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November 23, 2024 8:26 am

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श्रीसीतारामशरणम्मम(18-3),“नारद जी का पूर्वजन्म”,भक्त नरसी मेहता चरित (25) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

श्रीसीतारामशरणम्मम(18-3),“नारद जी का पूर्वजन्म”,भक्त नरसी मेहता चरित (25) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

[] Niru Ashra: “नारद जी का पूर्वजन्म”

भागवत की कहानी – 24


चरण वन्दन किये थे महाराज युधिष्ठिर ने देवर्षि नारद जी के । राजसूय यज्ञ में समस्त विश्ववंद्य ऋषि पधारे थे फिर ये तो देवर्षि नारद जी थे …इनका पांडवों से विशेष स्नेह तो था ही इसके बाद श्रीकृष्ण चरणों में इनकी प्रीति किसी से छुपी नही थी । ये तो आनन्द से राजसूय यज्ञ को देख रहे थे …भगवान श्रीकृष्ण के दर्शन करके आनंदित थे । जब यज्ञ पूर्ण हुआ …ऋषि मुनि , राजा महाराजा विशेष अतिथि आदि जब चले गये …तब देवर्षि नारद जी युधिष्ठिर के पास आए थे । तब अर्घ्य पाद्यादि से पूजन भी किया था देवर्षि का और साष्टांग प्रणति भी हुये थे ।

मैं ग्रहस्थ हूँ …..आप लोग महात्मा हैं ….मेरे लिए क्या उपदेश है ? युधिष्ठिर महाराज फिर पूछते हैं …..भगवान आप लोगों से विशेष प्रसन्न हैं ….हम तो संसार के लोभ मोह में फँसे ग्रस्त लोग हैं …हमारे कल्याण का कोई उपाय हो तो कृपा करके बताइये । युधिष्ठिर महाराज ने सहज नम्रता प्रकट करते हुये ये बात कही थी । तब अपने कोमल कर युधिष्ठिर महाराज के सिर में रखते हुए देवर्षि नारद जी बोले थे । चार आश्रमों में श्रेष्ठ तो ग्रहस्थ आश्रम ही है …..क्यों कि हे राजन ! सेवा मात्र ग्रहस्थ आश्रम में ही होती है ..बाकी आश्रमों में तो सेवा ली जाती है ।

युधिष्ठिर अभी समझे नही हैं …इसलिए नारद जी उन्हें स्पष्ट करते हैं ।

ब्रह्मचर्य आश्रम में तो गृहस्थ से विद्यार्थी स्वयं सेवा लेता है …अन्न की भिक्षा आदि लेकर गुरु जी को देता है । वानप्रस्थाश्रम में भी माँगकर वानप्रस्थी खाता है वो किसी की सेवा क्या करेगा ? नारद जी कहते हैं …आगे सन्यास आश्रम ….तो सन्यासी भी तो भिक्षा के लिए ग्रहस्थों पर आश्रित है ….ग्रहस्थ ही सभी की सेवा करके खूब लाभ कमा लेता है ….हे युधिष्ठिर ! तुम गृहस्थ सच में भागशाली हो …..संत , अतिथि , गुरुजन आते हैं और तुम उनकी सेवा में जुट जाते हो ….यही सेवा तुम्हें उस पद तक पहुँचा देगी जहां बड़े बड़े ऋषि मुनि भी अधिक तप करके पहुँच पाते हैं ।

देवर्षि कहते हैं ….मैंने ये देखा है …मेरा अनुभव है ….मैं नारद बना उससे पहले मेरे दो जन्म हो चुके हैं …….ये कहते हुये नारद जी ने अपने दोनों जन्मों के विषय में बताना आरम्भ किया ।


मैं पूर्व जन्म में गन्धर्व था । “उपबर्हण” नाम का गन्धर्व । नारद जी कहते हैं …..मैं बहुत सुंदर था …मेरे ऊपर स्वर्ग की अप्सरायें भी मरती थीं । मैं सुंदर, उसके बाद गायन और अभिनय में मेरे समान और कोई नही था …ब्रह्माण्ड में कोई नही था कहूँ तो अतिशयोक्ति नही होगी ।

मेरे साथ सुन्दर सुन्दर स्त्रियाँ थीं …वो सब नाचती थीं ….मैं ही उनको सिखाता था ….सब मेरे रूप पर मोहित थी ।

