Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 4️⃣
भाग 2
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
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#सीतायाचरितम्महत……
📙( #वाल्मीकि_रामायण )📙
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#मैवैदेही ! ……………._
मेरे पिता इतनें में ही समझ गए थे कि ….ये कोई आत्मज्ञानी नही है ।
फिर भी उसे तो ये बताना आवश्यक ही था ……..कि तुम्हारी स्थिति अभी आत्मज्ञानी बननें में कई कोसों दूर है ………।
अच्छा बताओ …….आत्मज्ञानी के लक्षण क्या है ?
मेरे पिता के इस प्रश्न का उत्तर उसनें दिया था ……………
जो देहातीत है ………….देहातीत होना ही पहला लक्षण है आत्मज्ञानी का …….क्यों की देह तो मिथ्या है …………।
देवर्षि की और देखकर मुस्कुराये थे मेरे पिता …………उसका ये उत्तर सुनकर ।
आप हँस रहे हैं क्या मेरी बात सही नही है ?
उस ऋषि कुमार नें फिर ये बात कही थी ।
नही नही ……मै तो तुम्हारी बातों से बहुत प्रसन्न हूँ ……….हाँ ठीक कहा आपनें ……यही लक्षण हैं आत्मज्ञानी के ।
पर ……….मेरे पिता जनक जी रुक गए इतना कहकर ।
क्या पर ? ऋषि कुमार कुछ ज्यादा ही अहं से ग्रस्त था ।
नही मुझे ये देखना है कि तुम सच में आत्मज्ञानी हो ….या केवल आत्मज्ञान की बातें ही करते हो !
मेरे पिता जनक जी नें उस युवक से कहा ।
आप क्षत्रिय होकर मुझ ब्राह्मण को शिक्षा दे रहे हैं ?
तो क्या आत्मज्ञानी ब्राह्मण और क्षत्रियों में उलझता है कुमार ! क्या ये सब भी मिथ्या नही हैं , ब्राह्मण और क्षत्रिय ?
मेरे पिता के ये कहनें पर वो ऋषि कुमार चुप हो गया था ।
देवर्षि ! मै स्नान करनें जा रहा हूँ …..कमला नदी में …………
क्या ऋषि कुमार आप भी चलेंगें मेरे साथ ?
मेरे पिता जी नें जानबूझकर अब उसे ज्यादा ही सम्मान देना शुरू कर दिया था ………..नारद जी हँसे …..वो समझ गए थे ……..कि ऋषि कुमार की परीक्षा शुरू हो चुकी है ।
हाँ …..अवश्य ! अवश्य चलूँगा मै आपके साथ ।
ऋषि कुमार नें कहा …..और मेरे पिता के साथ कमला नदी में स्नान करनें के लिए चल दिए थे ।
आपनें किस से आत्मज्ञान प्राप्त किया ?
वो ऋषि कुमार मेरे पिता जी से पूछनें लगा था ।
महान ऋषि अष्टावक्र से ……………बस इतना ही बोले मेरे पिता ……और कमला नदी के तट में आचुके थे ……….।
दोनों ही बड़े आनन्दित होकर स्नान करनें लगे ।
महाराज ! महाराज ! दो सैनिक आये …….और प्रणाम करके स्नान कर रहे अपनें महाराज विदेह राज से उन्होंने ये कहा था ।
महाराज ! आपका महल जल रहा है …..आग लग गयी उसमें ।
क्रमशः ….
#शेषचरिञअगलेभागमें……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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[] Niru Ashra: महारास (दिव्य प्रेम का नृत्य) (151)
(स्वामी अखंडानंद सरस्वती )
रास-स्थली की शोभा
सुना तो होगा- सांख्ययोग में प्रकृति एक है और पुरुष अनेक हैं। एक राधा है और श्रीकृष्ण हजार-हजार रूप धारण करके उसके सामने नृत्य करके उसको प्रसन्न कर रहे हैं। आप देवीभागवत में कभी पढ़ें- श्रीराधारानी धारण करके और हार पहनकर बैठी हैं। हार भी मरकतमणिका, इन्द्रनीलमणिका; कानों में नीला कमल बड़ा ही सुन्दर! श्रीकृष्ण का नीलवर्ण है न इसलिए उनके आभूषण सब नीले हैं। और सामने क्या होता है?
