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November 21, 2024 5:17 pm

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श्रीसीतारामशरणम्मम(21-3),“दामोदर लीला”,भक्त नरसी मेहता चरित (034) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

श्रीसीतारामशरणम्मम(21-3),“दामोदर लीला”,भक्त नरसी मेहता चरित (034) & श्रीमद्भगवद्गीता : नीरु आशरा

🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏

#मैंजनकनंदिनी…. 2️⃣1️⃣
भाग 3

( #मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )_
🌱🌻🌺🌹🌱🌻🌺🌹🥀

#कहीनजाइसबभाँतीसुहावा….._
📙( #रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏

#मैवैदेही ! ……………._

आहा ! सिया जू ! उनका वर्णन मै कैसे कर सकती हूँ ………..चन्द्रकला नें कहा। ।

मैने जब दर्शन किये रघुनन्दन श्री राम के …….घोड़े में बैठे हुए थे ……

उनके जिस अंग पर मेरी दृष्टि जाती थी …………..मेरी दृष्टि वहाँ से हटती ही नही थी …………….आहा ! उनका हर अंग !
दृष्टि और पलकों की मानों लड़ाई ही छिड़ गयी थी …………पर दृष्टि नें अब पलकों पर विजय पा लिया था ……क्यों की पलकें हार गयीं थीं …..और पलकों नें झपकना बन्द कर दिया था ।

अब बताओ सिया जू ! ऐसे छैल छबीले दूल्हा का वर्णन मै भला कैसे कर सकती हूँ ।………..मेरी सखी बोलनें में चतुर है …….मेरी प्यारी सखी ये चन्द्रकला है ।

पर मेरी ज्यादा ही जिद्द के कारण कुछ बोली थी ………….चन्द्रकला ।

सिया जू ! शुभ्र धवल घोड़े पर विराजे रघुनन्दन की छवि करोड़ों करोड़ कामदेव के चित्त को भी हरनें वाली हैं…..ओह ! क्या रूप छटा !

शरीर पर पीली पीताम्बरी है ………….अंग पर पीला पटुका है ।

जनेऊ है ……..गले में मोतियों की माला है ………और सिया जू ! मोतियों की माला ही नही ……..हीरे मणि माणिक्य इन सबकी माला धारण किये हुए हैं दूल्हा रघुनन्दन ।

उनके चरणों में जड़ाऊ जूती है …………कमर पर सुनहरा कमरबन्द है और सोनें की पेटी है ………जिसमें सुन्दर सुन्दर मोतियों का झालर सुहा रहा है । ये सब वर्णन करते हुए आँखें बन्द थीं मेरी सखी चन्द्रकला की ।

मै जब और पास में गयी …….तो आहा ! उनके सुन्दर अंगों से चन्दन की सुगन्ध आरही थी …..और वह सुगन्ध भी ऐसी मादक थी …..।

उनकी विशाल भुजाएं जिनमें माणिक्य के बाजूबन्द थे ………कानों में कुण्डल …….सिया जू ! मेरा धीरज तो समाप्त ही हो रहा था …….

उनके मस्तक पर केशर का तिलक था ………..जुल्फों की लट उनके गालों को छु रही थी ……तब जो उनकी शोभा बनती …….आहा !

और सिया जू ! ये जुल्फे थोड़े ही थीं ……….ये तो जाल थे जाल ……इस जाल में जो फंस रहा था ……..और एक बार फंस गया ……वो फिर जीवन भर नही निकल पायेगा …..ये पक्का था ।

और सिया जू ! इस छवि में भी अगर दिल फंसनें को राजी नही है तो ऐसे दिल का धड़कना क्या मायनें रखता है ……….।

और अंतिम में सिर में जड़ाऊ मुकुट है …………उसपर कलँगी लगी है ।

मौरी है …….और उसमें झलमल करती हुयी मोतियों की लड़ी है…….

