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November 21, 2024 10:47 pm

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श्रीसीतारामशरणम्मम(14-3), “राजकुमार पृषघ्र”,भक्त नरसी मेहता चरित (13) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

श्रीसीतारामशरणम्मम(14-3), “राजकुमार पृषघ्र”,भक्त नरसी मेहता चरित (13) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

Niru Ashra: “राजकुमार पृषघ्र”

भागवत की कहानी – 12


आप अपने आपको इतना तुच्छ क्यों समझते हैं ? आप परब्रह्म की सन्तान हैं …आपका कोई क्या बिगाड़ सकता है ? बात ये है कि ….आपने अपने को छोटा समझ लिया …आपने अपने को सामान्य परिस्थितियों का सेवक बना लिया …कर्म , काल , ग्रह , देवता आदि से आप संचालित हैं …ये बात आपने मान ली है ….और आज नही मानीं आपको ये घुट्टी जन्मों जन्मों की पिलाई हुई है …..इसी के कारण आप दुखी हैं । ये बात भागवत में कही गयी ….श्रीशुकदेव जी कहते हैं ….काल तो अवसर देता है परीक्षित ! तुम्हें शाप मिला किन्तु क्या ये शाप है ? परीक्षित ने मुस्कुराकर कहा …गुरुदेव ! ये वरदान है ….मैं आपके मुख से अपने आराध्य श्रीकृष्ण की कथा सुन रहा हूँ …अपने प्यारे की कथा ! मुझे तो वरदान लगता है ।

बस ऐसे ही हमें परिस्थितियों का दास न बनकर अपने आत्मभाव से चलना होगा …फिर देखो ! अस्तित्व तुम्हारी सेवा में लग जाएगा । बड़े तुम हो ..क्यों की तुम बड़े की सन्तान हो ..अरे ! राजकुमार हो तुम !

अच्छा सुनो ! एक राजकुमार हुआ सूर्यवंश में …मनु का पुत्र ….पृषघ्र । राजकुमार पृषघ्र । श्रीशुकदेव जी परीक्षित को सूर्यवंश की कथा सुनाते हुए बोले थे ।


वशिष्ठ ऋषि इस सूर्यवंश के पुरोहित हैं …ब्रह्मा जी ने कहा तो उनकी बात मानकर इन्होंने पुरोहित की पदवी स्वीकार की । तो इधर राजमहल में स्वायम्भुमनु के पुत्र हुए ….दस पुत्र हुए थे …राजा ने अपने दसों पुत्रों को गुरु वशिष्ठ जी के आश्रम में भेज दिया …पहले के राजकुमार गुरुकुलों में ही पढ़ा करते थे …वहाँ कष्ट होता परेशानियां होतीं …उसे ये समझते थे । आप कल राजा बनोगे , तो आपको ये पता तो होना चाहिए ना कि प्रजा को क्या क्या कष्ट आते हैं ।

ये दसों राजकुमार वशिष्ठ जी के यहाँ पढ़ रहे हैं …गुरु ने सबको काम दे दिया है …किसी को आश्रम में झाड़ू लगाना है तो किसी को वन से समिधा लेकर आना है , किसी को भोजन बनाना है ।

इनमें से ही एक राजकुमार था पृषघ्र ।
ये शान्त था । ये किसी से बोलता नही था । गुरु वशिष्ठ ने इस राजकुमार को अपनी गाय देखने में लगा दी थी । यानि गाय की सेवा में इसे लगा दिया । ये पृषघ्र गाय को चराने के लिए वन में ले जाता …फिर गाय के लिए चारा आदि की भी व्यवस्था करता । ये गाय के साथ ही रहता । इस तरह से इसका समय बीत रहा था ….