एक बार ….नारद जी यहाँ पर रुक जाते हैं …फिर मुस्कुराते हुये कहते हैं …..एक विश्वसृष्टा नामके ऋषि थे ….वो श्रीकृष्ण भक्त थे ….उनकी ये इच्छा थी कि श्रीकृष्णलीला का स्वाँग उनके आश्रम में हो ……कोई पृथ्वी का सम्राट आकर उनको धन दे गया था ….नारद जी कहते हैं …ऋषि धन का करें क्या ! तो इन्होंने सोचा क्यों न श्रीकृष्ण लीला का स्वाँग अच्छे कलाकारों से करवाया जाए ….इस समय कौन है ? तभी विश्वसृष्टा ऋषि के एक शिष्य ने कह दिया ….उपबर्हण नामके एक गन्धर्व हैं …बहुत बढ़िया स्वाँग दिखाते हैं । महात्मा बड़े प्रसन्न हुये बोले …अब तो उन्हीं को बुलायेंगे और अपने आश्रम में श्रीकृष्ण लीला का अद्भुत मंचन होगा । नारद जी कहते हैं वो ऋषि सिद्ध थे …आगये मेरे पास …और मुझ से बोले ….आपको श्रीकृष्ण लीला दिखानी है ….मैं हंसा ! भगवान श्रीकृष्ण की लीला ? हाँ , उन ऋषि ने कहा ।

ठीक है ….किन्तु दर्शक कौन होगा ? हम आश्रम वासी ही होंगे …..ऋषि प्रसन्नतापूर्वक बोले …..तो मैंने कहा …नही , स्वर्ग के देवों ओर उनकी देवियों को भी बुलाओ । उन ऋषि ने मेरी बात सुनकर प्रसन्नता व्यक्त की ….और सब को बुला लिया ….अप्सराओं को मैंने ही निमन्त्रण दिया था और विशेष उर्वशी को । उससे मेरा लगाव था …..नारद जी कहते हैं । आयोजन हुआ श्रीकृष्ण लीला का …वो ऋषि बहुत प्रसन्न थे …उन्होंने अपने परिचय के ऋषियों को भी बुलाया था …उन विश्वसृष्टा ऋषि के कहने पर सप्तऋषि भी आए थे । मैं अपनी मण्डली के साथ वहाँ उपस्थित हुआ ….मेरे साथ कई महिला मित्र थीं जो आज गोपियाँ बनेंगी …..मैं स्वयं श्रीकृष्ण बना था …स्वर्ग के देवता भी आए थे मेरे इस मंचन को देखने …..मैं श्रीकृष्ण बनकर नृत्य कर रहा था ….मेरे सौन्दर्य पर वो ऋषि रीझ गए थे ….मेरे सौन्दर्य पर नही …श्रीकृष्ण के रूप पर । वो कभी ‘हा कृष्ण’ कह उठते थे तो कभी मेरे पाँव पकड़ कर रोने लगते । वो प्रसंग था श्रीकृष्ण के मथुरा गमन का …..उन ऋषि का तो रो रोकर बुरा हाल था …मेरे अभिनय के सब दीवाने बन गये थे ….”मैं जा रहा हूँ श्रीवृन्दावन छोड़कर”……मैंने श्रीराधा बनी स्त्री से कहा था …..सब मेरी ओर ही टकटकी लगाकर भाव से देख रहे थे ….तभी स्वर्ग से उर्वशी उतरी । मैं बड़ा प्रसन्न हुआ ….उर्वशी की ओर देखकर मैंने कहा ….तुम इधर आओ ….यहाँ बैठो । मैं उसको बैठाने लगा था ।

बस , सबका रस भंग हुआ । उन ऋषि विश्वसृष्टा को तो बहुत दुःख हुआ ….वो जिस लीला भूमि में अपने को पा रहे थे मैंने उनकी वो भाव भूमि खिसका दी थी । श्रीकृष्ण के ही भेष में मैं उर्वशी को बिठाने लगा …आसन देने लगा । ये देखकर ऋषियों को बहुत कष्ट हुआ …..और तो कोई बोले नही …सप्तऋषि अपने लोक में चले गये ….बाकी ऋषियों ने भी जब देखा कि यहाँ तो भाव का कोई स्थान ही नही …..तो वो भी चले गये । मेरे पास ऋषि विश्वसृष्टा आये और शान्त भाव से बोले …..सुनो ! गन्धर्व ! तुम्हारे लिए ये नाटक होगा किन्तु हमारे लिए ये हमारे आराध्य की दिव्य लीला है ….तुम्हें ऐसा नही करना चाहिए था ।

