🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 2️⃣0️⃣
भाग 1
( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )_
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#हिमऋतुअगहनमाससुहावा ……..
📙( #रामचरितमानस )📙
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#मैवैदेही ! …………….
सिया जू ! जल्दी तैयार हो जाओ……आज हल्दी चढानें की विधि है ।
मेरे विवाह की तैयारियां जोर सोर से चल रही थीं ……..मेरा जनकपुर ही आनन्दित नही था …….ये देवता लोग भी इस विवाह में सम्मिलित होनें के लिये आतुर दिखाई दे रहे थे ……प्रकृति झूम रही थी ।
शास्त्रों में जिस महिनें को “ब्रह्मरूप” माना गया है …..वो महीना अगहन का ही तो है……..मार्गशीर्ष का महीना ।
कई दिन हो गए हैं विधि चल ही रही है हमारे विवाह की ।
कल ही तो कमला नदी का पूजन करनें गए थे………वहाँ बड़े प्रेम से मैने कमला नदी का पूजन किया था ………..ये हमारे मिथिला की रीत है ……….नदी का वेग जैसे प्रवाहमान होता है …..ऐसे ही पतिपत्नी का प्रेम भी नव नूतन रहे ……..उचाट न होनें पाये दाम्पत्य जीवन में ।
मैने पूजन किया था ……….मेरी सारी सखियाँ और जनकपुर की नारियाँ सब थे ………….कोई मीठे स्वर से गीत गा रही थीं तो कोई मीठी मीठी गारी भी दे रही थीं ।
मैने आँखें बन्दकर के कमला नदी का पूजन किया …….ये लक्ष्मी ही तो हैं …..हाँ …..लक्ष्मी …..भगवान नारायण की लक्ष्मी ………हमारे जनकपुर में साक्षात् लक्ष्मी ही नदी के रूप में बह रही हैं ………..।
मेरा जनकपुर कोई साधारण तो है नही …………..।
हाँ यहाँ की मिट्टी भी बहुत कोमल है ………………..
अब कमला नदी से मिट्टी लेनी है ……………….
हाँ ……..नदी की मिट्टी को भाई कुदाल से खोदकर अपनी बहन के पात्र में डाल देता है……….वह मिट्टी लेकर बहन जाती है ………और उसी मिट्टी से यज्ञ की वेदी तैयार होती है ।
मेरा भाई ……………लक्ष्मी निधि । सहोदर नही है तो क्या हुआ ………सहोदर से भी बढ़कर है ये मेरा भाई ………..।
सोनें का कुदाल लेकर नदी के कूल की मिट्टी खोदकर मेरे पात्र में डाल दिया था मेरे भाई लक्ष्मी निधि नें ।
आज सोचती हूँ मै ……….विवाह की विधि भी कितनी बातें समझा जाती है …..है ना ? मिट्टी से तैयार होती है यज्ञ वेदी …….जिसके फेरे लेनें पर ही विवाह पूर्ण माना जाता है ……………….
मिट्टी ……………….
अच्छा ! मिट्टी में ये तीन गुण होते ही हैं ……………..उर्वरता, सहनशीलता और सरसता …………
क्या ये तीन वस्तुएँ वैवाहिक जीवन में न हो तो आप उस वैवाहिक जीवन को सफल कहेंगें ? या इन तीन गुणों के बिना वैवाहिक जीवन सफल हो सकता है ?
उर्वरता ……..मिट्टी में नए जीवन को जन्म देनें की शक्ति होती है ।
सहनशीलता …….मिट्टी में सहनशीलता होती है ….कितना खोदते …गोड़ते मीडते…….. पर मिट्टी की सहनशीलता है…।
मेरा भाई है मिट्टी ………..हाँ भूमी की मै भी तो बेटी हूँ ना ……और ये मिट्टी भी …………।
सरसता …………….रस है मिट्टी में ………….रस का स्रोत पृथ्वी से ही है …………और मिट्टी पृथ्वी का ही अंग है ।
( सीता जी अपनी आत्मकथा में लिखती हैं …….गृहस्थ जीवन में भी ये तीन गुणों का होना आवश्यक है ……उर्वरता …यानि सृजनशक्ति, दूसरा सहनशीलता …..क्या सहनशीलता के बिना गृहस्थ जीवन चल सकता है …..और सरसता ……..याद रहे “रस” जीवन से जिस दिन खतम है उसी दिन गृहस्थ जीवन की “इति” है )
मेरे हाथों में जब वह मिट्टी का पात्र आया था …………तब मेरी सखियाँ चिल्ला उठी थीं ………नरम कलाई हैं मेरी सिया जू की …..मुरक जायेंगीं …………सम्भालों ……………कितना स्नेह , कितना प्रेम, कितना भाव ….ओह ! कैसे भूल सकती हूँ मै अपनें उस मायके को ……..अपनें जनकपुर को ………..।
मेरा कोमल शरीर कैसे उस “मिट्टी पात्र” के भार को सहेगा कहकर मेरी सखियों नें उठा लिया …………..।
मेरे साथ इस विधि में उर्मिला , माण्डवी, और श्रुतकीर्ति भी थीं …….
