….मैंने विधि बता दिये ….रसिकों का संग , गुरु पर भरोसा , युगलनाम जाप और युगल की सेवा …..इसके बाद है निषेध ….क्या नही करना है ।

हरिप्रिया जी कहती हैं ….झूठ नही बोलें …..क्या अपने आराध्य से झूठ का व्यवहार रखोगे ? अरे ! सामान्य प्रेम में भी प्रेमी अपने प्रियतम से सत्य का व्यवहार ही रखता है ..झूठ का व्यवहार पकड़ा गया तो प्रेम सम्बन्ध समाप्त । इसलिए झूठ का व्यवहार त्यागो ….झूठ न बोलें….न अपने आराध्य से , न गुरु से , न अपने रसिक संगी साथियों से । क्रोध न करें । हरिप्रिया जी कहती हैं ….ये प्रेम मार्ग है ….इसमें हमें अपने हृदय को बचाना है …अपने हृदय की रक्षा करनी है ….क्यों की हृदय जितना कोमल होगा उतनी ही प्रेम साधना आगे बढ़ेगी …कठोर हृदय में कभी प्रेम पनप नही सकता । इसलिए क्रोध से बचें …क्रोध न करें । हरिप्रिया जी आगे कहती हैं ….किसी की निन्दा भी न करें । इतने फ़ालतू हो क्या ? कि किसी के जीवन में झांक रहे हो …और उसे फैला रहे हो , क्यों ? नही , किसी की बुराई नही करनी है । ये बात हरिप्रिया जी बड़ी सरलता से समझाती हैं ……अब एक बात और सुनो ….जो हमारे आराध्य का प्रसाद न हो उसे अपने मुख में रखना नही है । प्रसाद को ही ग्रहण करना, ऐसा नियम ही बना लेना चाहिए । अच्छा इसमें दूसरी बात और समझने की है …कि ….खाद्य पदार्थ तो हम प्रसादी ग्रहण करते हैं …किन्तु क्या कानों में जो जा रहा है …या जो किताबें आदि पढ़ते हैं …वो प्रसादी है ? अब आप कहोगे ये क्या बात हुई ! हाँ , क्यों नही हुई …..जिस किताब में भगवान के भक्ति की चर्चा नही है ….भगवान की चर्चा नही है ….वो किताब प्रसादी नही है ….ऐसी किताबों को पढ़ना छोड़ो देखना भी नही चाहिए । आप कानों में क्या डाल रहे हो …..बातें ? चर्चा ? वार्ता ? ठीक …आप जिस चर्चा को अपने कानों में डाल रहे हो …उस चर्चा का विषय भगवान हैं ? प्रिया लाल हैं ? वार्ता सुन रहे हो …क्या उस वार्ता में भगवान हैं ? या तुम ही हो और तुम्हारा अहंकार है ? देखो , जिस वार्ता में भगवान नहीं हैं ….उस वार्ता को दूर से प्रणाम करो और चलते बनों ।

हरिप्रिया जी कहती हैं …..”प्राणी मात्र पर करुणा करो” …..ये होगा …अगर नही हो रहा तो अपनी ओर से थोड़ा प्रयास करो ….सब प्राणी भगवान के ही हैं …अब भगवान के हैं तो अपने हैं …..इस भावना से प्राणियों को देखो ….अब प्राणी से अभिप्राय समस्त से है ……सभी कीट पतंग आदि से लेकर वृक्ष पर्वत आदि भी ….सब पर करुणा रखें और किसी से कठोर वचन न कहे…..मृदु बोले …मधुर बोले ….हरिप्रिया एक बालक की तरह हमें समझा रहीं थीं ।

इसके बाद हरिप्रिया जी एक सघन कुँज में बैठ गयीं …..मैं भी उनके चरणों में ।

यहाँ पर हरिप्रिया जी ने अब विधि निषेध दोनों की ही चर्चा करनी आरम्भ करी ।

“ये जो मन है ना इसे मधुर रस में लगाओ”

हरिप्रिया जी के ये कहने पर …..मैंने पूछा …कैसे ?

तो मेरे प्रश्न का उत्तर देते हुए हरिप्रिया जी बोलीं ….मन को मधुर रस में लगाओगे तो ये लगा रहेगा …नही तो मन जल्दी बोर हो जाता है …उसे उचाट होने लगती है …किन्तु मधुर रस में तो नया नयापन है ….हर क्षण नवीनता है …..इसलिए मन के लिए यही जगह उपयुक्त है । फिर हरिप्रिया जी बोलीं …तुमने पूछा है कि ….कैसे मधुर रस में मन को लगावें ? तो सुनो ….आराध्य के नाम का सुमिरन करो ….उनके रूप का ध्यान करो …उनके गुणों का चिन्तन करो …उनके गीत गाओ …उन्हीं के लीला का गान करके भाव में भर जाओ ….अपने आराध्य के उत्सवों को मनाओ ….उत्साह के साथ मनाओ ….इस तरह तुम्हारा मन इस मधुर रस में लग जाएगा ।

“एक क्षण भी व्यर्थ न जाने दें” ….हरिप्रिया जी कहती हैं …..अपने प्रिया लाल में ही डूबे रहो ना , उसके सुमिरन में , उन्हीं की चर्चा में अपने काल को लगाओ ना , ये बहुत आवश्यक बात है ।

इसके बाद हरिप्रिया जी मेरी ओर देखती हैं ….फिर स्नेह से भरी वाणी में कहती हैं …”सदगुरु ने जो मार्ग बताया है उस मार्ग को कभी न छोड़े” । इतनी निष्ठा हो ….कि चाहे कुछ भी हो जाये ।

और अन्तिम बात …..कि “भगवान में और गुरु में कोई भेद न करे” ।

ये कहते हुए ….हरिप्रिया जी यहाँ पर अपनी गुरु सखी जी के ध्यान में लीन हो जाती हैं ।

( हे रसिकों ! मैंने आज भी ये पद पूरा नही लिया , मैंने – “सतगुरु के मारग पगु धारे, हरि सतगुरु बिच भेद न पारे” यहाँ तक ही लिया है …इसके बाद दस लक्षण और बताये हैं….वो और अद्भुत हैं ..प्रिया लाल जू लिखायेंगे तो विस्तार से लिखने की इच्छा तो है )

शेष अब कल –

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