मैंने क्या किया ? नारद जी कहते हैं मैंने उन ऋषि से कहा ।

भक्ति की एक अनुपम लय होती है …तुमने वो लय तोड़ दी । भाव समाधि में हम अवगाहन कर रहे थे …लेकिन तुमने भाव को समाप्त कर दिया , ऋषि बोले जा रहे थे ….लेकिन मैं तो उर्वशी से ही बात कर रहा था …..उर्वशी बोल रही थी अब श्रीकृष्ण लीला दिखाओ , मैं देखने आयी हूँ । मैं उर्वशी से कह रहा था …बस , तुम्हारी ही प्रतीक्षा थी । तभी – हे मूर्ख ! तू हमारी भावनाओं को समझता नही है ..न समझ किन्तु अपमान तो न कर, जा ! तुझे हम शाप देते हैं , तू दासी पुत्र बन ।

नारद जी कहते हैं …..मैं स्तब्ध था …..मेरा सब कुछ समाप्त हो गया था ….मेरा अहंकार चूर्ण कर दिया था ऋषि ने । उसी समय मेरा पतन हुआ पृथ्वी लोक में …अब मैं दासी का पुत्र हुआ था ।


मैं दासी पुत्र हुआ ……एक सामान्य दासी ….जो घर घर में जाकर दूसरों के जूठे बर्तनों को माँजती है ….जो दूसरे के घरों में झाड़ू लगाती है …..उसी दासी का पुत्र मैं बना था । नारद जी युधिष्ठिर से कहते हैं ……मेरी माता कोई बहुत बुद्धिमान नही थीं …न पढ़ी लिखी थीं लेकिन सेवा भाव उनमें बहुत था …..वहाँ मैंने अनुभव किया कि सेवा सबसे बड़ी वस्तु है …”सेवा से अहंकार गलित होता है और हृदय शुद्ध होता है”। नारद जी कहते हैं …..मेरी माता ने जब देखा की उनके गाँव में सन्तों की एक मण्डली आयी है और ये सब यहीं चार महीने रुकेंगे ….ये सुनते ही मेरी वो अनपढ़ माता कितनी प्रसन्न हुई थीं ….उन्होंने अन्य घरों की सेवा त्याग दी और सन्तों की सेवा में ही लग गयी । हे युधिष्ठिर ! वो मुझे भी वहीं ले जाती ….और वहाँ ले जाकर सन्तों का जूठा खिलाती …..सन्तों को प्रणाम करने को कहती । उसी से मेरे कर्म प्रारब्ध सब मिटने लगे ….मेरा मन अत्यन्त पवित्र हो गया था ….मुझे अब खेल कूद में मन नही लगता था …मुझे तो सन्तों के संग , सन्तों के सत्संग में बड़ी रुचि होने लगी थी ।

एक दिन मेरी माता दूध लेने गयी थी लौटकर नही आयी ….मैं जब उसे देखने गया तो किसी सर्प ने उसे काट लिया था और वो मर गयी थी ….मुझे बड़ा दुःख हुआ …दाह संस्कार करके मैं सन्तों के पास गया …..सन्तों ने मुझे वैष्णवी दीक्षा दी ….और मैं उन्हीं मन्त्रों का जाप करने लगा था ।

नारद जी आगे कहते हैं …..हे युधिष्ठिर ! मैं कुछ दिन ही वहाँ रहा फिर मैंने अपने गाँव को त्याग दिया और आगे बढ़ता गया । एक सरोवर देखा मैंने ….मैं उस सरोवर में स्नान के लिए उतरा …स्नान के बाद मुझे ध्यान करने की इच्छा हुई …मैं ध्यान में बैठा ही था कि मेरे सामने ही भगवान श्रीकृष्ण प्रकट हो गये । मैं आनंदित हो उठा …मैं भगवान के पास गया ….लेकिन वो अन्तर्ध्यान हो गये थे …उस समय मैं बहुत रोया …तब मुझे आकाशवाणी ने सान्त्वना दी की अब जो तुम्हारा जन्म होगा उसमें तुम भगवान को ही पाओगे । ये सुनकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई …फिर मैं भारत वर्ष की यात्रा में निकल गया था ….नारद जी कहते हैं …एक दिन मेरा देह भी गिर गया और मेरा जन्म इस बार ब्रह्मा पुत्र के रूप में हुआ था …”नारद” मेरा नाम था ।