एक दिन – रात्रि की वेला थी ….वर्षा हो रही थी कि उसी समय एक सिंह ने गौशाला में आक्रमण कर दिया ….वो गाय चिल्लाई …..राजकुमार पृषध्र सोया हुआ था ….उसने गाय के चिल्लाने की आवाज सुनी तो वो नींद में घबड़ा कर उठा ….क्षत्रिय था इसलिए तलवार लेकर ही सोता था …वैसे भी वन क्षेत्र है तो हिंसक जीव यहाँ बहुत संख्या में हैं हीं ….इसलिए भी तलवार लेकर ये सोता था कि मेरे गुरु जी की गाय को कोई हिंसक प्राणी खा न जाए ।

ये नींद में उठकर भागा …तलवार लेकर भागा । खाने के लिए गाय पर सिंह चढ़ चुका था ….रात्रि की वेला और नींद में राजकुमार ।

इसने तलवार चला दी ….और सिंह मर गया जान कर ये वापस आकर सो गया …..पर दूसरे दिन जब राजकुमार पृषध्र उठा तो वहाँ आश्रम वासियों की भीड़ लग गयी थी …गुरु वशिष्ठ भी वहाँ आए हुए थे …राजकुमार उठा और जैसे ही उसने सामने देखा ….ओह ! रात्रि में उसकी तलवार से सिंह नही गाय मर गयी थी । गाय के ऊपर पृषध्र ने तलवार चला दी थी । इसे बहुत दुःख हुआ …..ये क्या हुआ मेरे द्वारा ! इसने अपने गुरु वशिष्ठ की ओर देखा तो …क्रोध से उनकी आँखें लाल हो रहीं थीं ।

अरे शूद्र ! तुझ से एक गाय की रक्षा न हो सकी ? पृषध्र ने हाथ जोड़े वो कुछ बोलने जा ही रहा था कि …..जा तू शूद्र हो जा ! गुरु वशिष्ठ ने शाप दे दिया ।

गाय के मरने का बहुत दुःख हुआ राजकुमार को …किन्तु जैसे ही गुरु वशिष्ठ ने शाप दिया और शूद्र होने का शाप ….तो ये प्रसन्न हुआ ….ये मुस्कुराया , चारों ओर देखकर हंसने लगा …इसके मुखमण्डल में एक दिव्य आभा फैल गयी । गुरु वशिष्ठ भी अब चकित थे । हे गुरुदेव ! मैंने गाय की हत्या नही की …मैंने तो सिंह को ही मारा था लेकिन रात्रि में अन्धकार होने के कारण मुझे पता नही चला । मुझे अतिशय दुःख है , कष्ट है कि मेरे गुरु की गाय मर गयी और मेरे द्वारा ये सब हुआ …किन्तु जान बूझकर नही । राजकुमार कहता है …आपने मुझे शाप दिया …शूद्र हो जा ।

गुरुदेव ! आपका शाप मैं शिरोधार्य करता हूँ ….अब मैं स्वतन्त्र हो गया …लम्बी साँस लेता है राजकुमार । फिर गुरु के चरणों में देखते हुए कहता है …मुझे भजन करने का अवसर मिला है ये …अब मैं शूद्र हो जाऊँगा तो मुझे नहाना भी नही पड़ेगा …वाह ! नहाने में समय बर्बाद होता था ..फिर सन्ध्या आदि करो ..फिर पितरों को नियम से तर्पण दो …ये सब क्यों ? सीधे ही हम भक्ति न करें ? हम तो परमपिता की ही सन्तान हैं ना ? फिर क्यों इन मिथ्या के पितरों में हम उलझे हुये हैं ? और क्यों अपना समय खराब कर रहे हैं ….इतनी भी देर में कितनी बार भगवान का नाम निकल जाएगा । राजकुमार यहाँ कुछ देर के लिए मौन हो जाता है ….उसका मुखमण्डल दमक रहा है …भगवान की भक्ति उसके हृदय में प्रकट हो गयी है ….वो अब अपने को पूर्ण स्वतन्त्र मानकर भगवान में मन लगा चुका है । हे गुरुदेव ! मैं जा रहा हूँ ….मुझे शूद्र बनाकर आपने जो मेरा मंगल किया , मैं इस उपकार को कभी नही भूलूँगा । वो हँसता है कहता है – मैं राजकुमार था ….फिर राजा बनता …रानी आती ..भोग विलास द्वारा पुत्र होते ….मैं इन्हीं में फंस जाता …मैं अपने शाश्वत पिता को तो भूल ही जाता ना ! अब कितना अच्छा हुआ । रही गाय की बात तो वो तो दूसरा जन्म पा लेगी …उसके लिए आपको दुखी होने की आवश्यकता नही हैं …इतना कहकर ये राजकुमार आनन्द से अपनी मस्ती में …भगवान का स्मरण करते हुए चला गया और परम भक्त हो गया । अपने जीवन को कल्याणकारी मार्ग, यानि भक्ति के मार्ग में लगा कर इसने भगवान को प्राप्त कर लिया था ।