इनका भी विवाह अब होना तय हो गया था ना ………।
उस दृश्य को देखनें के लिए कमला नदी के तट पर भीड़ जुट गई थी ।
और भीड़ मात्र जनकपुर वासियों की ही नही ………….
आकाश में देवता लोग अपनी अपनी देवियों के साथ विमान में खड़े हैं ……..और फूल बरसा रहे हैं ……………….
सब जयजयकार कर रहे हैं ………………..
क्रमशः …..
शेष चरिञ अगले भाग में……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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Niru Ashra: “परम भागवती द्रोपदी”
भागवत की कहानी – 28
द्रोपदी सामान्य नारी कहाँ है ! ये तो श्रीकृष्ण की सखी है । श्रीकृष्ण इसे “सखी”कहते हैं ।
याज्ञसेनी है !
यज्ञ की वेदी से प्रकट हुई है । वीरांगना है । तेज है ….जैसे अग्नि तेज होती है …दाहकता ही अग्नि की पहचान है ऐसे ही ये द्रोपदी है …..इसे जिसने छूआ …वो जल कर भस्म हो गया । ये तो हुई महाभारत की द्रोपदी ……किन्तु …..सूत भागवत में शौनक से कहते हैं …..द्रोपदी को सामान्य मत समझो …ये भक्ति के उच्च शिखर पर विराजमान है ….इसका सखा साक्षात श्रीकृष्ण है । भक्त में एक लक्षण आवश्यक हैं ….वो हैं क्षमा । अगर तुम सामने वाले को क्षमा नही सकते तो तुम भक्त नही हो । द्रोपदी का ये पक्ष भागवत के प्रथम स्कन्ध में दिखाया है ।
चलो ! उठो ! आज रात्रि यहाँ सोना उचित नही है …….श्रीकृष्ण एकाएक पाण्डवों के शिविर में आगये थे वो भी अर्धरात्रि को ….और सबको उठा दिया था ।
तो कृष्ण ! हम कहाँ जायेंगे ?
भीम सेन ने आँखें मलते हुये कहा था । हम यमुना के किनारे चलते हैं ..वहीं जागरण करेंगे आज । श्रीकृष्ण की एक बात में ये अपने प्राण न्योछावर करने को तैयार रहते हैं पाण्डव । फिर ये बात कैसे न मानते ….और श्रीकृष्ण साथ में जो हैं ।
चलो ! भीम तो उठ गया ….फिर तो अर्जुन युधिष्ठिर नकुल सहदेव सब उठ गये और चलने लगे ।
कृष्ण ! द्रोपदी को भी ले चलें ? अर्जुन ने पूछा ही था कि …हाँ , द्रोपदी को भी किन्तु वो तो अपने पुत्रों के साथ सो रही है ना ! कृष्ण ने ही कहा था । छोड़ो …कुछ सोचते हुये बोले ….और आगे के लिए चल दिए । तो हमारे पुत्र भी चलते फिर तो द्रोपदी भी चलती ही । पर तुम्हारे पुत्र नही चलेंगे …..वो सोते रहेंगे । श्रीकृष्ण बोले थे । कुछ सोचकर कृष्ण फिर बोले ….अच्छा , तो चलो उनको भी कहा जाये …..अर्जुन आदि को लेकर पाण्डव पुत्रों के शिविर में श्रीकृष्ण प्रवेश करते हैं , द्रोपदी सो रही है ….उसके पुत्र पाँच हैं …बगल में गहरी नींद में सो रहे हैं ।
ऐ बालकों ! उठो …हमें ये स्थान छोड़ना होगा आज की रात । श्रीकृष्ण ने उन सबको जगाना चाहा …..पर ये उठे तो ….लेकिन फिर सो गये …सोते हुये बोले ….नींद आरही है सोने दो ना ।