इनके कमल नयन में लगा हुआ वो काजल ………….वो तो सीधे हृदय में ही प्रवेश कर जाता है ………………

सिया जू ! घोड़े में बैठे ये दूल्हा रघुनन्दन सबके चित्त को हरण करके स्वयं में लिपटा लेनें में ही इन्हें बड़ा आनन्द आता है ……..सिया जू ! ये रसिक शेखर हैं ……….इन्हें अगर अपनें प्राणों में नही बसाया …..तो इन प्राणों को धारण करनें का लाभ ही क्या हुआ ?

आहा ! इनके तिरछी नजर की बाण जिसे लग गयी …….समझो वो तो गया काम से ………………मै ज्यादा नही बोल रही हूँ सिया जू ! देखो ! जनकपुर की यही दशा हो गयी है आज …………..जिधर देखो सब बाबरी हो रही हैं यहाँ की मिथिलानियाँ ………….

देखो ! देखो ! आगयी बरात ………………….

दुष्ट है मेरी सखी चन्द्रकला ………मुझे अब ले गयी झरोखे से ……

कहती है अभी नही देखना है दूल्हा को …………………

पर कब देखना है ………मेरा तो मन अब मेरे पास ही नही है ……..

बाहर शहनाई बज रही है ………………..जयजयकार हो रहे हैं …….लोग नाच रहे हैं ….गा रहे हैं …………….

#शेषचरिञअगलेभागमें……….


💐🥀🌹🌺🌻🌱💐🥀🌹🌺🌱
जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥

ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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] Niru Ashra: “दामोदर लीला”

भागवत की कहानी – 33


“दामोदर” ये नाम मुझे बहुत प्रिय है …..हे परीक्षित ! दामोदर ! ये नाम बड़ा आत्मीयता से भरा है । ये नाम अपने जैसा लगता है …शुकदेव कहते हैं ।

हे भगवन् ! दामोदर का अर्थ क्या है ? परीक्षित के पूछने पर शुकदेव का उत्तर …..”बंधा हुआ ब्रह्म”…..हंसते हुए शुकदेव कहते हैं । ब्रह्म मुक्त ही है ….ब्रह्म को “मुक्त ब्रह्म” कहने की आवश्यकता नही है …लेकिन विशेषता तब है ना जब ….जो नही है वो हो जाये । ब्रह्म बंध जाए …ब्रह्म बंधन में अपने को देखकर आनन्द ले । ब्रह्म ज्ञान स्वरूप है तो क्या बड़ी बात है ! बड़ी बात तो ये है जब ज्ञान स्वरूप ब्रह्म अज्ञानी बनकर सामान्य बालकों की तरह मटकी फोड़े …माखन खाये …चोरी करके माखन खाये । देखो ! बड़ा व्यक्ति छोटा काम करे तो उसकी महिमा और बढ़ती है । शुकदेव तो यही कहते ।


चलिए गोकुल ! बड़ा सुन्दर गाँव है …गोकुल । नाना प्रकार के वन उपवन हैं …पक्षियों का कलरव चलता ही रहता है । सरोवर भिन्न भिन्न हैं …उनमें कमल आदि अनगिनत खिले हैं …हंस विहार करते हैं ….गायें तो बृजराज के पास नौ लाख हैं …इतनी बड़ी गौ सम्पदा इनके पास है ।

अब श्रीकृष्ण पाँच वर्ष के हो गए हैं …पाँच वर्ष के ।

मैया यशोदा “शिशु ब्रह्म” को निहारती हैं…ये ब्रह्म तो मैं कह रहा हूँ मैया यशोदा कहाँ कहती है ब्रह्म …इस बेचारी को तो ब्रह्म कहना भी नही आता …अरे कृष्ण ही कहना नही आता …आचार्य गर्ग ने कृष्ण नाम रखा तो इस मैया को बड़ी चिंता हो गयी ….कृष्ण कह नही पावे …किसन या किस्न कहे …..आचार्य गर्ग ने बहुत बार उच्चारण सिखाया पर नही सीख पाई मैया ….कन्हैया ….ये बोल सकती हूँ ….तो तेरे लिए कन्हैया ही है । कनुआ …फिर हंसती हैं …ये बोल सकती है …फिर आनन्द से उछलते हुये कहती हैं …रोहिणी तेरे लाला का नाम बलुआ और मेरे का नाम कलुआ । अब ये नाम विष्णुसहस्रनाम में हैं ? गोपाल सहस्रनाम में ? अजी कहीं नही है ये तो मैया का अपना रखा गया नाम है ।