ब्रह्मा, विष्णु और महेश तीनों छोटे-छोटे बच्चे हैं, एक हाथ कमर पर और एक हाथ शिर पर रखा है, और श्रीराधारानी सिखाती हैं कि नाचो बेटा- ताता-थाई ताता थेई। चार मुँह के ब्रह्मा और चार हाथ के विष्णु और तीन नेत्र के शंकर, तीनों नन्हें-नन्हें बालक के रूप में; एक गोरा, एक काला, एक लाल; राधारानी अंगुली दिखाकर कहती हैं- नाचो बेटा, नाचो बेटा, ताल से नाचो! देखो- यह स्वर बिगड़ गया, यह ताल छूट गया। ये ब्रह्मा- विष्णु महेश जो हैं उनकी छाया से पैदा हुए हैं। श्रीकृष्ण उन्हीं राधारानी को रिझाने के लिए अनेक रूप धारण करके आते हैं। वह कहती हैं- आज यह पोशाक पहनो, आज हजार बनो, आज लाख बनो, आज करोड़ बनो, आज ये नृत्य दिखाओ, आज वह नृत्य दिखाओ और श्रीराधारानी के सामने श्रीकृष्ण भगवान् नृत्य करते हैं-
रेमे तत्तरलानन्दकुमुदामोदवायुना- इस श्लोक के बाद अब एक रास का वर्णन है। रास में आप जानते हैं- पदन्यासैः पाद का कैसे विन्यास करना, केवल एड़ी पड़े धरती पर, केवल पञ्जा पड़े, केवल एक अंगुली पड़े और पाँव में घुँघरू हैं तो केवल एक घुँघरू बजे, दो घुँघरू बजे, तीन घुँगरू बजे, पाँच-सात घुँघरू बजे- यह सब रास में होता है। हमने तो तलवार की धार पर और रस्सी पर भी नाचते देखा है। जैसे इस खम्भे से उस खम्भे में रस्सी बाँध दें- तो उस रस्सी पर नाचते देखा है।+
उदयपुर वाली बात तो सुनी हुई है कि ऐसे ही बँधी रस्सी पर नटिनी नाचती हुई झील पार कर रही थी तो किसी ने रस्सी काट दी; बेचारी झील में गिर गयी और मर गयी। लेकिन आज भी ऐसे नट हैं, जो रस्सी पर नाचते हैं, तलवार पर नाचते हैं।
पादन्यासैः भुजविधुतिभिः सस्मितैर्भूविलासैः ।
पाद-विन्यास, हस्त-विन्यास, मुस्कान और भौहों का मेल। और महाराज, वह कमर-तोड़ नृत्य कि देखने वाला ही डर जाय; वक्ष के कपड़े की सम्हाल न रहे, और कुण्डल कपोलों पर जाकर के चपलता कर रहे हैं। भज्यन्मध्यैः चलकुचपटैः कुण्डलैः गण्डलौलेः ।
स्विद्यन्मुख्यः कबर रशना ग्रन्थयः कृष्ण-वध्वो
गायन्त्यस्तं तडित इवता मेघचक्रे विरेजु ।।
क्या रासलीला का वर्णन है। तो अब बताते हैं,
बाहुप्रसारपरिरम्भकरालकोरु नीवीस्तनालभननर्मनखाग्रपातैः ।
क्ष्वेल्यावलोकहसित्रैर्व्रज सुन्दरीणामुत्तम्भयन् रतिपतिं रमयाञ्चकार ।।
इसका बड़ा विलक्षण अर्थ है भला! यह काम के सामने झुकना नहीं है, काम को हराना है; यहाँ काम नहीं है, प्रेम है। उत्तम्भयन् रतिपतिं रमयाञ्चकार- आया काम, कृष्ण ने देखा कि अच्छा बेटा आ गये। कृष्ण का तो बेटा ही है काम (प्रद्मुम्न के रूप में यही आया)।
कृष्ण ने कहा- नहीं, ठहर जाओ। एक महात्मा कहीं जा रहे थे। जैसे बम्बई में कभी-कभी एकाएक बादल आ जाते हैं और फटाफट बरसने लगते हैं, वैसे ही बादल आये और बरसना शुरू किया। महात्मा ने देखा। बोले- स्टाप! अरे, उसी समय बादलों का बरसना बन्द! तो रासलीला में आया काम, अभी ऊपर ही था; श्रीकृष्ण ने नीचे से कहा- स्टाप; भीतर प्रवेश नहीं बेटा तुम्हारा! हाँ, माँ-बाप के किलोल में बेटे का प्रवेश वर्जित है। विशुद्ध प्रेम में काम वर्जित है। कृष्ण बोले- काम, तुम जाओ स्वर्ग में, देवताओं में जाओ, अप्सराओं में जाओ, हमारे पास नहीं आ सकते, अब आगे की बात फिर++