छोड़ो , इनको नींद आरही है …चलो अब । श्रीकृष्ण सबको लेकर चल दिए थे यमुना तट में ।
ले आज का सेनापति तू हुआ अश्वत्थामा ! अपने हाथों को काटकर उसके रक्त से दुर्योधन ने अश्वत्थामा के तिलक कर दिया था । युद्ध तो समाप्त हो गया …भीमसेन ने जंघा तोड़ जो दी है दुर्योधन की …..वो पड़ा है युद्धभूमि में ….इसकी सेना अब समाप्त हो गयी है ….कुरुक्षेत्र के आकाश में चील कौए मंडरा रहे हैं …..दुर्योधन की स्थिति अब ये है …टूटी जंघा लिए ये युद्ध भूमि में पड़ा है ….तभी अश्वत्थामा वहाँ आता है ….उसने दुर्योधन की दशा पर दुःख व्यक्त किया है ….तब दुर्योधन बोला …..अश्वत्थामा ! तेरी इच्छा थी ना की तू सेनापति बने …ले आज मैं तुझे हस्तिनापुर का सेनापति बनाता हूँ ….बस मेरा एक काम कर दे । हाँ हाँ कहो युवराज ! अश्वत्थामा ने कहा । मेरे शत्रुओं का सिर काट कर मेरे पास ले आओ । कौन शत्रु ! पाण्डव ? हाँ , अश्वत्थामा! हाँ । उनका सिर काटकर ले आओ । अश्वत्थामा कुछ देर सोचता रहा …फिर उत्साह से बोला …ठीक है । रक्त का तिलक कर दिया था दुर्योधन ने अश्वत्थामा का ….तुम सेनापति हो आज से । अश्वत्थामा वहाँ से नग्न खड्ग लेकर पाण्डवों के पास चल दिया था ।
पाण्डव अपने शिविर में नही हैं ….शिविर खाली है । इतनी रात्रि में ये सब कहाँ गये ? अश्वत्थामा विचार कर रहा है…..ये अर्धरात्रि के बाद ही पहुँचा था ।
कहीं गुप्तचरों से सूचना पाकर पाण्डव किसी ओर शिविर में तो नही हैं ….ऐसा विचार कर अश्वत्थामा अन्य शिविर में भी खोजने लगा था । कहीं कहीं भीतर ही प्रवेश करके ये देख रहा था । एक शिविर में इसने द्रोपदी को देखा तो बड़ा प्रसन्न हुआ ….अब पाण्डव यहीं आस पास हैं ….ऐसा सोचकर ये द्रोपदी के निकट गया …..वहाँ जब देखा …अन्धकार था ….एक दीपक टिमटिमा रहा था …द्रोपदी सो रही थी …..और निकट देखा तो बड़ा प्रसन्न हुआ ……ओह ! तो पाँचों पाण्डव यहाँ सो रहे हैं ! इनका सिर काटकर ले जाना है ….अगर काटते हुये रोए या चिल्लाये तो ? अश्वत्थामा विचार करता है …..धीरे से खड्ग चलाऊँगा …..इनकी चीख भी बाहर नही जाएगी …फिर मस्तक को ले जाऊँगा ..ये सोचता हुआ अश्वत्थामा द्रोपदी के निकट आया ….धीमा प्रकाश है ….बस पाँच कोई सो रहे हैं …यही पता है । धीरे खड्ग से एक का गला रेता …उसकी गर्दन को अपने थैले में रख लिया ..फिर दूसरा …इस तरह पाँचों का सिर काट कर अपने पास सिर रख, धड़ वहीं छोड़ अश्वत्थामा अपने मित्र दुर्योधन के पास चला आया था ।
हे कृष्ण ! गोविन्द ! हे सखे ! देखो ये क्या हुआ ! सुबह की वेला थी तभी उधर से द्रोपदी चीखती चिल्लाती कृष्ण के पास आयी ।
सखी ! क्या हुआ ? तू रो क्यों रही है ?