नारद जी कहते हैं – सेवा सबसे बड़ी वस्तु है ….सेवा से बड़ी कोई चीज़ नही है ….और ये सेवा ग्रहस्थ के ही भाग्य में है ….मेरी दासी बनी माता में बहुत सेवा भाव था ….उसी को देखकर ही मैंने ये जाना था ….मेरी माता जो सेवा करतीं थीं …वो सौभाग्य बड़े बड़े योगियों को भी प्राप्त नही था ।

नारद जी ने सेवा की महिमा बताई और कहा …गृहस्थाश्रम ही सबसे बड़ा और सर्वश्रेष्ठ है ।
[

Niru Ashra: 🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 1️⃣8️⃣
भाग 3

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा)_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀💐

#प्रथमबरातलगनतेंआई …….
📙( #रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏

मै वैदेही ! …………….

ये कहते हुए कितनें भाव से भर गया था वो डोम ……………..

अवधवासी गदगद् !………….जनकपुर के भाव की गम्भीरता को समझते हुए ………..आनन्दित हो रहे थे ।


महल ही नही सजा था ……….पूरा जनकपुर सजा था ……….विवाह का घर केवल मेरा महल ही नही लग रहा था ………जनकपुर का हर घर इस तरह से सजा था कि जैसे किसी को लगे ……..विवाह तो इसी घर में हो रहा है …….।

मेरे जनकपुर के लोगों नें अपना हृदय, पलक पाँवड़ें अपना सर्वस्व…. स्वागत में प्रस्तुत कर दिया था ।

हल्दी, दही, केशर की वर्षा नें महाराज अवधेश समेत समस्त अवध वासियों को केशरिया कर दिया था ……………

मै ये सब सुनती रही थी …………..मेरी सखियाँ आतीं और मुझे एक एक बात बतातीं ………।

महाराज दशरथ जी स्नान करनें गए हैं …………


महाराज को कहिये कि ऋषि विश्वामित्र और उनके पुत्र राम और लक्ष्मण आये हैं ………….।

एक दूत नें आकर महाराज के पास सूचना पहुंचाई ।

भरत भैया ! बड़े राम भैया और लखन भैया दोनों आरहे हैं !

भरत को ये बात ख़ुशी ख़ुशी बताई थी शत्रुघ्न नें ।

भरत के नेत्रों से अश्रु प्रवाहित होनें लगे थे ………….

क्या ? मेरा राम आरहा है ? मेरा लक्ष्मण आरहा है ?

स्नान करके आये ही थे महाराज दशरथ जी ……कि ये सूचना भरत ने दे दी थी ।

उन्हीं वस्त्रों में बाहर आगये महाराज दशरथ ……………….

सामनें से आरहे हैं गुरु विश्वामित्र ………….साथ में हैं राजीव नयन श्री राम …..और लक्ष्मण ………गज की तरह मत्त चाल है …इन दोनों भाइयों की ………..

साष्टांग लेट गए धरती में ही अवधेश ………..हे ऋषि विश्वामित्र ! ये सब आज जो मै धन्य हो गया हूँ ……..मेरी प्रजा आज जो आनन्दित है …….हमारे रघुकुल में जो खुशियाँ छाई हैं …….ये सब आपकी कृपा के कारण ही है …………ये कहते हुए भाव में डूब गए थे दशरथ जी ।

ऐसा कहना रघुकुल की महानता का परिचायक ही है ……….

हे अवध नरेश ! ये रहे तुम्हारे दोनों पुत्र !

जाओ ! वत्स ! अपनें पिता जी के चरणों की वन्दना करो ……..

दौड़ पड़े थे श्री राम ….और उनके पीछे लक्ष्मण ।

चरणों से उठाया अवधेश नें अपनें ज्येष्ठ पुत्र श्री राम एवं लक्ष्मण को …..और हृदय से लगा लिया ……………….।

भरत जी नें श्री राम के चरणों को अपनें आँसुओं से धो दिया ……..