आज मैया दधिमंथन कर रही है ….उसे आज माखन निकालना है …अपने लाला के लिए माखन निकालना है ….इसलिए वो दधिमंथन कर रही है ।

कन्हैया उठे ….लो कर लो दर्शन – केश बिखरे हुए हैं ….घुंघराले केश मुखमण्डल में ऐसे छायें हैं जैसे चन्द्रमा में बादल छा गये हों । वो कुछ देर रोए ….जब किसी ने उनके रोने पर प्रतिक्रिया नही दी तो चुप हो गये ….अपने पर्यंक से नीचे उतरे ….और अपनी मैया के पास गये ….उधर मैया मग्न है …..माखन निकालना है उसे , और ये माखन कन्हैया के लिए है ….वो तन्मय है …तभी कन्हैया ने आकर मंथन को रोक दिया । मैया ! माखन दे । मैया ने देखा उसका लाला आगया है….मैया ने तुरन्त उसे गोद में ले लिया । और माथे को चूमती हुयी बोलीं …लाला ! माखन खावैगो ? “याहिं मैं सौं”….. कन्हैया ने ये और कह दिया । अच्छा अच्छा ! अब मैया उठ गयीं ….और अपने लाला को गोद में लेकर दूध पिलाने लगीं …कन्हैया दूध पी रहे हैं ….तभी कोई गोपी आयी और बोली ….यशोदा रानी ! रसोई घर में दूध उफन गयो । अब जैसे ही मैया ने सुनी “दूध उफन गयो” कन्हैया को छोड़कर वो रसोई घर में गयीं । अब तो कन्हैया कुँ आगयी गुस्सा …वाने एक लोहड़ी लई और सामने जो धरी हती माखन की मटकी …वाही मैं दै मारी । शुकदेव कहते हैं …मटकी फूटी माखन फैल गयो….अब कन्हैया रोने लगे ….झूठे अश्रुओं से अपना मुँह भिगो लिया …तब मैया यशोदा ने आकर जब देखा ….तो पहले तो हंसीं फिर क्रोध आया …अब मैं तुझे छोड़ूँगी नहीं ….हाथ में छड़ी लेकर वो भागीं …कन्हैया भी भागे लेकिन बाद में पकड़ ही लिया ….और पीटने लगीं ….कन्हैया रो रहे हैं ….यहाँ शुकदेव कहते हैं ….जो लाभ शंकर को नही मिला , जो लाभ ब्रह्मा को नही मिला , अरे जो लाभ लक्ष्मी को नही मिला वो लाभ इन मैया यशोदा को मिल गया है । ब्रह्म को रुला दिया …मृत्यु जिससे डरती है उसे इस भोली भाली मैया ने डरा दिया ।

इतने पर ही कहाँ मानेगी मैया …आज तो बांधेगी । “दामोदर” बनाकर रहेगी ।

किन्तु रस्सी खतम हो गयीं …गोकुल की सारी रस्सियाँ खतम हो गयीं । अब तो मैया रोने लगी तब कन्हैया को दया आयी अपनी मैया पर और वो रस्सी से स्वयं ही बंध गये । मैया ने ऊखल से बांध दिया और वो चली गयीं रसोई घर में ।