“तुम्हारे ऊपर है कि …तुम किसका उपयोग कैसे करते हो ….शाप को वरदान मान लें तो ! शाप वरदान हो सकता है …केवल तुम्हारी दृष्टि बदल जाये …..शुकदेव जी हंसते हैं …तुमसे क्या नही होगा …तुम सामान्य नही हो ….ईश्वर का अंश हो …..इस बात को क्यों भूल जाते हो ?

परीक्षित ये सुनकर आनंदित हो जाते

Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣4️⃣
भाग 3

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#तेहिअवसरसुनीशिवधनुभंगा……….._
📙( #रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏

#मैवैदेही ! ……………._

मुझे अशोक वाटिका में त्रिजटा नें ये बात बताई थी ………….

रावण बुद्धिमान था ………साम, दाम, दण्ड , भेद राजनीति कूटनीति…सबका ज्ञाता था रावण ……पर अहंकार बहुत था उसमें ।

ओह ! यहीं पर तो भगवान ब्रह्मर्षि परसुराम तप कर रहे हैं ……….

और वो क्षत्रिय से द्रोह भी करते हैं ……..राम क्षत्रिय है ………

और उसनें शिव धनुष तोडा है ………अवसर बहुत अच्छा है रावण ! इसी समय परशुराम जी को ये सुचना दे दे …………बस बाकी काम स्वयं परसुराम जी ही कर देंगें …………..हा हा हा हा हा हा ……..

रावण चल पड़ा लंका पार करके …………..

भगवान परशुराम जी की जय हो !

जोर से बोला था रावण…….और परसुराम जी के चरणों में लेट गया ।

ओह ! लंका पति रावण ! परसुराम जी नें अपनें नेत्र खोले ।

बताओ कैसे आना हुआ मेरे पास ।

हे भगवन् ! मुझे आज बहुत दुःख हो रहा है ………..

आपको तो पता ही है …..मेरे लिए मेरे आराध्य ही सर्वस्व हैं ……….

हाँ हाँ ……मुझे पता है तुम्हारी भगवान शंकर के चरणों में अनुपम भक्ति है ………..।

पर आज ये भक्त दुःखी है …….बहुत दुःखी है ………….

( दिखावे के लिए कुछ आँसू भी बहा दिए थे रावण नें )

दुःखी क्यों हो ……………परसुराम जी नें पूछा ।

हे भगवान परसुराम ! है तो वो मेरा गुरु भाई ही ……..पर गुरु भाई कहनें में भी शर्म आती है …………उस जनक को ……….उस मिथिला पति जनक को ।

क्या किया जनक नें ? परसुराम जी नें पूछा ।

महादेव ने प्रसन्न होकर जनक को “पिनाक” दिया था ……. पूजा करनें के लिए दिया था ………..पर उस जनक नें प्रतिज्ञा कर दी …….जो इस पिनाक को तोड़ेगा ……उसे मै अपनी पुत्री दूँगा ।

अब बताइये भगवन् ! ये लक्षण भक्त के तो नही हैं !

अपनें आराध्य की वस्तु को इस तरह तुड़वा देना ……….

क्या !