शत्रुघ्न और श्री राम …..लक्ष्मण और शत्रुघ्न ……सब मिले ।

ये सारी सूचनाएं मुझे मेरी सखियाँ तुरन्त देती रहती थीं ………..

और हाँ …….एक और आश्चर्य की बात ………इस विवाह में, विवाह की तिथि कोई तय नही थी …………..बरात आगयी ……..पर कब विवाह होगा ये पता नही …………है ना आश्चर्य की बात !

पर मेरे जनकपुर वासी अब एक विचित्र सी प्रार्थना करनें लगे थे भगवान से ……………

हे भगवन् ! ऐसी कृपा करो कि विवाह की तिथि जल्दी न आये ……

क्यों की जल्दी विवाह होगा तो विदाई भी जल्दी होगी ना !

मेरी मिथिला ! ……कितना प्रेम ….कितना भाव उमड़ता था मेरे प्रति मेरे जनकपुर वासियों का ……..ओह !

शेष चरिञ अगले भाग में……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱


Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (25)


🕉🙇‍♀🚩नाच्यो बहुत गोपाल अब मैं
नाच्यो बहुत गोपाल ,

काम क्रोध को पहिर चोलना
कंठ विषय की माल,
अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल

तृष्णा नाद करत घट भीतर
नाना विधि दे ताल,
भरम भयो मन भयो पखावज
चलत कुसंगत चाल,
अब मैं नाच्यो बहुत गोपाल

सूरदास की सबे अविद्या
दूर करो नन्दलाल,
अब में नाच्यो बहुत गोपाल🚩🙇‍♀

🕉भगवान श्रीकृष्ण ने विवाह में स्वयं उपस्थित रहने और सम्पूर्ण कार्य कराने का नरसी को वरदान

जूनागढ के जितिमण्डल की ओर से । आये पत्र को पढ़कर मदन मेहता बड़े विचार में पड़ गये । उन्होंने सोचा कि सम्बनध हो गया, विवाह का दिन निश्चित हो गया । विवाह की सारी तैयारियाँ हो गयी ; सर्वत्र आमन्त्रण भी चला गया । इज्जत का मामला ठहरा ; क्या किया जाय ; अकस्मात उन्हें एक युक्ति सूझी ।

उन्होंने सोचा, एक पत्र जूनागढ भेज दे ; उसके अनुकूल यदि नरसिंह राम आ गये तब तो विवाह करने में कोई हर्ज ही नहीं ।अगर वह वैसा प्रबंध नहीं कर सकेंगे तब आप ही नहीं आवेगे । दोनों दशाओं में मेरी प्रतिष्ठा सुरक्षित है । उन्होंने तुरंत पत्र लिखकर एक ब्राह्मण के हाथ नरसिंह राम के पास जूनागढ भेज दिया । पत्र में लिखा था —

*सिद्धिश्री अनेक शुभोपमायोग्य श्रीयुक्त नरसिंह राम जी मेहता बड़नगर से मेहता का अनेक नमस्कार पहुँचे । आगे निवेदन है कि *आपके सुपुत्र चि○ श्रीशामलदास के साथ मेरी पुत्री चि○जूठीबाई का शुभ विवाह मिति माघ शुक्ला पंचमी को होना निशिंचत हुआ है । अतः आप उक्त तिथि पर हाथी, घोड़े, रथ और पैदल-एक चतुरंगिनी बृहत बारात के साथ पधारियेगा और मेरी मर्यादा के अनुसार वस्त्र भूषण लाइयेगा । अगर बारात और वस्त्राभूषण मेरी मर्यादा के अनुकूल न आये तो मुझे बाध्य होकर अपनी पुत्री का विवाह अन्यत्र करना पड़ेगा ।*

आपका—
मदन राय

बड़नगर से ब्राह्मण ने आकर पत्र नरसिंह राम के हाथ में दिया । पत्र पढ़कर वह श्रीकृष्ण मन्दिर में गये और करताल लेकर भगवत -कीर्तन करने लगे ।

न निन्दितं कर्म तदस्ति लोके,
सहस्रशो यन्न मया व्यधायि।
सोऽहं विपाकावसरे मुकुन्दः ,
क्रन्दामि सम्प्रत्यगतिस्तवाग्रे ।।

