🙏🥰 #श्रीसीतारामशरणम्मम 🥰🙏
#मैंजनकनंदिनी…. 2️⃣5️⃣
भाग 3
मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )*
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#भवफन्दफेरनहारपुनिपुनि , #स्नेहगाँठजुरावहीं…..
📙( #रामचरितमानस )📙
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#मैवैदेही! …………….
कहते तो हैं जहाँ गाँठ होती है वहाँ रस नही होता ……………जैसे गन्नें की गाँठ में रस नही होता ………सम्बंधों में गाँठ पड़ जाए …….तो रस खतम हो जाता है उस सम्बन्ध से ……..पर विचित्र है ये विवाह की रीत …गाँठ पड़नें पर ही रस माधुर्य का सृजन होता है .इसमें ……….
मेरी सखियाँ बतिया रही हैं ………………….मै दुल्हन बनी सुन रही हूँ ……मेरे रघुनन्दन अभी भी मुझे ही देख रहे हैं ……अपलक ।
सखी ! ये विवाह मण्डप की गाँठ है ……………और इस गाँठ में यही नही बंध रहे …….हम सब भी बंध रहे हैं ……….और जो इनके साथ न बंधना चाहे …..उससे बड़ा अभागी और कौन होगा !
ये तो ब्रह्म और आल्हादिनी का “गँठजोड़” है ………हम जीव अनेकानेक जन्मों से भटक ही तो रहे हैं …………अब छोडो भी सखी ! अपनें आपको इनके साथ बाँध लो …………..और क्या चाहिए हमें ?
अपनें आपको बहुत उलझाया है हमनें ………सदियों से …अनन्तकाल से ………….अब और मत उलझाओ माया में ….मोह में …….राग और द्वेष में ….अहंकार में ……..अब बस भी करो ………..
पर आदत पड़ी हुयी है उलझानें की …………वो आदत मात्र बातें बनानें से तो जानें से रहीं …….तो एक काम क्यों नही करती हो सखियों !
इसी ब्रह्म और आल्हादिनी के गँठबन्धन में अपने को उलझा दो ना ! ……..बस फिर तुम्हे कुछ करना ही नही पड़ेगा ……।
मेरी ज्ञानी सखियाँ हैं …………….बहुत बुद्धिमान हैं ……….वो सब आपस में बतिया रही हैं …………..
अच्छा एक सुनो तो ………….जो इस प्रेम गँठ बन्धन के रहस्य को नही समझता ………वही भव सागर में डूबता और उतरता रहता है …..या फिर ज्ञानी होनें का अहंकार पालकर खामखाँ चला जाता है ।
सखी ! इसी गँठ बन्धन के द्वारा ही तो ये “अनादि दूल्हा दुल्हिन” हमारे हृदय में समा गए हैं ………अब निकलनें नही देंगीं हम ……।
हमें और कुछ चाहिये भी नही ……….हमनें तो इतना भी नही चाहा कि रघुनन्दन हमें देखें …….नही जी ! हमें ऐसी चाह है ही नही …….हमारी तो बस इतनी ही चाह है कि दोनों दम्पति प्रसन्न रहें …….खुश रहें …….हम तो इनको खुश देखकर ही खुश हैं ………….।
आहा ! कितनी ऊँचाई है ………….प्रेम की ………..मेरी इन सखियों में ……..मेरी सखियों के हृदय में ……….ये प्रेम सर्वोच्च है ……….।
एक सखी गाती है …..जब मेरा “गँठजोड़” हो रहा था तब ………
“जहाँ गाँठ तहाँ रस नही, यही कहत सब कोय
मण्डप तर की गाँठ में, गाँठ पड़े रस होय ।
#शेषचरिञअगलेभागमें……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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[6/17, 8:44 PM] Niru Ashra: भक्त नरसी मेहता चरित (46)
तुम बिन मोरी कौन खबर ले गोवर्धन गिरधारी,