 हाथ में फरसा उठ गया  परसुराम जी का    ।

क्या तोड़ दिया पिनाक ? चिल्लाये परसुराम ।

हाँ भगवन् ! तोड़ दिया पिनाक …..इसी बात का तो दुःख है …..की
हमारे आराध्य के धनुष को तुड़वा दिया जनक नें ………रावण अपनें नकली आँसू पोंछ रहा था ।

ओह ! मै अभी देखता हूँ ……………..और जिसनें भी तोडा हो …….उसके गर्दन को इसी फरसे से अलग कर दूँगा ………..

इतना कहकर परसुराम जी जनकपुर की और चल पड़े थे ……..

रावण बहुत खुश हुआ था …………..उसे लग रहा था अब तो राम का वध होकर ही रहेगा ……….मेरी ताड़का को मारा ! मेरे सुबाहु को …..और तो और मेरे मारीच को यहाँ लंका में फेंक दिया !

अब बचो राम ! परसुराम के फरसे से ……………..रावण यही कहता हुआ लंका वापस चला गया था ।

#शेषचरिञअगलेभागमें……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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[Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (13)


बसो मेरे नैनन में नंदलाल
मोर मुकुट मकराकृत कुंडल

अरुण तिलक दिए भाल
बसो मेरे नैनन में नंदलाल

अधर सुधा रस मुरली राजत
उर वैजयंती माल
बसो मेरे नैनन में नंदलाल

छुद्र घंटिका कटि तट सोभित
नूपुर सबद रसाल….

भाभी दुरतगौरी कठोर वचनों से घर त्याग का निर्णय

भाई जी ! मुझे तो बस मूर्ख ही रहने दीजिए, यदि परमात्मा की भक्ति करने से आपका कुल नीचा हो जाता हो तो ऐसे कुल की मुझे कोई परवाह नहीं; मुझे तो भगवान का*°°°°°°।

अभी तक दुरितगौरी चुपचाप दोनों भाईयो की बातचीत सुनती रही ; परंतु अब नरसिंह राम का हठ उसको असहाय हो उठा । उसने बीच में ही उनकी बात काटते हुए रोषपूर्ण शब्दों में कहना शुरू किया । देखो बड़ा टीका लगाकर भगतराज आ गये । छोटे -बड़े का तनिक -सी लिहाज नहीं ; लाख समझाऑ परंतु अपनी ज्ञान कथनी नहीं छोड़ेगें । तेरा ज्ञान तुझे मुबारक हो ; हमें तुझे साथ रखकर नात-गोत में अपनी नाक नही कटानी है । या तो यह वेष उत्तार दे और भले आदमी की तरह घर में रह और नहीं तो हमें मुँह मत दिखा ।

मैंने तुम सब लोगों का ऋण नहीं खाया है । यदि कुछ भी लाज-शर्म हो तो “अपनी कुभार्या को साथ लेकर घर से निकल जा ।” इतने दिन न मालूम कहाँ भूखों मरता रहा, अब फिर मेरी जान खाने को आ गया ।

“भाभी ! ऐसे कठोर वचन क्यों मुँह से निकाल रही हो ? यदि आपको मेरा कुटुम्ब भारस्वरूप मालूम हो रहा है तो कल से मैं अलग ही हो जाऊँगा । आप व्यर्थ मन में कलेश न मानें ,मैं तो आपको माता के समान मानता हूँ ।” नरसिंह राम ने विनम्र स्वर में कहा ।

दुरतगोरी ने कहा – “तू बड़ा टेकवाला है, यह मुझे मालूम है ।यदि ऐसी ही तेरी इच्छा है तो फिर कल क्यों ? आज ही अच्छा मुहूर्त है फिर यह अन्न -जल तेरा कमाया हुआ तो है नहीं, तू अभी अलग हो जा ।तू तो बड़ा भगत होकर आया है तुझे किस बात की चिंता है ?।”