गोविन्द ! मेरे पाँचों पुत्रों को अश्वत्थामा ने मार दिया ।
क्या ! ओह ! पाँचों पाण्डव दुःख और अत्यन्त क्रोध से भर गए थे । तुरन्त अर्जुन उठा ….गाण्डीव सम्भाला …और श्रीकृष्ण की ओर देखते हुये कहा …चलो , उस अश्वत्थामा को मारूँगा मैं ।
तुम मार सकोगे ? ऐसे समय में भी कृष्ण मुस्कुरा रहे हैं । आप चलो तो …अर्जुन ने कहा ….और कृष्ण उसी समय रथ में बैठ गए ….और रथ को चलाने लगे थे ।
मित्र ! मित्र ! ये देखो ! मैंने तुम्हारे शत्रुओं का नाश कर दिया ……उत्साह से भरा अश्वत्थामा दुर्योधन के पास आया और उसको उसका सुखद समाचार देने लगा था ।
प्रमाण ? दुर्योधन भी प्रसन्नतापूर्वक पूछता है ।
ये प्रमाण हैं ……अपने झोले से पाँच सिर निकाले और दुर्योधन के हाथों में दे दिया ।
दुर्योधन ने ध्यान से देखा ……फिर एक सिर को क्रोध में भरकर आकाश में उछाला तो सिर फट गया ….फिर दूसरा उछाला तो दूसरा भी फट गया …..दुर्योधन के नेत्रों से अश्रु बहने लगे थे ….ये क्या किया तुमने ? अश्वत्थामा ! तुमने पाण्डव पुत्रों को मार दिया ! इतना कहा और दुर्योधन ने अपने प्राण तत्क्षण त्याग दिए । अश्वत्थामा देखता रहा …ये क्या हो गया था …उसने पाण्डव को नही पाण्डव के पाँच पुत्रों को मार दिया था ! ओह ! तभी गरुण ध्वज रथ सामने से आता हुआ अश्वत्थामा ने देखा …..अर्जुन मुझे पकड़ने आगया ! वो भागा । बड़ी तेज़ी से भागा ….उसके समझ में नही आरहा अब कैसे वो अर्जुन के उन अग्नि बाणों से बचेगा ।
तभी अर्जुन आगया ….श्रीकृष्ण उसका रथ चला रहे हैं ….ये देखकर अश्वत्थामा और भागा …बड़ी तीव्रता से भाग रहा था वो । लेकिन “गरुण ध्वज रथ” से कोई आज तक बच सका है ! अत्यन्त निकट जब अर्जुन पहुँचा डर के मारे अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया अर्जुन के ऊपर ।
अब तो अर्जुन डर गया ….श्रीकृष्ण से बोला …रक्षा करो । श्रीकृष्ण मुस्कुराए ….बोले …तेरे पास ब्रह्मास्त्र नही है क्या ? अर्जुन तुरन्त बोला …..है ना ….तो छोड़ उसे । अर्जुन ने अपना ब्रह्मास्त्र भी छोड़ दिया …..दोनों टकराये और गिरकर शान्त हो गये । अब तो अश्वत्थामा के केश पकड़े अर्जुन ने और घसीटते हुये उसे द्रोपदी के सामने लाकर पटक दिया था ।
द्रोपदी देखती है अश्वत्थामा को ….उसे घसीटा गया है ….उसका अपमान किया गया है …..
ये है हमारा अपराधी द्रोपदी !