पूरी रासपञ्चाध्यायी एक दृष्टि में
बाहुप्रसारपरिरम्भकरालकोरू-
नीवीस्तनालभननर्मनखाग्रपातैः ।*
क्ष्वेल्यावलोककहिसितैर्व्रजसुन्दरीणा-
मुत्तम्भयन् रतिपतिं रमयाञ्चकार ।।
एवं भगवतः कृष्णाल्लब्धमाना महात्मनः ।
आत्मानं मेनिरे स्त्रीणां मानिन्योभ्यधिकं भुवि ।।
तासां तत् सौभगमदं वीक्ष्य मानं च केशवः ।
प्रशमाय प्रसादाय तत्रैवान्तरधीयत ।।
हमारे काशी में एक पुराने अच्छे वक्ता हैं। एक महाराष्ट्र के विद्वान हैं, उनकी अवस्था अब नब्बे वर्ष से अधिक है। वे बड़े पवित्र मर्मज्ञ वक्ता हैं। तो पहले जब वे कथा प्रारम्भ करते थे, (अब तो कथा नहीं कह सकते) तो बोलते- ‘सर्वे श्रोतार: सावधाना भवंतु’ श्रोताओ सावधान, माने अब डौंड़ी पिट गयी, अब नाटक प्रारम्भ होने वाला है। सावधान का अर्थ है कि एक बार जो दुनिया के साथ अपना रिश्ता है सो सब काट दो, और आओ, अपने मन को लेकर चलें वृन्दावन! आप जानते हैं वृन्दावन प्रीति की, प्रेम की भूमि है। एक बार एक स्त्री एक पोटली में बाँधकर सिर पर रखकर चली जा रही थी। किसी ने पूछा- माँ, इस पोटली में क्या है? तो बोली कि यह संतों का अधरामृत है। बोले- भगवान का तो अधरामृत होता है, यह संतों का अधरामृत क्या है? आप समझें- जहाँ संतों की बैठी थी खाने के लिए,वहाँ जो संतों का खाया हुआ जूठन पड़ा रह गया था, वह बीन-बीनकर उसने पोटली बनायी थी। वह जूठन प्रसादी थी जो वह लिये जा रही थी। उसी को वह कह रही थी संतों का अधरामृत।
गोपियों को भगवान का अधरामृत मिलता था और हमको यह प्रसाद मिलता है, जिनके हृदय में भगवान बैठे हैं। नारायण! एक वर्णन मिलता है- एक महात्मा थे-श्रीरामकृष्णादासजी महाराज्। आप लोगों में से बहुतों ने उनका दर्शन किया होगा। बहुत पुरानी बात है- वृन्दावन के बहुत बड़े प्रतिष्ठित सन्त थे। वृन्दावन के प्रेम और वैराग्य दोनों उनके जीवन में एक साथ देखने में आते थे। मैंने भी उनका दर्शन किया था। उनका यह नियम था कि रोज भगवान के तीन लाख नामों का जपना और चार बजे सायंकाल जब जप पूरा हो जाये तब भिक्षा के लिए जाना और किसी व्रजवासी के घर की ही रोटी लेना, दूसरे की नहीं-
कबहूँ कै अस करिहौ मन मेरो
करकरवा हरवागुंजनि को कुंजनि माँहि बसेरो।
भूख लगे तब माँगि खाइहौं गिनौं न साँझ सबेरो
ब्रजवासिन के टूक जूठ अरु घर-घर खात महेरो।।
कबहूँ कै अस करिहौं मन मेरो॥
व्रजवासियों के सिवाय किसी की रोटी खाते ही नहीं थे। जिंदगी भर वे व्रज से बाहर गये ही नहीं, वृद्ध होकर मरे। एक दिन उनके पास एक संन्यासी आया। वह तो उपनिषद पढ़े हुए था महाराज! बोले- व्रज में ऐसा क्या है कि आप वृन्दावन-वृन्दावन बोलते हो? अब क्या है वृन्दावन में-अब तो वृन्दावन में सूखी रेत है, यमुना जी भी छोड़कर दूर चली गयीं। एक के घर गये और बोले- राधेश्याम-राधेश्याम! जैसे सन्यासी लोग ‘नारायण’ या ‘नारायण हरि’ बोलते हैं। उसमें दो जाति हैं- जो सम्प्रदाय के साथ सम्बंध रखने वाले हैं तो बोलते हैं ‘नारायण हरि’ और जो बिल्कुल अजातवादी होते हैं, वे तो अपने मुँह से ‘नारायण हरि’ भी नहीं बोलते हैं। वे तो एकदम अनन्य होते हैं, अपने मुँह से नारायण नहीं बोलते। वे बोलते हैं- ‘मैया रोटी, भैया रोटी’। जैसे बच्चा बोले ऐसे।