दुरितगौरी शीघ्र से शीघ्र अलग नरसी को अलग करने पर ही तुली हुई है, यह बात नरसिंह राम से छिपी नहीं रही । उन्होंने देखा कि अब अपनी ओर से साथ रहने पर जोर देना व्यर्थ है । अब तो भगवान के भरोसे इस घर से तुरंत निकल जाना ही मेरे लिये उचित है ।

अतएव वह अपनी धर्मपत्नी ,षोडशवर्षीया पुत्री तथा पुत्र के साथ अलग होने के लिये तैयार हो गये । उनहोने वंशीधर से कहा -“भाई ! आपलोगों की आज्ञा शिरोधार्य कर अभी अलग हो रहा हूँ । आप पुज्य है, आशीर्वाद दीजिए कि मैं अपना धर्म -पालन करने में समर्थ हो सकूँ । साथ ही मेरी प्रार्थना है कि आप मुझ पर सदा स्नेह रखें, इसी से मैं कृतार्थ हो जाऊँगा । बस , विदा लेता हूँ । इतना कहकर उन्होंने बड़े भाई को प्रणाम किया ।

उधर मणिकगौरी ने भी दुरितगौरी को प्रणाम करते हुए कहा -‘जेठानीजी ! आपको प्रणाम करती हूँ और आपकी शुभाशीष चाहती हूँ ।’

वंशीधर अभी चुप ही थे कि दुरितगौरी बोल उठी-”बस , अब अधिक ज्ञान न बधार । मैंने तो आज ही तेरा स्नान कर लिया ; अब तू चाहे भीख माँग या राज्यासन पर बैठ, हमें इससे कोई मतलब नहीं , अपनी यह सीख किसी भीख माँगने वाले लँगोटिये को देना, हम संसारी लोगों को इसकी कोई आवश्यकता नहीं ।”

वंशीधर अन्त तक मौन ही रहे, मानों मौनं सम्मति लक्षणमके न्याय से उनको भी इससे भिन्न कुछ न कहना हो । नरसिंह राम अपने छोटे से परिवार के साथ चुप-चाप घर से विदा हो गये । उनके मन में हर्ष या शोक की तनिक भी छाया नहीं थी ।

गीता में श्रीकृष्ण भगवान ने कहा है कि -‘जिसका मन दुःखों की प्राप्ति में उद्धिग्न नहीं होता , जिसकी सुखों की प्राप्ति की स्पृहा दूर हो गयी है, जिसका राग,भय और क्रोध नष्ट हो गया है, वह मुनि स्थिर बुद्धि कहा जाता हैं ।’ सच्चे भगवन भक्त की यही स्थिति है, नरसिंह राम भी ऐसे ही भक्त थे–उनकी बुद्धि स्थिर थी ।

परंतु स्त्रियों का ह्रदय बड़ा कोमल होता है । थोड़ा भी कष्ट आने पर उनके नेत्र झरने लगते हैं । भक्त राज की धर्मपत्नी मणिकबाई घर से निकलते ही रोने लगी । कुछ दूर जाने पर उन्होंने भर्रायी हुई आवाज में पूछा -‘नाथ ! अब हम किसके आधार पर रहेंगे ?

‘प्रिये ! शोक करने का कोई कारण नहीं ; विपति ही मनुष्य की कसौटी है । हम अभी गाँव के बाहर की धर्मशाला में चलकर निवास करेंगे । जो परमात्मा एक चींटी से लेकर हाथी तक का भरण’ -पौषण करता है, वह क्या हमें भूखो मारेगा , हमें दुःखी रखेगा ? उस धर्मशाला जलाशय और मंदिर भी है । अतएव यहाँ कम से कम स्नान -ध्यान तो कोई अड़चन पड़ेगी ही नहीं । नरसिंह राम ने दृढ़ता के साथ कहा ।

] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीत

अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
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श्लोक 9 . 14
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सततं कीर्तयन्तो मां यतन्तश्र्च दृढव्रताः |
नमस्यन्तश्र्च मां भक्तया नित्ययुक्ता उपासते || १४ ||