यहाँ कन्हैया अकेले बंधे हैं तभी सामने दाऊ भैया के खेलने की आवाज़ आयी ….तो ये ऊखल को घसीटते हुए लेकर जाने लगे …लेकिन बीच में आगया अर्जुन का वृक्ष …यमल यानि जुड़वे थे दोनों ….कन्हैया तो उन वृक्षों के बीच में से चले गये लेकिन ऊखल ! एक जोर से झटका दिया तो वो वृक्ष ही गिर पड़े ….किन्तु ये क्या दो दिव्य पुरुष उसमें से प्रकट हो गये हैं ….वो स्तुति करते हुए चले गए ।

अब मैया ने जब देखा दो वृक्ष गिरे …..ओह ! मेरा लाला …वो चिल्लाई …उसके प्राण सूखने लगे ….वो भागी ….कन्हैया जा रहे थे ऊखल को घसीटते हुये ….मैया ने पकड़ लिया , रस्सी खोल दी और अपनी छाती से चिपका कर रोने लगी ….कन्हैया – मैया ! मत रो , मैं अब ऊधम नाँय करुंगो । अद्भुत लीला दिखाई थी ब्रह्म ने । मैया को उसका पाँच वर्ष का लाला चूमता है । और उसकी मैया अपनी गोद में उसे खिलाती है । ये है दामोदर लीला ….शुकदेव कहते हैं ।

Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (034)


सम्बालो मुझको सांवरिया मेरा बस तू सहारा है,
सहारा तू है हारे का मेरा भी तू आधारा है,
सम्बालो मुझको सांवरिया मेरा बस तू सहारा है,

भरोसा तुम पे है मेरा तू ही किस्मत बदल ता है,
भवर में नैया है मेरी उसी का तू किनारा है,
सम्बालो मुझको सांवरिया मेरा बस तू सहारा है,

नजारा तेरी शक्ति का ये दुनिया कब से देख रही,
मुझे नजरो में लेकर के बता दो सब से प्यारा है,
सम्बालो मुझको सांवरिया मेरा बस तू सहारा है,

जगत है आज बेडंगा स्म्बाला तूने आ कर के,
सबर दिल से है शक्षम को यकीन तुम पे हमारा है,
सम्बालो मुझको सांवरिया मेरा बस तू सहारा है,

इस निमंत्रण की चर्चा सारी नागर -जाति में फैल गई । जो जिस तरह का आदमी था, वह वैसी कल्पना करता था, वैसी ही बातें सोचता था ।

कोई कहता, ‘आज लोगों ने भगत को फँसा ही लिया ; कभी उसका घर भी देखने का मौका नहीं मिला था ।’ कोई कहता ,’ अरे ! यह सूखा निमंत्रण भर ही है । गोपीचन्दन और करताल के सिवा उसके घर और रखा ही क्या है ? वह वैरागी भला सारी जाति को कहाँ से भोजन करावेगा ? जब भोजन के समय पर बुलवा आवे तब जाने ।’

कोई कहता, जो हो, हम कोई अन्न बिना मरते तो है ही नहीं ! इसी बात से यह निश्चयन भी हो जायेगा कि वह सच्चा भक्त है या उसने लोगों को ठगने के लिए वेष बना रखा है । यदि सच्चा होगा तो सबको भोजन से सन्तुष्ट करके अपना वचन पूरा करेगा, अन्यथा अपना काला मुँह भी न दिखायेगा ।’

कोई कहता, ‘अरे यार ! उसने किसी अक्ल के अन्धे गाँठ के पूरे ‘आदमी को अपने जाल में फँसाया होगा और उसी के बल पर आज इतनी उदारता एकाएक उसमें फूट पड़ी है । इस प्रकार जितने मुँह उतनी बातें होने लगी।

दूसरे दिन प्रातःकाल होते ही भजनादि से छुट्टी पाकर नरसिंह राम घी का पात्र लेकर बाजार में चले । उन वीतराग महात्मा को कहाँ मालूम था कि समस्त जाति के भोजन के लिए आवश्यक घृत इस छोटे से पात्र में आवेगा या नहीं । वह अपने भजन की ही धुन में घर से निकल पड़े ।

उन्हें देखते ही एक व्यापारी ने प्रश्न किया – ” क्यों मेहता जी कहाँ चले ? कौन सी चीज लेने के लिए पधारे हैं ? कोई साधु – मण्डली तो नहीं आयी है ?