लो खड्ग और जितने टुकड़े इसके करने हों कर दो । अर्जुन ने क्रोध में भरकर कहा ।
द्रोपदी अश्वत्थामा की ओर देखती है ….वो सिर झुकाकर खड़ा है । डर से काँप भी रहा है ।
द्रोपदी जल्दी कहो …..इसका क्या करना है ? अर्जुन ने फिर कहा तो द्रोपदी बोल उठी ….इसको मत मारो , इसको छोड़ दो….ये बात एक बार नही द्रोपदी कई बार कहती है ।
तुम पागल हो गयी हो क्या ? अर्जुन कहता है- इसने हमारे पाँच पुत्रों को मारा है ।
तो इसको मारकर मेरे पुत्र जीवित हो जाएँगे ? नही ना ! फिर क्यों मारना ? द्रोपदी की बात सुनकर श्रीकृष्ण मुस्कुरा रहे हैं । देखो ना गोविन्द ! ये कह रहे हैं कि अश्वत्थामा को ये लोग मारेंगे …..अरे गुरु पुत्र को क्यों मारना ! द्रोपदी कहती है …..मैं तो अपने पतियों के आधार से जी लुंगी ….लेकिन इस अश्वत्थामा की माता के तो पति भी नही हैं अब उसका आधार तो यही पुत्र अश्वत्थामा ही है ….हमें किसी का आधार नही छीनना चाहिए । विशेष माता जा आधार ! द्रोपदी कहती है …..इनके पिता द्रोणाचार्य ने आपको समस्त विद्याएँ प्रदान कीं ….तुम उन्हीं गुरुपुत्र को मारोगे ? मत मारो । सूत चकित हैं ये कहकर कि इतनी करुणा कृष्ण के सिवा और किसमें होगी ? द्रोपदी में है …स्वयं समाधान करते हैं ….इसलिए तो कृष्ण ने अपना ही नाम इसे “कृष्णा” दिया है । अर्जुन ने अश्वत्थामा के मस्तक की मणि छीन ली है और धक्के देकर बाहर कर दिया । द्रोपदी रो पड़ती है ….जीव प्रमादी है …लेकिन ईश्वर प्रमादी नही है …..वो सबको देखता है और सबकी सुनता है , ये कहते हुये द्रोपदी रोने लग जाती है ।
Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (29)
🕉🙇♀🙏कृष्ण गोविन्द गोविन्द गोपाल नन्दलाल
कृष्ण गोविन्द गोविन्द गोपाल नन्दलाल
हे गोपाल नन्दलाल,गोपाल नन्दलाल
गोपाल नन्दलाल हे गोपाल नन्दलाल
वो बदन मयंक वारो, मोहे धनुवंक वारो
वो टेढ़ी सी लंक वारो, रूप उजियारो है
वो लोचन विशाल वारो, गलमणि माल वारो-2
वो मस्त गज चाल वारो, जग से निहारियो है -2
वो पीत-पट पेट वारो, मधु भरी सेंट वारो
वो लाल बलवीर प्यारो, करत नटारियो है
वो मोर की मुकुट वारो, टेढ़ी सी लकुट वारो-2
वो टेढ़ी टांग वारो कृष्ण देवता हमारो है
वो टेढ़ी टांग वारो कृष्ण साहिब हमारो है
कृष्ण गोविन्द गोविन्द……………
हे गोपाल नन्दलाल………………
भजूँ तो गोपाल इक, सेवूँ तो गोपाल इक
हो मेरो मन लगयो सब भाँती नन्दलाल सो
मेरे देवी देव गुरू, मात-पिता बन्धु इष्ट
हो मित्र सखा नातो सब इक गोपाल सो
हरिशचन्द्र और सो ना, कछु सम्बन्ध मेरो
हो आश्रय सदा इक लोचन विशाल सो
जो मांगु तो गोपाल सो ना मांगु तो गोपाल सो-2
जो रिझु तो गोपालसो, खिझु तो गोपाल सो-2
कृष्ण गोविन्द गोविन्द ………..
हे गोपाल नन्दलाल …………….
मेरा श्याम मयंक मन हो चुका है
वो जान हो चुका है, जिगर हो चुका है
ये सच मानिये उसकी हर इक अदा पर -2
जो भी पास था सब नजर हो चुका है -2
कृष्ण गोविन्द गोविन्द …………..
हे गोपाल नन्दलाल ……………….
🙏🙇♀🕉🏵🏙🌿🌸
नरसी भक्त के पुत्र की मृत्यु
जो मनुष्य आज धनवान है कल वही कंगाल हो जाता हैं; जो आज हष्ट-पुष्ट ,नीरोग है, वहीं कल कई रोगों का शिकार हो जाता हैं, अचानक इस जीवन को खो बैठता है । इसलिए हमारे प्राचीन गुरुजनों तथा महात्माओं ने इस संसार की नशवरता दिखलाने के लिए इसे अभ्रक्छायाकी उपमा दी है । यह संसार एक क्षण के लिए भी एक स्थिति में नही रहता – सदा बदलता रहता है । जब संसार की यह दशा है तब संसार में उदभूत अन्य वस्तुओं तथा जीवों की अवस्था क्या पूछना ?