भरी सबा में द्रोपदी खाड़ी राखो लाज हमारी,
तुम बिन मोरी कौन खबर ले गोवर्धन गिरधारी,
मोर मुकट पीताम्भर सोहे,कुण्डल की छवि न्यारी,
तुम बिन मोरी कौन खबर ले गोवर्धन गिरधारी,
मीरा के प्रभु श्याम सूंदर है चरण कमल बलिहारी,
तुम बिन मोरी कौन खबर ले गोवर्धन गिरधारी,
नरसीजी की लिखी हुण्डी
सेवा में,
सिद्धिश्री परमशोभाधाम श्री द्वारिका निवासी प्रियतम प्राणाधार सेठ श्रीशामलशाह वसुदेवजी
सप्रेम प्रणाम
आगे निवेदन है कि मैंने यहाँ इन चार यात्रियों से नगद सात सौ रुपये लेकर आप पर हुण्डी लिख दी हैं । अत: इस हुण्डी-पत्र को देखते ही इन लोगों को पूरे सात सौ रुपये नगद दे देने की कृपा करें।
आपका
नम़ सेवक—
नरसिहंराम
( जूनागढ़ )
हुण्डी लेकर चारों यात्री वहाँ से रवाना हो गये । भगवान को नैवेध समर्पित कर भक्त राज भगवान से विनय करने लगे, ‘ हे भक्तवत्सल भगवन ! आपके ही विश्पास पर हुण्डी लिखी है ।
क्या आप उसे स्वीकार करके मेरी प्रतिष्ठा की रक्षा नहीं करेंगे ? नाथ ! मैं तो समझता हूँ कि उससे मेरी प्रतिष्ठा तो किसी प्रकार की हानि नही पहूँचेगी ,बल्कि जगत में आपकी ही हँसी होगी । दयालु दामोदर ! क्या आपको खबर नहीं है कि कल से दो दिन परयन्त सारी जाति को भोजन कराना पड़ेगा ? इसी कारण मैंने यह धृष्टता की है और वह भी केवल सात सौ रुपये के लिये ।
जगन्नाथ ! आपके भण्डार में सात सौ रूपयौ की क्या बात है ? आपने मरणोन्मुख गजेन्द्र को प्राण दान दिया था, सती पांचाली को भरी सभा में अक्षय चीर प्रदान करके उसकी लाज बचा ली थी । इतना ही नहीं, प्रत्युत मेरे ही पुत्र के विवाह में, पिताजी के श्राद्ध में तथा अन्य व्यावहारिक प्रसंगो पर आपने मेरी सहायता की है । क्या इन सात सौ रूपयौ का प्रबन्ध आप नहीं कर सकेंगे?
प्रार्थना करते समय भक्त राज के नेत्रों से अश्रु प्रवाह चल रहा था । इतना कहकर वह भगवान की प्रतिमा के चरणों में लोट गये । वह कब तक इस स्थिति में पड़े रहे, इसकी उन्हें स्वंय भी खबर न रही ।
दूसरे दिन प्रात:काल से ही जाति भोज की तैयारी होने लगी । आवश्यक सब सामग्री बाजार से आ गयी और बङी धूमधाम के साथ दो दिनों तक लगातार जाति भोजन होता रहा । जाति भर के सब लोग बड़े सन्तुष्ट हुए ।
क्रमशः ………………!
[6/17, 8:44 PM] Niru Ashra: “रुक्मिणी का प्रेमपत्र”
भागवत की कहानी – 45
विदर्भ राज्य है , उसकी राजधानी है कुंडिनपुर । राजा वहाँ के भीष्मक हैं …उनके पाँच पुत्र हैं ज्येष्ठ पुत्र का नाम है रुक्मी । इनकी कोई पुत्री नही थीं राजा को इसी बात की चिंता थी । आज ये स्नान करने के लिए गये तो सरोवर में इन्हें एक सुन्दर सी कन्या खेलती हुई मिल गयी …..इस कन्या के चरणों में चक्र शंख आदि शुभ चिन्ह अंकित थे ….इस कन्या के देह से कमल की सुगन्ध प्रकट हो रही थी …जो वातावरण को सुगन्धित बना रही थी …कन्या को देखकर भीष्मक राजा अति प्रसन्न हुये …और उन्होंने उस कन्या को उठा लिया ….महल में लाये और विप्रों ने नाम रखा – “रुक्मिणी”।