सततम् – निरन्तर; कीर्तयन्तः – कीर्तन करते हुए; माम् – मेरे विषयमें; यतन्तः – प्रयास करते हुए; च – भी; दृढ़-व्रताः – संकल्पपूर्वक; नमस्यन्तः –नमस्कार करते हुए; च – तथा; माम् – मुझको; भक्त्या – भक्ति में; नित्य-युक्ताः –सदैव रत रहकर; उपासते – पूजा करते हैं |

भावार्थ
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ये महात्मा मेरी महिमा का नित्य कीर्तन करते हुए दृढसंकल्प के साथप्रयास करते हुए, मुझे नमस्कार करते हुए, भक्तिभाव से निरन्तर मेरी पूजा करते हैं|

तात्पर्य
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सामान्य पुरुष को रबर की मुहर लगाकर महात्मा नहीं बनायाजाता | यहाँ पर उसके लक्षणों का वर्णन किया गया है – महात्मा सदैव भगवान् कृष्ण केगुणों का कीर्तन करता रहता है, उसके पास कोई दूसरा कार्य नहीं रहता | वह सदैवकृष्ण के गुण-गान में व्यस्त रहता है | दूसरे शब्दों में, वह निर्विशेषवादी नहींहोता | जब गुण-गान का प्रश्न उठे तो मनुष्य को चाहिए कि वह भगवान् के पवित्र नाम,उनके नित्य रूप, उनके दिव्य गुणों तथा आसामान्य लीलाओं की प्रशंसा करते हुएपरमेश्र्वर को महिमान्वित करे | उसे इन सारी वस्तुओं को महिमान्वित करना होता है,अतः महात्मा भगवान् के प्रति आसक्त रहता है |

जो व्यक्ति परमेश्र्वर के निराकार रूप, ब्रह्मज्योति, के प्रति आसक्तहोता है उसे भगवद्गीता में महात्मा नहीं कहा गया | उसे अगले श्लोक में अन्य प्रकारसे वर्णित किया गया है | महात्मा सदैव भक्ति के विविध कार्यों में, यथा विष्णु केश्रवण-कीर्तन में, व्यस्त रहता है, जैसा कि श्रीमद्भागवत में उल्लेख है | यहीभक्ति श्रवणं कीर्तनं विष्णोः तथा स्मरणं है | ऐसा महात्मा अन्ततः भगवान् के पाँचदिव्य रसों में से किसी एक रस में उनका सान्निध्य प्राप्त करने के लिए दृढव्रतहोता है | इसे प्राप्त करने के लिए वह मनसा वाचा कर्मणा अपने सारे कार्यकलापभगवान् कृष्ण की सेवा में लगाता है | यही पूर्ण कृष्णभावनामृत कहलाता है |
भक्ति में कुछ कार्य हैं जिन्हें दृढव्रत कहा जाता है, यथा प्रत्येकएकादशी को तथा भगवान् के आविर्भाव दिवस (जन्माष्टमी) पर उपवास करना | ये सारेविधि-विधान महान आचार्यों द्वारा उन लोगों के लिए बनाये गये हैं जो दिव्यलोक मेंभगवान् का सान्निध्य प्राप्त करने के इच्छुक हैं | महात्माजन इन विधि-विधानों कादृढ़ता से पालन करते हैं | फलतः उनके लिए वाञ्छित फल की प्राप्ति निश्चित रहती है |

जैसा कि इसी अध्याय के द्वितीय श्लोक में कहा गया है, यह भक्ति न केवलसरल है अपितु, इसे सुखपूर्वक किया जा सकता है | इसके लिए कठिन तपस्या करने कीआवश्यकता नहीं पड़ती | मनुष्य सक्षम गुरु के निर्देशन में इस जीवन को गृहस्थ,संन्यासी या ब्रह्मचारी रहते हुए भक्ति में बिता सकता है | वह संसार में किसी भीअवस्था में कहीं भी भगवान् की भक्ति करके वास्तव में महात्मा बन सकता है ..

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