भक्त राज नरसिंह राम पर भी संसार का यह चक्र घूमा । एक दिन जिस शामलदास का विवाह इतने धूम-धाम से किया गया , वह शामलदास विवाह के कुछ ही समय बाद अकस्मात इस लोक से सदा के लिए विदा लेकर भगवान लोक को चला गया ।
परंतु संसार में रहने पर भी संसार -सागर की उताल तरंगों द्वारा आन्दोलित होने पर भी भगवान के सच्चे भक्त उसके दाग से वंचित रहते हैं; बल्कि सांसारिक दुःख को वे भगवत्कृपा मान कर बड़े उल्लास के साथ वरण करते हैं । क्योंकि उनकी दृष्टि में दुःख उनके भगवत-‘ प्रेम और भी प्रगाढ़ बनाता है । यही कारण है कि कुन्ती ने भगवान श्रीकृष्ण से यह वरदान माँगा था – *’हे भगवन ! यदि आप मुझ पर प्रसन्न है तो मुझे सदा दुःख ही दीजिए । फिर परम भागवत नरसिंह राम को ही दुःख क्यों होता ? उन्होंने तो पहले ही सब कुछ भगवान का समझ रखा था और केवल भगवान को ही अपना बना लिया था ।
🌹कुंती द्वारा श्री कृष्ण स्तुति🌹
नमस्ये पुरुषं त्वद्यमीश्वरं प्रकृते: परम् ।
अलक्ष्यं सर्वभूतानामन्तर्बहिरवास्थितम् ॥१॥
भावार्थ – ‘हे प्रभो ! आप सभी जीवों के बाहर और भीतर एकरस स्थित हैं, फिर भी इन्द्रियों और वृत्तियों से देखे नहीं जाते क्योंकि आप प्रकृति से परे आदिपुरुष परमेश्वर हैं. मैं आपको बारम्बार नमस्कार करती हूँ.
मायाजवनिकाच्छन्नमज्ञाधोक्षमव्ययम् ।
न लक्ष्यसे मूढदृशा नटो नाटयधरो यथा ॥२॥
भावार्थ – इन्द्रियों से जो कुछ जाना जाता है, उसकी तह में आप ही विद्यमान रहते हैं और अपनी ही माया के पर्दे से अपने को ढके रहते हैं. मैं अबोध नारी आप अविनाशी पुरुषोत्तम को भला, कैसे जान सकती हूँ? हे लीलाधर ! जैसे मूढ़ लोग दूसरा भेष धारण किये हुए नट को प्रत्यक्ष देखकर भी नहीं पहचान सकते, वैसे ही आप दिखते हुए भी नहीं दिखते.
तथा परमहंसानां मुनीनाममलात्मनाम् ।
भक्तियोगविधानार्थं कथं पश्येम हि स्त्रिय: ॥३॥
भावार्थ – आप शुद्ध हृदय वाले, विचारशील जीवन्मुक्त परमहंसो के हृदय में अपनी प्रेममयी भक्ति का सृजन करने के लिए अवतीर्ण हुए हैं. फिर हम अल्पबुद्धि स्त्रियाँ आपको कैसे पहचान सकती हैं
कृष्णाय वासुदेवाय देवकीनन्दनाय च ।
नन्दगोपकुमाराय गोविन्दाय नमो नम: ॥४॥
भावार्थ – आप श्रीकृष्ण, वासुदेव, देवकीनन्दन, नन्दगोप लाडले लाल गोविन्द को हमारा बारम्बार प्रणाम है.
नम: पङ्कजनाभाय नम: पङ्कजमालिने ।
नम: पङ्कजनेत्राय नमस्ते पङ्कजाङ्घ्रये ॥५॥
भावार्थ – जिनकी नाभि से ब्रह्मा का जन्मस्थान कमल प्रकट हुआ है, जो सुन्दर कमलों की माला धारण करते हैं, जिनके नेत्र कमल के समान विशाल और कोमल हैं, जिनके चरमकमलों में कमल का चिह्न है, ऐसे श्रीकृष्ण को मेरा बार-बार नमस्कार है.