भावार्थ : हे भोग एवं मोक्ष को प्रदान करनेवाले मुकुन्द ! संसार मेँ ऐसा कोई निन्दित कर्म नहीँ बचा है जिसे मैँने हजारो बार नही किए हैँ । ऐसे भयंकर महान पापोँ को करने वाला मैँ अब जब समस्त कृत पाप पककर फल देने की अवस्था मेँ पहुँच गये हैँ तब दुःखो से अपनी रक्षा हेतु अन्य को रक्षक न पाकर आपके सामने रो रहा हूँ ।।

भक्त की पुकार सुनकर भगवान प्रकट हो गये । उन्होंने अमृतमयी वाणी से कहा -‘वत्स ! तुझे मेरा आवाहन क्यों करना पड़ा।

भक्त राज गदगद होकर प्रभु के चरणों पर लोट गये । फिर उठकर उन्होंने प्रभु के हाथों में वह पत्र दे दिया । पत्र पढ़कर भगवान ने कहा – “वत्स ! किसी तरह की चिंता मत करों । मैं जानता हूँ यह सब जूनागढ के ब्राह्मणों की करतूत है । मैं स्वयं अपने कुल -परिवार सहित नागरों का वेष धारण कर सारी सामग्री के साथ बारात में उपस्थित होऊँगा और तुम्हारा कार्य सम्पन्न कराऊँगा ‘ इतना कहकर भगवान अन्तर्धान हो गये ।

हे नाथ हे रामनाथ व्रजनाथार्तिनाशन।
मग्नमुद्धर गोविन्द गोकुलं वृजिनार्णवात्।।
[श्रीमद्भा. 10/4/75]

‘हे नाथ! हे रामनाथ! हे व्रजनाथ! हे गोविन्द! दु:खसागर में डूबे हुए इस व्रज का तुम्हीं उद्धार करो। हे दीनानाथ! हे दु:खितों के एकमात्र आश्रय! हमारी रक्षा करो।’

धन्य भक्त वत्सलता !

क्रमशः ………………!


Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
🥳🥳🥳🥳🥳🥳🥳
श्लोक 9 . 27
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यत्करोषि यदश्र्नासि यज्जुहोषि ददासि यत् |
यत्तपस्यसि कौन्तेय तत्कुरुष्व मदर्पणम् || २७ ||

यत् – जो कुछ; करोषि – करते हो; यत् – जो भी; अश्नासि – खाते हो; यत् – जो कुछ; जुहोषि – अर्पित करते हो; ददासि – दान देते हो; यत् – जो; यत् – जो भी; तपस्यसि – तप करते हो; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; तत् – वह; कुरुष्व – करो; अर्पणम् – भेंट रूप में |

भावार्थ
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हे कुन्तीपुत्र! तुम जो कुछ करते हो, जो कुछ खाते हो, जो कुछ अर्पित करते हो या दान देते हो और जो भी तपस्या करते हो, उसे मुझे अर्पित करते हुए करो |

तात्पर्य
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इस प्रकार यह प्रत्येक व्यक्ति का कर्त्तव्य है कि अपने जीवन को इस प्रकार ढाले कि वह किसी भी दशा में कृष्ण को न भूल सके | प्रत्येक व्यक्ति को अपने जीवन-निर्वाह के लिए कर्म करना पड़ता है और कृष्ण यहाँ पर आदेश देते हैं कि हर व्यक्ति उनके लिए ही कर्म करे | प्रत्येक व्यक्ति को जीवित रहने के लिए कुछ न कुछ खाना पड़ता है अतः उसे चाहिए कि कृष्ण को अर्पित भोजन के उच्छिष्ट को ग्रहण करे | संस्तुति है, “इसे मेरे हेतु करो” | यही अर्चन है | प्रत्येक व्यक्ति कुछ न कुछ दान देता है, अतः कृष्ण कहते हैं, “यह मुझे दो” जिसका अर्थ यह है कि अधिक धन का उपयोग कृष्णभावनामृत आन्दोलन की उन्नति के लिए करो | आजकल लोग ध्यान विधि के प्रति विशेष रूचि दिखाते हैं, यद्यपि इस युग के लिए यह व्यावहारिक नहीं है, किन्तु यदि कोई चौबीस घण्टे हरे कृष्ण का जप अपनी माला में करे तो वह निश्चित रूप से महानतम ध्यानी तथा योगी है, जिसकी पुष्टि भगवद्गीता के छठे अध्याय में की गई है |

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