‘ नहीं सेठ जी ! साधु -मण्डली नहीं आयी है । आज पितृ श्राद्ध में ब्राह्मण भोजन कराने के लिए दस मन घी की आवश्यकता है । यदि अच्छा घृत हो तो दिखाइये ।’ भक्त राज ने उत्तर दिया ।

‘घृत का मूल्य लेकर आये है या पीछे चुकाना चाहते है ? व्यापारी ने पूछा ।

‘भाई ! घृत का मूल्य अभी नहीं ले आया हूँ । एक मास में अवश्य चुका दूँगा । नरसिंह राम ने कहा ।

सेठ ने विचार किया कि यह निर्धन आदमी एक मास में लगभग तीन सौ रूपया कहाँ पावेगा ? कोई आमदनी का जरिया तो है नहीं । इतना अधिक उधार लगाना ठीक नहीं । उसने कहा -‘ भक्त राज ! मेरे पास उतना घृत नहीं है ; अतएव लाचार हूँ ।’

नरसिंह राम आगे बढ़े । एक भगव्दभ्क्त व्यापारी ने उनको प्रणाम करते हुए आगमन का कारण पूछा । नरसिंह राम ने सब हाल सविस्तार बता देने पर उसने नम्रता पूर्वक कहा -‘ मेहता जी ! आपको जितने घी की आवश्यकता हो , आप मेरे यहाँ से ले जाईये । परंतु पहले मुझे दो-चार भगवद भजन सुना दीजिए ।

चातक को स्वाति के जल की प्राप्ति होने पर , निर्धन मनुष्य को अकस्मात अतुल धन मिल जाने पर जितनी प्रसन्नता होती है उतना ही नहीं ; प्रत्युत उससे भी कई गुना अधिक आनंद भक्त राज को हुआ । उन्होंने सोचा , जाति भोजन तो सायं काल होगा ; ऐसा भजन करने का सुअवसर फिर कब मिलेगा ?

बस , उस व्यापारी की दुकान पर आसन जमा कर बैठ गये और अत्यन्त प्रेम के साथ भगवत्संकीर्तन करने लगे । उनकी सुमधुर , प्रेमपगी वाणी सुनकर कुछ ही क्षणों में वहाँ सैकड़ों आदमी एकत्र हो गये और नरसिंहजी जाति-भोजन तथा पितृ श्राद्ध को भूल कर प्रभु के भजन में लीन हो गये.

क्रमशः ………………!
Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता

अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
🌹🌹🌹🌹🌹🌹
श्लोक 10 . 2
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न मे विदु: सुरगणाः प्रभवं महर्षयः |
अहमादिर्हि देवानां महर्षीणां च सर्वशः || २ ||

न – कभी नहीं; मे – मेरे; विदुः- जानते हैं; सुर-‍गणाः – देवता; प्रभवम् – उत्पत्ति या ऐश्र्वर्य को; न – कभी नहीं; महा-ऋषयः – बड़े-बड़े ऋषि; अहम् – मैं हूँ; आदिः – उत्पत्ति; हि – निश्चय ही; देवानाम् – देवताओं का; महा-ऋषीणाम् – महर्षियों का; च – भी; सर्वशः – सभी तरह से |