एक भगवानदासजी विरक्त थे, वे अपने मुँह से सिवाय दो शब्द के तीसरा शब्द कभी बोलते नहीं थे, दो शब्द बोलते थे- मैया रोटी। चलते-चलते खा लिया, जहाँ मिला वहाँ पानी पी लिया। उनको अजातभिक्षु बोलते थे। तो महात्मा ने बोला- राधेश्याम! घर में से एक माई निकली, बच्चे को गोद में लिये दूध पिला रही थी। बोली- बाबा, घर में रोटी नहीं है। बोले- रोटी नहीं है, तो दूध पी लूँगा। बोली-घर में दूध भी नहीं है; लो, दूध पीना हो तो-झट अपने बच्चे के मुँह से कटोरा हटाया और बोली- लो, पी लो। अब संन्यासी बोले- अरे राम-राम-राम! इतने बड़े महात्मा हैं, तू इनको झूठा दूध देती है? बोली- निगोड़ा कहीं बाहर से आया है क्या? आप जानते ही हैं, निगोड़ा माने व्रज में गाली होती है; जैसे निपोता या निपूता बोलते हैं वैसे निगोड़ा बोलते हैं।
फिर बोली- अच्छा, ले जूठा है, तो ले, ऊपर-ऊपर का जूठा गिरा देती हूँ, नीचे का पी ले। अब आप तो बड़े मर्यादावादी हैं, आप लोगों के सामने क्या सुनावें. स्वामी प्रबोधानन्द सरस्वती कहते हैं कि नाली में बहता हुआ जो कीचड़ है और कुत्ते का भी जो जूठा है, उसको भी खाकर अगर वृन्दावन में रहने को मिले, और वृन्दावन का रस हमको मिले तो भी अच्छा है। प्रबोधानन्द सरस्वती कौन? जो वेदान्तियों में अद्वैतसम्प्रदाय में एक जीववाद के, दृष्टिसृष्टिवाद के प्रमुख आचार्य हैं। स्वामी प्रकाशानन्द सरस्वती इनका पहले नाम था, वही स्वामी प्रबोधानन्द सरस्वती वृन्दावन को साक्षात् परब्रह्म कहते हैं। “वृन्दावन में प्रेम की नदी बहे चहुँ ओर।” तो संन्यासी ने श्रीरामकृष्णदासजी से कहा- बाबा जूठा पीते हो? महात्मा ने क्या कहा, आपको मालूम है। कहा- सूझता नहीं है तुमको? घर में रोटी नहीं है, घर में दूसरा दूध नहीं है, और अपने बच्चे के मुँह से कटोरा हटाकर हमको दूध दे रही है; नारायण! इसका प्रेम तो देखो कि बच्चे को भूखा रख रही है, और हमको दूध दे रही है। तुम मर्यादा देखते हो?
तो अब देखो चलते हैं वृन्दावन में! वृन्दावन का रस दूसरा है, वृन्दावन का प्रेम दूसरा है; वह पैसों वालों का प्रेम नहीं है, वहाँ भजकलदारम् नहीं है, वह ढोंगियों का प्रेम नहीं है, वह धर्मात्माओं का प्रेम नहीं है! हाँ तो भगवान् जब वृन्दावन में पहले-पहल आये तो वृन्दावन में पहुँचने की खुशी में काम (भोग) को तो इतनी जोर से फेंका कि वह जाकर पेरिस में गिरा; और (धन) को उठाकर फेंका तो वह जाकर अमेरिका में गिरा; धर्म को फेंकने में जरा हाथ ढीला पड़ गया तो वह जाकर काशी में गिर गया; और मोक्ष को फेंक दिया हरिद्वार की ओर। यह व्रज में पहुँचने की खुशी है। भगवान् ने घर-घर धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष- चारों पुरुषार्थों को लुटा दिया। वृन्दावन पुरुषार्थ की जगह नहीं है, यह प्रेम की जगह है। नारायण तो आओ वृन्दावन में, जरा आप एकबार ध्यान करो।+
क्रमशः …….