लक्ष्मी अयोनिजा होती हैं ….शुकदेव कहते हैं …वो किसी के गर्भ में वास भी नही करतीं । श्रीसीता जी या श्रीरुक्मणी या श्रीराधारानी …इन्होंने गर्भ में वास नही किया है ।
समय के साथ बढ़ने लगीं हैं रुक्मिणी ….सौन्दर्य तो इनका ऐसा खिल उठा था जिससे उर्वशी आदि भी ईर्ष्या करें । उन्हीं दिनों नारद जी ने भीष्मक राजा के यहाँ आना जाना आरम्भ किया । वो जान गये थे कि महालक्ष्मी ने इनके यहाँ अवतार लिया है ।
श्रीकृष्ण बड़े सुन्दर हैं , उनकी लीला ने मुझे मोहित कर रखा है …हे राजन ! और क्या कहूँ वो भगवान होते हुए भी ऐसी लीलाएँ दिखाते हैं मन आनन्द से भर जाता है ….राजा भीष्मक परम भक्त हैं ….उनकी भक्ति को हवा देने का काम नारद जी ने आरम्भ कर दिया है ….और राजा तो बहाना है …मूल रूप से रुक्मणी के हृदय में प्रेम को जगाना ही नारद जी का उद्देश्य है …ताकि ये लक्ष्मी नारायण एक हों । अब तो रुक्मणी नारद जी की प्रतीक्षा करने लगीं ….उन्हें श्रीकृष्ण के विषय में सुनना अत्यन्त प्रिय लगने लगा था । एक दिन नारद जी आकर बोले – श्रीकृष्ण बृज से मथुरा आगये और कंस का वध भी कर दिया । रुक्मणी सपने देखतीं ….अपने हृदय में बसा कर श्रीकृष्ण की पूजा करतीं ….अपने आपको उनकी भार्या समझकर इतरातीं ….ये क्या था ? प्रेम हो गया इस तरह रुक्मणी को । कहना होगा कि जो प्रेम सुप्त था उसे नारद जी ने जगा दिया था ।
रुक्मणी इस तरह श्रीकृष्ण को सर्वस्व मान बैठीं थीं ।
सुनो राजा भीष्मक ! भगवान श्रीकृष्ण मथुरा से द्वारिका आगये हैं । लो , एक दिन आकर नारद जी ने ये और सुना दिया । हे देवर्षि! यहाँ से तो निकट है ना द्वारिका ? रुक्मणी शरमानें लगीं थीं ।
हाँ , निकट ही तो है द्वारिका यहाँ से । नारद जी ने इतना कहा तो रुक्मणी शरमा कर चली गयीं ।
एक दिन बड़े भाई रुक्मी ने शिशुपाल से अपनी बहन रुक्मणी का सम्बन्ध पक्का कर दिया । मित्र था शिशुपाल इसलिए अपनी बहन उसी को देने का विचार बनाया । लेकिन रुक्मणी का हृदय तो श्रीकृष्ण के लिए धड़क रहा था । और विवाह भी दो दिन बाद ही ।
नयनों से अश्रु बहाने लगीं ……रात की नींद उड़ गयी है …अपनी माता से कहा तो कि – मुझे शिशुपाल से विवाह नही करना …लेकिन माता भी क्या करे ? बेटा बड़ा हो गया है …वो जिद्दी है ….मानेगा नही । अपनी प्रिय सखी से बात की रुक्मणी ने तो सखी ने सुझाया …तुम पत्र लिखो द्वारिकाधीश के लिए । हाँ , ये ठीक रहेगा । और अपने पुरोहित हैं ना …उनको संदेशवाहक बनाकर भेजो ….देखो ! सब ठीक हो जाएगा ….वो आयेंगे ? रुक्मणी पूछती हैं …क्यों नही आयेंगे ! अवश्य आयेंगे । रुक्मणी ने उसी समय भोज पत्र में अपने प्रेम का वर्णन किया …और श्रीकृष्ण को आने की प्रार्थना की । शुकदेव कहते हैं …वो पत्र बड़ा ही सुन्दर था ।
“हे भुवन सुन्दर ! आपके गुणों को मैंने सुन लिया है ….और आपके गुणों को जो सुन लेता है ना वो आपका ही हो जाता है …मैं आपकी हो गयी हूँ …मुझे लेने आओ ना !”