भावार्थ
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न तो देवतागण मेरी उत्पत्ति या ऐश्र्वर्य को जानते हैं और न महर्षिगण ही जानते हैं, क्योंकि मैं सभी प्रकार से देवताओं और महर्षियों का भी कारणस्वरूप (उद्गम) हूँ |
तात्पर्य
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जैसा कि ब्रह्मसंहिता में कहा गया है, भगवान् कृष्ण ही परमेश्र्वर हैं | उनसे बढ़कर कोई नहीं है, वे समस्त कारणों के कारण हैं | यहाँ पर भगवान् स्वयं कहते हैं कि वे समस्त देवताओं तथा ऋषियों के कारण हैं | देवता तथा महर्षि तक कृष्ण को नहीं समझ पाते | जब वे उनके नाम या उनके व्यक्तित्व को नहीं समझ पाते तो इस क्षुद्रलोक के तथाकथित विद्वानों के विषय में क्या कहा जा सकता है? कोई नहीं जानता कि परमेश्र्वर क्यों मनुष्य रूप में इस पृथ्वी पर आते हैं और ऐसे विस्मयजनक असामान्य कार्यकलाप करते हैं | तब तो यह समझ लेना चाहिए कि कृष्ण को जानने के लिए विद्वता आवश्यक नहीं है | बड़े-बड़े देवताओं तथा ऋषियों ने मानसिक चिन्तन द्वारा कृष्ण को जानने का प्रयास किया, किन्तु जान नहीं पाये | श्रीमद्भागवत में भी स्पष्ट कहा गया है कि बड़े से बड़े देवता भी भगवान् को नहीं जान पाते | जहाँ तक उनकी अपूर्ण इन्द्रियाँ पहुँच पाती हैं, वहीँ तक वे सोच पाते हैं और निर्विशेषवाद के ऐसे विपरीत निष्कर्ष को प्राप्त होते हैं, जो प्रकृति के तीनों गुणों द्वारा व्यक्त नहीं होता, या कि वे मनः-चिन्तन द्वारा कुछ कल्पना करते हैं, किन्तु इस तरह के मूर्खतापूर्ण चिन्तन से कृष्ण को नहीं समझा जा सकता |
.
यहाँ पर भगवान् अप्रत्यक्ष रूप में यह कहते हैं कि यदि कोई परमसत्य को जानना चाहता है तो , “लो, मैं भगवान् के रूप में यहाँ हूँ | मैं परम भगवान् हूँ |” मनुष्य को चाहिए कि इसे समझे | यद्यपि अचिन्त्य भगवान् को साक्षात् रूप में कोई नहीं जान सकता, तो भी वे विद्यमान रहते हैं | वास्तव में हम सच्चिदानन्द रूप कृष्ण को तभी समझ सकते हैं, जब भगवद्गीता तथा श्रीमद्भागवत में उनके वचनों को पढ़ें | जो भगवान् की अपरा शक्ति में हैं, उन्हें ईश्र्वर की अनुभूति किसी शासन करने वाली शक्ति या निर्विशेष ब्रह्म रूप में होती हैं, किन्तु भगवान् को जानने के लिए दिव्य स्थिति में होना आवश्यक है |
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चूँकि अधिकांश लोग कृष्ण को उनके वास्तविक रूप में नहीं समझ पाते, अतः वे अपनी अहैतुकी कृपा से ऐसे चिन्तकों पर दया दिखाने के लिए अवतरित होते हैं | ये चिन्तक भगवान् के असामान्य कार्यकलापों के होते हुए भी भौतिक शक्ति (माया) से कल्मषग्रस्त होने के कारण निर्विशेष ब्रह्म को ही सर्वश्रेष्ठ मानते हैं | केवल भक्तगण ही जो भगवान् की शरण पूर्णतया ग्रहण कर चुके हैं, भगवत्कृपा से समझ पाते हैं कि कृष्ण सर्वश्रेष्ठ हैं | भगवद्भक्त निर्विशेष ब्रह्म की परवाह नहीं करते | वे अपनी श्रद्धा तथा भक्ति के कारण परमेश्र्वर की शरण ग्रहण करते हैं और कृष्ण की अहैतुकी कृपा से ही उन्हें समझ पाते हैं | अन्य कोई उन्हें नहीं समझ पाता | अतः बड़े से बड़े ऋषि भी स्वीकार करते हैं कि आत्मा या परमात्मा तो वह है, जिसकी हम पूजा करते हैं |


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