प्रस्तुति
🌹🌻श्री कृष्णं वन्दे 🌻🌹
[] Niru Ashra: !! निकुँजोपासना का सिद्धान्त !!
( “सिद्धान्त सुख” – 79 )
गतांक से आगे –
रहसि अँग-अंग प्रति सीवाँ सोई। थल अरु बिथल जानिये जोई ॥
पग रोपन सोई बंस बसन पन। जीति निसान बजैबौ जै रन ॥
रंग भरें मुख सों अंग चूमें। बूका बरन कह्यौ है जू में ॥
संबोधन दै बरनत जोरी। ताकी संज्ञा कहियत होरी ॥
फूल-फूल मिलि बिहरें जोर। जाहि कहत हैं फूल हिंडोर ॥
जिहि सुख तें सीतलता लहें। चंदन सिंगारहि तिहिं कहें ॥
सुरत समुद्र न्हवावति जोई। जल-बिहार कहवावति सोई ॥
मंजु-मनोरथ में पधरावें। सो रथ आरोहन जु कहावें ॥
बहु-रस बरसें लहरि लड़ावें। सो वरषा-रितु नाम कहावें ॥
*हे रसिकों ! जो वर्णन किया जा रहा है …इसको समझना इतना आसान नही है …मात्र भाषा ज्ञान से इसे नही समझा जा सकता ….इसे समझने के लिए रसिकों की संगति आवश्यक है ….वह रसिक जिन्होंने इसे एकान्त में गाया है ….अपने युगलवर को रिझाने के लिए गाया है …गाते हुए उस भाव का अपने हृदय की गहराई में अनुभव किया है ….सखीभाव से भावित चित्त में ही ये अनुभव आसकता है …अन्यथा नही । स्थान – युगल सरकार । वस्तु – युगलसरकार । काल यानि समय – युगल सरकार । कौन ज्ञानी ऐसा है जो इस तरह सर्वत्र अपने ब्रह्म का अनुभव करे ! सच्ची ज्ञानी तो यही सखियाँ ही दिखाई देती हैं ….जिन्हें सर्वत्र और सर्वदा युगलतत्व का दर्शन हो रहा है ……हे रसिकों ! हमें इसी स्थिति में पहुँचना है …..हमारा लक्ष्य यही है कि ….सर्वत्र उन्हीं की सत्ता , उन्हीं का रूप , बस उन्हीं उन्हीं को देखना …..तुम देखना आरम्भ तो करो ….वो तो दीख ही जायेंगे ….क्यों की वृक्ष पुष्प आदि तो मिथ्या हैं किन्तु उसमें युगलसरकार तो सत्य हैं ना । बस ये श्रीमहावाणी उसी सत्य का , कहूँ तो परम सत्य का दर्शन करा रही है …..कीजिए दर्शन ।
श्रीहरिप्रिया जी आनन्दमूर्ति हैं …इनका अंग अंग आनन्द से भरा है, या कहूँ आनन्द तत्व से ही इनका देह बना है …..तभी तो रोम रोम से आनन्द झर रहा है ….ये कितनी रसोन्मत्त हो गयीं हैं ……उसी रस की उन्मत्त दशा में हरिप्रिया जी कहती हैं ….अरी ! ये जो थल और विथल है ना ….यही इन युगल के अंगों की सीमा है ……रंग भरे मुख से मुख को चूमना ….यही बूका बंदन है ….( होली में लाल रंग ) हरिप्रिया जी कहती हैं …..होली …होली …जो ये शब्द हैं ना …ये सम्बोधन है …..लाल जी प्रिया जी से कह रहे हैं …मैं तेरी हो ली …तो प्रिया जी लाल जी से कह रही हैं ….हाँ , मैं भी …हो ली ।
अब यहाँ से होली के बाद “फूल डोल” होता है ….होली की थकान उतारने के लिए फूलों के सिंहासन में दोनों विराजते हैं ….हरिप्रिया जी कहती हैं …..फूल फूल कर वनों में युगल जब विहार करते हैं …तो उसे ही “फूल डोल” कहा जाता है । अब गर्मी आ रही है …चन्दन का शृंगार होगा ….हरिप्रिया जी कहती हैं ….जिस विहार से इन दोनों को शीतलता मिलती है उसे ही कहते हैं चन्दन शृंगार । अरी ! सुरत समुद्र में जब ये दोनों डूबते और उबरते हैं वही तो जल विहार है ….फिर सखी जन लीला विस्तार में युगल को प्रेरित करती हैं ….वही रथयात्रा है ।