रुक्मणी ने यहीं से पत्र लिखना आरम्भ किया था ।
“हे सुन्दर प्रियतम ! इन नेत्रों का लाभ यही है कि ये आपको देखें । इन कानों का लाभ है कि आपको सुनें , त्वचा का लाभ है कि आपको छुएँ । और इन नासिका का लाभ है कि आपके श्रीअंगों से आने वाली सुगन्धित सुवास का आनंद लें । मैं नारी हूँ नारी सलज्ज होती है ..लेकिन आपने मुझे निर्लज्ज कर दिया …मैं अब कह रही हूँ आप आओ और मुझे अपना कर यहाँ से ले जाओ” ।
रुक्मणी खो जातीं हैं पत्र लिखते हुए ।
“ना , मैं दीन हीन नही हूँ , मैं आपसे याचना नही कर रही ..क्यों की नाथ ! प्रेम कभी याचना नही करता । मैं क्यों याचना करूँ ? मैं अच्छे कुल की हूँ , शील , रूप , विद्या सब मेरे पास भरपूर है ..मेरा जन्म अच्छे कुल में हुआ है …मैं चंचला नही हूँ …मैं गम्भीर हूँ …और आप भी ऐसे ही हैं , बिल्कुल मेरी तरह । जोड़ी अच्छी रहेगी …इसलिए मैं कह रही हूँ …आप आइये और मुझे यहाँ से ले जाइये ।”
रुक्मणी पत्र लिखते हुए शरमा रही हैं ।
“मैंने आपको अपना पति मान लिया है …ये लिखते हुए मुझे लज्जा आरही है …मेरे हाथ काँप रहे हैं …नाथ ! किन्तु अब लज्जा का समय नही है ना ! प्रेम में लाज कैसी ? मैंने अपना शरीर आपको दे दिया है …नही नही , शरीर ही नही …अपना मन , बुद्धि , चित्त अहंकार ..सब कुछ आपका है …अब इस देह में मेरा कहने जैसा कुछ नही है ….इसलिए आइये और मुझे अपना बनाइये । “
पत्र लिखते हुए रुक्मणी लेट जाती हैं , फिर अपने नेत्रों को मूँद लेती हैं ।
“नाथ ! मैंने जो भी पुण्यकर्म किए होंगे …दान , व्रत आदि जो भी किया हो , मैं उन सबको अर्पण कर रही हूँ ताकि उसके फल स्वरूप आप मुझे मिलो ….आओ ना ! मेरा पाणिग्रहण करो…मैं स्वयं भागकर आपकी द्वारिका में आसकती हूँ …लेकिन मैं भागना नही चाहती …मैं चाहती हूँ कि आप आइये और वीरों की तरह मुझे हरण करके ले जाइये । सावधान ! मुझे कोई छू न पाए अगर मुझे किसी ने छू लिया तो बदनामी आपकी होगी …शेर का भाग शियार ले जाये तो शेर की बदनामी होती है ना । “
रुक्मणी उठ जातीं हैं और अकेले खिलखिलाकर हंस पड़ती हैं ।
“मैं आपको बताती हूँ , आप मुझे लेने के लिए मेरे कुंडिन पुर आइये मैं यहीं की राजकुमारी हूँ …मेरे महल में नही , आप देवी के मंदिर में आइए …वहाँ मैं पूजा करने जाती हूँ …वहीं से मुझे ले जाइएगा । आप समझ रहे हैं ना ? हे कमल नयन ! मुझे अब आप पर विश्वास है ….आप आयेंगे ..आप अवश्य आयेंगे । अगर नही आए तो ये रुक्मणी अपने प्राणों को त्याग देगी”।
इतना लिखकर पत्र को चूमती हैं रुक्मणी और दौड़ते हुए बाहर आकर अपने पुरोहित जी के हाथों में दे देती हैं । पत्र लेकर पुरोहित जी चल पड़े हैं द्वारिका ।
[6/17, 8:44 PM] Niru Ashra: श्रीमद्भगवद्गीता
अध्याय 10 : श्रीभगवान् का ऐश्वर्य
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श्लोक 10 . 16
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वक्तुमर्हस्यशेषेण दिव्या ह्यात्मविभूतयः |
याभिर्विभूतिभिर्लोकानिमांस्त्वं व्याप्य तिष्ठसि || १६ ||
वक्तुम् – कहने के लिए; अर्हसि – योग्य हैं; अशेषेण – विस्तार से; दिव्याः – दैवी, अलौकिक; हि – निश्चय ही; आत्मा – अपना; विभूतयः – ऐश्र्वर्य; याभिः – जिन; विभूतिभिः – ऐश्र्वर्यों से; लोकान् – समस्त लोकों को; इमान् – इन; त्वम् – आप; व्याप्य – व्याप्त होकर; तिष्ठसि – स्थित हैं |
भावार्थ
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कृपा करके विस्तारपूर्वक मुझे अपने उन दैवी ऐश्र्वर्यों को बतायें, जिनके द्वारा आप इन समस्त लोकों में व्याप्त हैं |
तात्पर्य
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इस श्लोक से लगता है कि अर्जुन भगवान् सम्बन्धी अपने ज्ञान से पहले से संतुष्ट है | कृष्ण-कृपा से अर्जुन को व्यक्तिगत अनुभव, बुद्धि तथा ज्ञान और मनुष्य को इन साधनों से जो कुछ भी प्राप्त हो सकता है, वह सब प्राप्त है, तथा उसने कृष्ण को भगवान् के रूप में समझ रखा है | उसे किसी प्रकार का संशय नहीं है, तो भी वह कृष्ण से अपनी सर्वव्यापकता की व्याख्या करने के लिए अनुरोध करता है | सामान्यजन तथा विशेषरूप से निर्विशेषवादी भगवान् की सर्वव्यापकता के विषय में अधिक विचारशील रहते हैं | अतः अर्जुन श्रीकृष्ण से पूछता है कि वे अपनी विभिन्न शक्तियों के द्वारा किस प्रकार सर्वव्यापी रूप में विद्यमान रहते हैं | हमें यह जानना चाहिए कि अर्जुन सामान्य लोगों के हित के लिए यह पूछ रहा है |
#मैंजनकनंदिनी…. 2️⃣5️⃣
भाग 3
मातासीताकेव्यथाकीआत्मकथा )*
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#भवफन्दफेरनहारपुनिपुनि , #स्नेहगाँठजुरावहीं…..