भगवान श्री कृष्ण का भजन निरन्तर करते -करते नरसी का हर्दय भगवन्मय हो गया था, वह मानों भगवदत्किरूप नौका द्वारा दुस्तर शोकसागर को पारकर चूके थे । इकलौते पुत्र की मृत्यु तथा नवविवाहिता पुत्र वधू के वैभ्वव्य जैसे महान सांसारिक दुःख से वह लेश मात्र भी व्यथित न हुए, बल्कि पुत्र शोकाकुला मणिकाबाई को सान्त्वना देने के लिए उन्होंने उस अवसर पर यह पद भी गा सुना दिया —-
भलु थयु भांगी जजाल,
सुखे भजी शुं श्रीगोपाल।
(भला हुआ छूटा जंजाल ,
ससुख भजेंगे श्रीगोपाल)
पति की ऐसी दृढ़ता और उनके उपदेश से प्रभावित होकर मणिकाबाई का भी शोक दूर हो गया । दोनों पति पत्नी
भगवान श्रीकृष्ण की कृपा से इस घटना को एकदम भुला कर आनन्द पूर्वक भगवद भजन और साधु सेवा में पूर्ववत जीवन बिताने लगे ।
क्रमशः ………………!
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 9 : परम गुह्य ज्ञान
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श्लोक 9 . 31
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क्षिप्रं भवति धर्मात्मा शश्र्वच्छान्तिं निगच्छति |
कौन्तेय प्रतिजानीहि न मे भक्तः प्रणश्यति || ३१ ||
क्षिप्रम् – शीघ्र; भवति – बन जाता है; धर्म-आत्मा – धर्मपरायण; शश्र्वत-शान्तिम् – स्थायी शान्ति को; निगच्छति – प्राप्त करता है; कौन्तेय – हे कुन्तीपुत्र; प्रतिजानीहि – घोषित कर दो; न – कभी नहीं; मे – मेरा; भक्तः – भक्त; प्रणश्यति – नष्ट होता है |
भावार्थ
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वह तुरन्त धर्मात्मा बन जाता है और स्थायी शान्ति को प्राप्त होता है | हे कुन्तीपुत्र! निडर होकर घोषणा कर दो कि मेरे भक्त का कभी विनाश नहीं होता है |
तात्पर्य
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इसका कोई दूसरा अर्थ नहीं लगाना चाहिए | सातवें अध्याय में भगवान् कहते हैं कि जो दुष्कृती है, वह भगवद्भक्त नहीं हो सकता | जो भगवद्भक्त नहीं है, उसमें कोई भी योग्यता नहीं होती | तब प्रश्न यह उठता है कि संयोगवश या स्वेच्छा से निन्दनीय कर्मों में प्रवृत्त होने वाला व्यक्ति किस प्रकार भक्त हो सकता है ? यह प्रश्न ठीक ही है | जैसा कि सातवें अध्याय में कहा गया है, जो दुष्टात्मा कभी भक्ति के पास नहीं फटकता, उसमें कोई सद्गुण नहीं होते | श्रीमद्भागवत में भी इसका उल्लेख है | सामान्यतया नौ प्रकार के भक्ति-कार्यों में युक्त रहने वाला भक्त अपने हृदय में बसाता है, फलतः उसके सारे पापपूर्ण कल्मष धुल जाते हैं | निरन्तर भगवान् का चिन्तन करने से वह स्वतः शुद्ध हो जाता है | वेदों के अनुसार ऐसा निधान है कि यदि कोई अपने उच्चपद से नीचे गिर जाता है तो अपनी शुद्धि के लिए उसे कुछ अनुष्ठान करने होते हैं | किन्तु यहाँ पर ऐसा कोई प्रतिबन्ध नहीं है, क्योंकि शुद्धि की क्रिया भगवान् का निरन्तर स्मरण करते रहने से पहले ही भक्त के हृदय में चलति रहती है | अतः हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे | हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे – इस मन्त्र का अनवरत जप करना चाहिए | यह भक्त को आकस्मिक पतन से बचाएगा | इस प्रकार वह समस्त भौतिक कल्मषों से सदैव मुक्त रहेगा |
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Chief Editor: Manilal B.Par Hindustan Lokshakti ka parcha RNI No.DD/Mul/2001/5253 O : G 6, Maruti Apartment Tin Batti Nani Daman 396210 Mobile 6351250966/9725143877