फिर इसके बाद वर्षा ऋतु आगयी ……हरिप्रिया जी बोलीं …युगल सरकार प्रेम की अद्भुत वर्षा करते हैं …और सखियाँ मल्हार गाती हैं …वही वर्षा काल है । इसके बाद हरिप्रिया जी आनन्द में उछलती हुयी कहती हैं ….हम सब सखियाँ युगल सरकार का विशेष आदर करती हैं …हमारा विशेष आदर करना ही “हरियाली तीज” है । मैं क्या कहूँ ! युगल के चरण खम्भ हैं ….हाथ डांडी हैं ….जिसमें झूला लगता है ….और सुरत सुख ही “सुरंग हिंडोला” है ..इसी में ये झूलते हैं …यही हैं झूला भी और झूलने वाले भी ….ये कहते हुए हरिप्रिया जी खूब हंसती हैं …खूब हंसती हैं । इनकी हंसीं में पूरा निकुँज सम्मिलित हो जाता है ।
शेष अब कल –
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 8 : भगवत्प्राप्ति
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श्लोक 8 . 10
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प्रयाणकाले मनसाचलेन
भक्तया युक्तो योगबलेन चैव |
भ्रुवोर्मध्ये प्राणमावेश्य सम्य-
क्स तं परं पुरुषमुपैति दिव्यम् || १० ||
प्रयाण-काले – मृत्यु के समय; मनसा – मन से; अचलेन – अचल, दृढ़; भक्त्या – भक्ति से; युक्तः – लगा हुआ; योग-बलेन – योग शक्ति के द्वारा; च – भी; एव – निश्चय ही; भ्रुवोः – दोनों भौहों के; मध्ये – मध्य में; प्राणम् – प्राण को; आवेश्य – स्थापित करे; सम्यक् – पूर्णतया; सः – वह; तम् – उस; परम् – दिव्य; पुरुषम् – भगवान् को; उपैति – प्राप्त करता है; दिव्यम् – दिव्य भगवद्धाम को |
भावार्थ
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मृत्यु के समय जो व्यक्ति अपने प्राण को भौहों के मध्य स्थिर कर लेता है और योगशक्ति के द्वारा अविचलित मन से पूर्णभक्ति के साथ परमेश्र्वर के स्मरण में अपने को लगाता है, वह निश्चित रूप से भगवान् को प्राप्त होता है |
तात्पर्य
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इस श्लोक में स्पष्ट किया गया है कि मृत्यु के समय मन को भगवान् की भक्ति में स्थिर करना चाहिए | जो लोग योगाभ्यास करते हैं उनके लिए संस्तुति की गई है कि वे प्राणों को भौहों के बीच (आज्ञा चक्र) में ले आयें | यहाँ पर षट्चक्रयोग के अभ्यास का प्रस्ताव है, जिसमें छः चक्रों पर ध्यान लगाया जाता है | परन्तु निरन्तर कृष्णभावनामृत में लीन रहने के कारण शुद्ध भक्त भगवत्कृपा से मृत्यु के समय योगाभ्यास के बिना भगवान् का स्मरण कर सकता है | इसकी व्याख्या चौदहवें श्लोक में की गई है |
इस श्लोक में योगबलेन शब्द का विशिष्ट प्रयोग महत्त्वपूर्ण है क्योंकि योग के अभाव में चाहे वह षट्चक्रयोग हो या भक्तियोग – मनुष्य कभी भी मृत्यु के समय इस दिव्य अवस्था (भाव) को प्राप्त नहीं होता | कोई भी मृत्यु के समय परमेश्र्वर का सहसा स्मरण नहीं कर पाता, उसे किसी न किसी योग का, विशेषतया भक्तियोग का अभ्यास होना चाहिए | चूँकि मृत्यु के समय मनुष्य का मन अत्यधिक विचलित रहता है, अतः अपने जीवन में मनुष्य को योग के माध्यम से अध्यात्म का अभ्यास करना चाहिए |
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877