📙( #रामचरितमानस )📙
🙏🙏👇🏼🙏🙏
#मैवैदेही! …………….
कहते तो हैं जहाँ गाँठ होती है वहाँ रस नही होता ……………जैसे गन्नें की गाँठ में रस नही होता ………सम्बंधों में गाँठ पड़ जाए …….तो रस खतम हो जाता है उस सम्बन्ध से ……..पर विचित्र है ये विवाह की रीत …गाँठ पड़नें पर ही रस माधुर्य का सृजन होता है .इसमें ……….
मेरी सखियाँ बतिया रही हैं ………………….मै दुल्हन बनी सुन रही हूँ ……मेरे रघुनन्दन अभी भी मुझे ही देख रहे हैं ……अपलक ।
सखी ! ये विवाह मण्डप की गाँठ है ……………और इस गाँठ में यही नही बंध रहे …….हम सब भी बंध रहे हैं ……….और जो इनके साथ न बंधना चाहे …..उससे बड़ा अभागी और कौन होगा !
ये तो ब्रह्म और आल्हादिनी का “गँठजोड़” है ………हम जीव अनेकानेक जन्मों से भटक ही तो रहे हैं …………अब छोडो भी सखी ! अपनें आपको इनके साथ बाँध लो …………..और क्या चाहिए हमें ?
अपनें आपको बहुत उलझाया है हमनें ………सदियों से …अनन्तकाल से ………….अब और मत उलझाओ माया में ….मोह में …….राग और द्वेष में ….अहंकार में ……..अब बस भी करो ………..
पर आदत पड़ी हुयी है उलझानें की …………वो आदत मात्र बातें बनानें से तो जानें से रहीं …….तो एक काम क्यों नही करती हो सखियों !
इसी ब्रह्म और आल्हादिनी के गँठबन्धन में अपने को उलझा दो ना ! ……..बस फिर तुम्हे कुछ करना ही नही पड़ेगा ……।
मेरी ज्ञानी सखियाँ हैं …………….बहुत बुद्धिमान हैं ……….वो सब आपस में बतिया रही हैं …………..
अच्छा एक सुनो तो ………….जो इस प्रेम गँठ बन्धन के रहस्य को नही समझता ………वही भव सागर में डूबता और उतरता रहता है …..या फिर ज्ञानी होनें का अहंकार पालकर खामखाँ चला जाता है ।
सखी ! इसी गँठ बन्धन के द्वारा ही तो ये “अनादि दूल्हा दुल्हिन” हमारे हृदय में समा गए हैं ………अब निकलनें नही देंगीं हम ……।
हमें और कुछ चाहिये भी नही ……….हमनें तो इतना भी नही चाहा कि रघुनन्दन हमें देखें …….नही जी ! हमें ऐसी चाह है ही नही …….हमारी तो बस इतनी ही चाह है कि दोनों दम्पति प्रसन्न रहें …….खुश रहें …….हम तो इनको खुश देखकर ही खुश हैं ………….।
आहा ! कितनी ऊँचाई है ………….प्रेम की ………..मेरी इन सखियों में ……..मेरी सखियों के हृदय में ……….ये प्रेम सर्वोच्च है ……….।
एक सखी गाती है …..जब मेरा “गँठजोड़” हो रहा था तब ………
“जहाँ गाँठ तहाँ रस नही, यही कहत सब कोय
मण्डप तर की गाँठ में, गाँठ पड़े रस होय ।
#शेषचरिञअगलेभागमें……….
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जनकसुता जग जननि जानकी। अतिसय प्रिय करुनानिधान की॥
ताके जुग पद कमल मनावउँ। जासु कृपाँ निरमल मति पावउँ॥
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